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July 2, 2025 12:36 pm

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!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!(3), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!(3), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

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!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!

“बृज की पुनर्स्थापना” – परीक्षित का प्रस्ताव
भाग 3

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पूर्णिमा की चाँदनी में गिरिराज जी अद्भुत लग रहे थे ।

बृज रज में अद्भुत चमक थी…….चाँदनी जब यमुना की रेत में पड़ती तो गौर और श्याम दो रज कण श्यामा श्याम ही लगते थे ।

उद्धव जी नें मंजीरा लिया था……….और वो भावोन्माद में अद्भुत नृत्य कर रहे थे ………….

राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।

प्रेम विह्वल उद्धव जी के दिव्य देह से सुगन्ध निकल रही थी …….नेत्रों से आल्हाद के अश्रु बिन्दु झर रहे थे ………युगल संकीर्तन में देह भान कहाँ था उद्धव जी को………..नही नही ……….ऐसा लग रहा था कि पूरा वृन्दावन ही नृत्य में लीन हो गया है ।

पर तभी ………दिव्य तेज़ दिव्य प्रकाश गिरिराज जी की तलहटी में छा गया …………सब अपनें आपनें आँखें मलनें लगे थे ………उद्धव जी उन्मत्त नृत्य कर रहे हैं …………….

उस तेज़ में से दो तेज़ निकले …………एक गौर और एक श्याम ।

अष्ट सखियाँ चारों ओर थीं …….कोई चँवर ढुरा रही थी …..कोई पँखा कर रही थी …….कोई वीणा के तार झंकृत कर रही थीं ।

जयजयकार हो उठा पुरे बृज मण्डल में ………….और हाँ एक आश्चर्य ! वृन्दावन की समस्त लातायें सखियाँ बन गयी थीं …………और उनका भी नृत्य शुरू हो गया ।

उद्धव जी मूर्छित हो गिरनें वाले ही थे कि ……….बृषभान नंदिनी श्रीराधारानी नें सम्भाल लिया ………………..ओह !

परीक्षित इस दृश्य को देखकर बृज वास का संकल्प लेनें लगे ही थे …….कि महर्षि शाण्डिल्य नें उन्हें रोक दिया ………….नही ।

क्यों कि परीक्षित ! तुम्हे पता ही होगा नन्दनन्दन के अवतार काल बीतते ही कलियुग का आरम्भ हो गया है …….चारों ओर अधर्म है ……तुम्हे समस्त पृथ्वी की यात्रा करनी है ……और धर्म की स्थापना ।

वज्रनाभ योग्य हैं ………….ये सम्भालेंगे इस बृज को ………..और मैं हूँ इनके साथ …..परीक्षित ! उद्धव जी से आज्ञा लेकर अब तुम हस्तिनापुर प्रस्थान करो ………..भाव जगत से बाहर निकाला परीक्षित को महर्षि नें …………..आवश्यक था …..क्यों की युग में परिवर्तन आचुका था ………….कलियुग का आरम्भ ।

शेष चरित्र कल-

🌺 राधे राधे🌺

Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 64 )

गतांक से आगे –

॥ दोहा ॥

अँग संगनि ततपर सदा, टहल करें सब जाम ।
सब सुख अवधि जहाँ बसे, अद्भुत स्यामा-स्याम ।।

॥ पद ॥

सब सुख अवधि स्यामा-स्याम।
नित्यधाम निवास अद्भुत अहुनिसा अभिराम ॥
महलनी निज टहल में ततपर सदा सब जाम ।
श्रीहरिप्रिया अँग संग सेवा पुजवहीं मनकाम ॥ ३६ ॥

*सखियों का एक वैशिष्ट्य है ….वो प्रिया जी की अंगसंगिनी हैं ….वो श्रीजी के वक्षस्थल में पत्रावली काढ़ती हैं ….और इस अपार सुख में वो अपने को निमग्न पाती हैं …इसलिए तो श्याम सुन्दर भी सखियों के भाग को देखकर सखियों की कभी कभी प्रार्थना करते दिखाई देते हैं …..अहो ! सर्वसुख की सीमा श्रीश्यामाश्याम के ही मंगल दिव्य श्रीअंग में ही सखियों का वास है …..ये बात हरिप्रिया जी आनन्द मग्न होकर बता रहीं थीं । सेवा धर्म प्रधान है सखियों में …..सेवा में ही अपने को ये लीन करते हुए चलती हैं ….अंगसंगी प्रिया जी की नही ..ये श्याम सुन्दर की भी हैं …क्यों की युगल को ही सेवा से रिझाना इनका उद्देश्य है ना ! किन्तु यहाँ ये दृष्टव्य है कि ….अंगसंगिनी होने के बाद भी सखियों के मन में कभी श्याम सुन्दर से अंग संग की इच्छा नही होती ….ये सुख सखियाँ प्रिया जी को ही देना चाहती हैं ….हरिप्रिया जी यहाँ रुक जाती हैं …..फिर मंद मुस्कुराते हुए कहती हैं …..कभी कभी सखियाँ वस्त्र बन जाती हैं लाल जी की …तो कभी हार बनकर कण्ठ की शोभा को बढ़ाती हैं …..प्रिया जी की करधनी बनकर इतराती हैं …तो नूपुर बनकर चरणों से लिपटी रहती हैं …ओह ! ये सुख ! हरिप्रिया आह भरती हैं ।

