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November 21, 2024 1:32 pm

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!(૩),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (137),!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!(૩),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (137),!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (137)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम

आशाबन्धः समुत्कण्ठा नामध्याने सदा रुचिः ।
आसक्तिस्तद्गुणाख्याने प्रीतिस्तद्व्यधितिस्थले ।।

तो, हृदय में जब प्रेम का अंकुर उगता है तब ये लक्षण आते हैं। पहले प्रेम का अंकुर उदय हो, फिर वह तना बने, फिर उसमें पत्ते फूल-फल-रस आवे। जब रस आता है तो रस जब तक एकांगी रहता है तब तक प्रेमास्पद की ओर से भी प्रेम नहीं आता। तब तक उस रस में उल्लास नहीं आता। जड़ पदार्थों के प्रति प्रेम एकांगी है। सोना तुमसे थोड़े ही प्रेम करेगा? वह तो एक दुकान से दूसरी दुकान जायेगा। चाँदी तुमसे थोड़े ही प्रेम करेगी?

नोट का बण्डल तुमसे थोड़े ही प्रेम करेगा? यह प्रेम व्यर्थ गया। और जहाँ कोई देवता, कोई दैत्य, कोई प्राणी से प्रेम हुआ- कुत्ते से हुआ, चिड़िया से हुआ- तो वह भी तुमसे प्रेम तो करेगा लेकिन वह पूर्ण नहीं हो सकता। प्रेम जब तक पूर्ण से नहीं जुड़ता, तब तक पूर्ण नहीं होगा। जब परमेश्वर से प्रेम जुड़ता है, तब प्रेम पूर्ण होता है; प्रेम के विषय की पूर्णता से प्रेम पूर्ण होता है। असल में प्रेम कहते हैं उल्लासात्मक ज्ञान को; जैसे मन्द-मन्द वायु चल रही हो, चाँदनी रात हो, और गंगाजी की धारा थिरकती हुई बह रही हो, ऐसे ज्ञानगंगा की जो धारा है तरंगायमान होती हुई, उल्लसित होती हुई, नृत्य करती हुई- अपने प्रियतम को रिझाती हुई- ज्ञानधारा की उस उल्लासात्मक अवस्था में प्रेम बोलते हैं।

समाधि में शान्तज्ञान है और प्रेम में उल्लसित ज्ञान है। ज्ञान की शान्त अवस्था का नाम है समाधि और ज्ञान की उल्लसित अवस्था का नाम है प्रेम। ज्ञान का क्रिया के साथ तादात्म्य है धर्म; ज्ञान का भाव के साथ तादात्म्य है प्रेम है, और ज्ञान का स्थिति के साथ तादात्म्य है समाधि; और ज्ञान का जहाँ किसी से तादात्म्य संबंध नहीं होता, वह ज्ञान का शुद्ध स्वरूप है। क्रम का बोधक ज्ञान है काल; लम्बाई-चौड़ाई का बोधक ज्ञान है देश और द्रव्य का बोधक ज्ञान है वस्तु। ज्ञान ही वस्तु है, ज्ञान ही काल है, ज्ञान ही देश है, असल में है सब ज्ञान ही; इसी से कोई दूसरा किसी को आनन्द देना चाहता है तो नहीं दे सकता, आनन्द की वृत्ति यह है कि वह स्वयं में होनी चाहिए।+

अब देखो, प्रसंग आपको सुनाते हैं।

प्रहस्य सदयं गोपीः आत्मारामोऽप्यरीरमत् ।

‘आत्मारामोप्यरीरमत्’ का भाव आपको कल सुनाया था। आत्माराम महापुरुष भगवान् से प्रेम क्यों करते हैं? बोले- भगवान् में गुण ही ऐसे हैं। फिर बोले- आत्माराम भगवान् गोपियों से विहार क्यों करते हैं? तो कहा कि गोपियों में वे गुण हैं। गोपियों के गुण पर मुग्ध होकर भगवान् अपनी भगवत्ता को एक तरफ रखकर भी अपने कैशोर्य को सफल करते हैं। दूसरी बात यह हुई कि आत्मारामोऽपि यद्यपि ये आत्माराम हैं, उन्हें किसी के साथ विहार करने की कोई अपेक्षा नहीं है, फिर भी ‘सदयं गोपीप्यरीरमत्’ करुणा के वश हो करके कि गोपियों का दुःख किसी तरह घट जाय, इनकी पीड़ा मिट जाय, इनकी आर्ति उड़ जाय, इसके लिए उनके साथ विहार किया। कल विस्तार से सुनाया था, अब आज इसका एक दूसरा पक्ष जो है उसको सुनाता हूँ।

बात यह है कि आनन्द जिसको भी होगा अपने हृदय में होगा, आत्म होगा; आनन्द अनात्म तो कभी होता ही नहीं। तो श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास किया, रमण किया, विहार किया, तो श्रीकृष्ण को गोपियों में से- आनन्द मिला कि गोपियों को कृष्ण में से आनन्द मिला? तो वहाँ यह बताते हैं कि आत्मारामोऽपि- श्रीकृष्ण ने पहले गोपी में आत्मत्व का स्थापन किया। जो आत्मा कृष्णशरीरावच्छिन्न है, वही आत्मा गोप्याकार गोपीशरीरावच्छिन्न है। शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-आत्मा श्रीकृष्ण में और वही गोपी में, अनात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं। जो आनन्द कृष्णशरीराधार है वही आनन्द गोपीशरीरधार है; अर्थात् आत्मा ही आत्मा है। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परमात्मा है- इस दृष्टि का परित्याग किये बिना, श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ विहार किया, रासलीला की, और गोपियों को आनन्द दिया।

रासलीला में जो नृत्य हुआ उसे हल्लीसक नृत्य बोलते हैं। नाट्यशास्त्र में इसका वर्णन आता है; नाचने वाली नटी अनेक और नट एक। जैसे हमारे हृदय में वृत्तियाँ अनेक, श्यामाकार वृत्तियाँ अनेक, श्यामाकार वृत्ति, गौराकार वृत्ति, प्रेमाकार वृत्ति, श्रृंगारकार वृत्ति, ललित वृत्ति, छवि की वृत्ति, नीलिका वृत्ति, रसिका वृत्ति, धृता वृत्ति, चलिका वृत्ति, ये सब हमारे अंतःकरण में है और आत्मा एक है।++

तो जैसे एक आत्मा अनेक वृत्तियों के साथ तत्तद्वृत्ति के उदयकाल में और वृत्तिकाल में, तथा तत्तद् वृत्ति की शान्ति में, तत्तद् वृत्ति की संधि में और तत्तद् वृत्ति के सागत्य में (जब एक मिल जाती है) इनमें जैसे एक ही आत्मा क्रीड़ा कर रहा है ऐसे एक ही श्रीकृष्ण; एक ही नट जब अनेक गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है तो उस नृत्य को हल्लीसक नृत्य बोलते हैं, रास बोलते हैं; उस नृत्य का नाम रास है। इसमें ऐसा विभाग किया है कि पहले तो एक-एक यूथ में एक-एक कृष्ण हुए।

‘वनिता शतयूथपः’ एक मन मिलाकर चलने वाली जो गोपियाँ उनका एक झुण्ड, एक यूथ वनिताशतकोटिभिराकुलिताः। और उस एक मनोवृत्तिवाली गोपियों में एक कृष्ण। फिर क्या किया? दो गोपियों के बीच में एक कृष्ण और फिर जितनी गोपियाँ उतने कृष्ण। इन तीनों कक्षाओं का वर्णन रास में है। यह विरह से पूर्व का प्रथम रास है-

‘बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु’। इसमें कृष्ण एक हैं और गोपियों के यूथ हैं। अनेक सौमनस्य के अनुसार इनके विभाग हैं। सौमनस्य हुए बिना रस का उदय नहीं होता। रस के उदय के पूर्व रति चाहिए। रति माने स्थायीभाव। जहाँ स्थायी भाव नहीं होगा, वहाँ रस का उदय नहीं होगा।

माने हमारे आनन्द में बाधा क्या है? हमारे जीवन में, रस, आनन्द क्यों नहीं आता? इसका कारण यह है कि हमारे भाव में स्थायित्व नहीं है। आलम्बन, उद्दीपन, दोनों विभाव, अनुभाव, सात्त्विक संचारीभाव, इनके द्वारा जो स्थायी भाव निष्पन्न होता है, वही स्थायीभाव रसत्त्व को प्राप्त होता है। यदि हमारे हृदय में स्थायीभाव का उदय नहीं हुआ तो रस कहाँ से आवेगा? आप एक गिलास शर्बत लेकर पीने लगें और एक इधर डाँटा और एक उधर डाँटा- बच्चों के डाँटने लगे- इतने बीच में श्रीमान् से लड़ाई हो गयी, सासजी आ गयीं, उधर सौत आयी सामने, तो गिलास में जो रस है उसको पीने का मजा नहीं आवेगा। क्योंकि भाव में स्थायित्व हुए बिना रस की उत्पत्ति नहीं होती; वह तो सर्वथा हृदय की वस्तु है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[] Niru Ashra: 🌳🌳🌻🌻🌳🌳

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!

गोलोक धाम
भाग 3

🍁🍁🍁☘️🍁🍁🍁

मैया नें भगा दिया मनसुख को……पर बड़ा विचित्र है ये तो, जाते जाते बोला …….कन्हैया ! .हम सब बाहर हैं …..जल्दी आजा ।

अब भला कन्हैया का मन लगेगा ! ………….

जल्दी करके …………..माखन रोटी खाकर …………..घुँघरालें केशों को मैया नें संवार दिया है …………….नीले रँग में पीली पीताम्बरी ……..मोर मुकुट ………हाथ में लकुट ………..फेंट में बाँसुरी ……………

उफ़…….क्या रूप है…………

महर्षि आगे कुछ बोल न सके ……………गोलोकधाम की ये लीलाएं नित्य ऐसे ही चलती रहती हैं …….ये नित्य धाम है ।

ये बात आनन्दातिरेक में बोले……

……..फिर महर्षि भाव सिन्धु में डूब गए थे ।


एक दिव्य तेज़ यमुना में छा गया था अचानक …………….

उद्धव जी प्रकट हो गए थे………हाँ प्रेमी भक्त उद्धव जी ।

निकुंजेश्वरी श्रीराधारानी नें ही कृपा की है उद्धव जी पर …….

इन्हें वृन्दावन धाम वास दिया है ………कृष्ण चन्द्र जू की आज्ञा से ये बद्रीनाथ गए तो ……पर इनका मन नही लगा ……..आगये ” कुसुम सरोवर” के निकट …………….

आज महर्षि शाण्डिल्य की ये स्थिति देखकर ……भावातिरेक में महर्षि ………..तो प्रकट हो गए थे उद्धव जी ………..

पर उद्धव जी के साथ ये कौन था ? श्याम सुन्दर ? वज्रनाभ आनन्दित हो उठे …………..

नही ……मैं श्याम सुन्दर नहीं …….मैं यमुना हूँ ………हाँ कालिन्दी यमुना …………..श्याम सुन्दर का चिन्तन करते हुए मेरा रूप भी श्याम सुन्दर जैसा ही हो गया है …….यमुना नें बताया ।

पर आप प्रसन्न हैं ………क्या आपको श्याम सुन्दर का विरह व्याप नही रहा …………..वज्रनाभ नें पूछा ।

नहीं ………मेरे ऊपर श्रीराधारानी की विशेष कृपा है …………..उन्हीं नें मुझे कभी श्याम सुन्दर का विरह होनें ही नही दिया ………वो मेरे साथ ही हैं …………यहीं हैं ………….अभी हैं ।

वज्रनाभ कुछ बोल न सके ………….साष्टांग प्रणाम किया श्री यमुना रसरानी को ……और उद्धव जी को भी ।

शेष चरित्र कल –

🌷 राधे राधे🌷
: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 61 )

गतांक से आगे –

॥ दोहा ॥

जाके पद नख जोति की, आभा को अनुलेस।
जगमगात हैं जगत में, परब्रह्म परमेस ॥

॥ पद ॥

जाऊँ बलिहारी नित्य वैभव बिहारी। जुगलकिसोर स्वयं सत्य श्रुतिसारी ॥
अखिल ब्रह्मांड ब्रह्मव्यापक है जोई । तिहारे चरन नख आभा है सोई ॥
परमातम विश्वकाय नारायण विष्णु। धर्म हैं तिहारे तुम धर्मी जग जिष्णु ॥
बाल कौमार पौगंड वपुधरि कें । करत बिहार जन हेत अनुसरिकें ॥
ललित अगाध लीला बरनी नहिं जाई। श्रीहरिप्रिया भागवत कहैं प्रभुताई ॥ ३३ ॥

*चारों ओर पुष्प खिले हैं ….सुंदरतम कुँजें हैं ….मोर शुकादि पक्षियों का समुदाय है जो कलरव कर रहा है …..लताएँ वृक्षों से लिपटी हुयी हैं ….इस तरह प्रेम चारों ओर बिखरा हुआ है ….क्या कहें , कितना कहें ….इस दिव्य निकुँज का जितना वर्णन करते जाओ इसका विस्तार उतना ही होता जाता है ….ये सौन्दर्य को बिखेरता है ….इसकी आभा फैलती है …..क्यों ना फैले इसकी आभा …..अरे ! आभा की बात हुई तो सुनो ! हरिप्रिया जी मुझे बताने लगीं थीं …लाल जी के जो चरणारविन्द हैं उनके जो नख हैं …दस नख ….उसमें से केवल एक नख की आभा से परब्रह्म प्रकाशित हो रहा है ….ऐसे हैं हमारे श्रीवैभव बिहारी …..हरिप्रिया जी ने एक नाम और रख दिया था आज ….मुझे हंसी आयी …….श्रीवैभव बिहारी । मैं हंसा तो हरिप्रिया जी भी हंसीं और हंसते हुए बोलीं ……इनके वैभव की तुलना किसी से नही है ….किसी से नही …..अरे ! जिनके नख चंद्र की प्रभा से परब्रह्म जगमगाता हो और उसी जगमगाहट से पूरा विश्व जगमगा रहा हो इससे किसकी तुलना करोगे ? इसलिए मैंने इनका नाम दिया श्रीवैभव बिहारी …ये कहते हुए हरिप्रिया जी फिर हंसीं ……ये सत्य श्रुति सार हैं …..हाँ , ये युगल सरकार वेदों का सार हैं ….और वेदों से परे भी हैं …..क्यों की वेद ने स्वयं मात्र चार विभाग दिए हैं ….सत्व , रज, तम और निर्गुण ….हरिप्रिया जी कहती हैं …..जिसमें ज्ञान का निरूपण हो वो सत्व है …जिसमें सृष्टि आदि का वर्णन है वो रजोगुण है …और जिसमें संहारादि का वर्णन है …वो तामस है ….हरिप्रिया जी कहती हैं …और जिस वेद के विभाग में मात्र भगवत्चर्चा है …वो निर्गुण है ….किन्तु हमारे युगल सरकार तो इन चारों से निराले हैं …अनूठे हैं ….इसलिए वेदों से अतीत हैं ये …ये वेद के किसी विभाग में नही आते ….सत्व , रज , तम और निर्गुण …इस सबसे परे ….शाश्वत , अलौकिक शक्तिसम्पन्न और नित्य लीलारत जोरी है ये । ये कहते हुए हरिप्रिया बलैयाँ लेती हैं …बलिहार जाती हैं । ये कुँज बिहारी हैं , ये समस्त धर्म के धर्मी हैं ….सारे धर्म यहीं से प्रकट होते हैं ….क्या “रस” ही सब धर्मों के मूल में नही हैं ? क्या प्रेम ही समस्त धर्मों का सार नही है ?

हरिप्रिया आगे कहती हैं …..जितने अवतार हैं …सब अवतारों के अवतारी यही कुँज बिहारी है ….अरे ! सबकी आयु है ….किन्तु हमारे कुँज बिहारी की कोई आयु नही है …ब्रह्मा रुद्र विष्णु इन सबकी आयु का वर्णन है ….पर क्या बताऊँ …हमारे कुँज बिहारी अनादि हैं …इनका प्राकट्य नही है , अब जब प्रकटे ही नही हैं ….तो लीला संवर्धन का प्रश्न ही नही उठता । इनकी लीला चलती रहती है …जब कोई सृष्टि नही है तब भी …जब कोई अवतार आदि नही हैं तब भी ….और जब सब कोई हैं तब भी ….इस निकुँज में कोई फर्क नही पड़ता …महाप्रलय में भी निकुँज नाचता खिलखिलाता ही रहता है ….इसमें अखण्ड रस धारा बहती ही रहती है । हरिप्रिया जी कहती हैं …हे युगल सरकार ! आपके रस पूर्ण , माधुर्य पूर्ण ललित लालित्य से भरी नित्य लीला से विष्णु आदि भी रस प्राप्त करते हैं और मोहित हुए रहते हैं । और क्या कहूँ …..आप ही अपने जन को माधुर्य रस प्रदान करने के लिए …नन्द आँगन में नन्दकिशोर बनकर जाते हैं …..आपकी आल्हादिनी आपके साथ ही रहती हैं …तो वो भी वृषभान राजा के यहाँ कन्या बनकर प्रकट होती हैं ….हे युगलवर ! सारे रसों को प्रवाहित करते हैं आप , उस अवतार काल में ….ये आपका अवतार है ….मैं इसका क्या वर्णन करूँ …भागवत आदि में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है ….ये कहते हुए हरिप्रिया जी ने मुझ से पूछा ….है ना ? मैंने सिर झुकाकर ‘हाँ’ कहा । ये अवतार हैं …जो नन्दनन्दन बनें …वृषभानु नन्दिनी बनीं ….किन्तु अवतारी तो यहीं निकुँज में ही सदा सर्वदा विराजते रहते हैं ….ये कहीं नही जाते । हरिप्रिया जी ने इतना कहा और युगलवर के ध्यान में वो खो गयीं थीं ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान

श्लोक 7 . 22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते |
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान् || २२ ||

सः – वह; तया – उस; श्रद्धया – श्रद्धा से; युक्तः – युक्त; तस्य – उस देवता की; आराधनम् – पूजा के लिए; ईहते – आकांशा करता है; लभते – प्राप्त करता है; च – तथा; ततः – उससे; कामान् – इच्छाओं को; मया – मेरे द्वारा; एव – ही; विहितान् – व्यवस्थित; हि – निश्चय ही; तान् – उन |

भावार्थ

ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं |

तात्पर्य

देवतागण परमेश्र्वर की अनुमति के बिना अपने भक्तों को वर नहीं दे सकते | जीव भले ही यह भूल जाय कि प्रत्येक वस्तु परमेश्र्वर की सम्पत्ति है, किन्तु देवता इसे नहीं भूलते | अतः देवताओं की पूजा तथा वांछित फल की प्राप्ति देवताओं के करण नहीं, अपितु उनके माध्यम से भगवान् के कारण होती है | अल्पज्ञानी जीव इसे नहीं जानते, अतः वे मुर्खतावश देवताओं के पास जाते हैं | किन्तु शुद्धभक्त आवश्यकता पड़ने पर परमेश्र्वर से ही याचना करता है परन्तु वर माँगना शुद्धभक्त का लक्षण नहीं है | जीव सामान्यता देवताओं के पास इसीलिए जाता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पगलाया रहता है | ऐसा तब होता है जब जीव अनुचित कामना करता है जिसे स्वयं भगवान् पूरा नहीं करते | चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति परमेश्र्वर की पूजा के साथ-साथ भौतिकभोग की कामना करता है वह परस्पर विरोधी इच्छाओं वाला होता है | परमेश्र्वर की भक्ति तथा देवताओं की पूजा समान स्तर पर नहीं हो सकती, क्योंकि देवताओं की पूजा भौतिक है और परमेश्र्वर की भक्ति नितान्त आध्यात्मिक है |

जो जीव भगवद्धाम जाने का इच्छुक है, उसके मार्ग में भौतिक इच्छाएँ बाधक हैं | अतः भगवान् के शुद्धभक्त को वे भौतिक लाभ नहीं प्रदान किये जाते, जिनकी कामना अल्पज्ञ जीव करते रहते हैं, जिसके कारण वे परमेश्र्वर की भक्ति न करके देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं |

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