ये सखियाँ अत्यन्त सुन्दर हैं ….अरी ! सुन्दरता भी इनको देखकर मुग्ध हो जाए ऐसी सुन्दर हैं ….कोई कामना नही है इनके मन में ….पूर्ण निष्काम हैं ….अपनी सुंदरता ये युगल की प्रसन्नता में चढ़ाये रखती हैं …..खूब सज धज कर ये सेवा में उपस्थित होती हैं …..युगल के नेत्रों को भी तो सुख मिलना चाहिए ना ! इसलिए ये सज सध कर रहती हैं …..कमल पुष्पों के समान सुगन्ध इन सखियों के अंगों से प्रकट होता रहता है …कभी कभी भ्रमरों को भी लगता है कमल यहीं है ….कमल इन्हीं में छुपा है …इनके श्रीअंगों में मँडराने लगते हैं । हरिप्रिया जी आगे ये कहते हुये मत्त हो जाती हैं कि ये सखियाँ युगल के समस्त मनोकामना की पूर्ति करने वाली हैं ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 25
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नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |
मूढोSयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् || २५ ||

न – न तो; अहम् – मैं; प्रकाशः – प्रकट; सर्वस्य – सबों के लिए; योग-माया – अन्तरंगा शक्ति से; समावृत – आच्छादित; मूढः – मुर्ख; अयम् – यह; न – नहीं; अभिजानाति – समझ सकता है; लोकः – लोग; माम् – मुझको; अजम् – अजन्मा को; अव्ययम् – अविनाशी को |

भावार्थ
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मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ |

तात्पर्य
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यह तर्क दिया जा सकता है कि जब कृष्ण इस पृथ्वी पर विद्यमान थे और सबों के लिए दृश्य थे तो अब वे सबों के समक्ष क्यों नहीं प्रकट होते? किन्तु वास्तव में वे हर एक के समक्ष प्रकट नहीं थे | जब कृष्ण विद्यमान थे तो उन्हें भगवान् रूप में समझने वाले व्यक्ति थोड़े ही थे | जब कुरु सभा में शिशुपाल ने कृष्ण के समाध्यक्ष चुने जाने पर विरोध किया तो भीष्म ने कृष्ण का समर्थन किया और उन्हें परमेश्र्वर घोषित किया | इसी प्रकार पाण्डव तथा कुछ अन्य लोग उन्हें परमेश्र्वर के रूप में जानते थे, किन्तु सभी ऐसे नहीं थे | अभक्तों तथा सामान्य व्यक्ति के लिए वे प्रकट नहीं थे | इसीलिए भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि उनके विशुद्ध भक्तों के अतिरिक्त अन्य सारे लोग उन्हें अपनी तरह समझते हैं | वे अपने भक्तों के समक्ष आनन्द के आगार के रूप में प्रकट होते थे, किन्तु अन्यों के लिए, अल्पज्ञ अभक्तों के लिए, वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से आच्छादित रहते थे |

श्रीमद्भागवत में (१.८.१९) कुन्ती ने अपनी प्रार्थना में कहा है कि भगवान् योगमाया के आवरण से आवृत हैं, अतः सामान्य लोग उन्हें समझ नहीं पाते | ईशोपनिषद् में (मन्त्र १५) भी इस योगमाया आवरण की पुष्टि हुई है, जिससे भक्त प्रार्थना करता है –

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् |
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ||

“हे भगवान! आप समग्र ब्रह्माण्ड के पालक हैं और आपकी भक्ति सर्वोच्च धर्म है | अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मेरा भी पालन करें | आपका दिव्यरूप योगमाया से आवृत है | ब्रह्मज्योति आपकी अन्तरंगा शक्ति का आवरण है | कृपया इस तेज को हटा ले क्योंकि यह आपके सच्चिदानन्द विग्रह के दर्शन में बाधक है |” भगवान् अपने दिव्य सच्चिदानन्द रूप में ब्रह्मज्योति की अन्तरंगाशक्ति से आवृत हैं, जिसके फलस्वरूप अल्पज्ञानी निर्विशेषवादी परमेश्र्वर को नहीं देख पाते |

श्रीमद्भागवत में भी (१०.१४.७) ब्रह्मा द्वारा की गई यह स्तुति है – “हे भगवान्, हे परमात्मा, हे समस्त रहस्यों के स्वामी! संसार में ऐसा कौन है जो आपकी शक्ति तथा लीलाओं का अनुमान लगा सके? आप सदैव अपनी अन्तरंगाशक्ति का विस्तार करते रहते हैं, अतः कोई भी आपको नहीं समझ सकता | विज्ञानी तथा विद्वान भले ही भौतिक जगत् की परमाणु संरचना का या कि विभिन्न ग्रहों का अन्वेषण कर लें, किन्तु अपने समक्ष आपके विद्यमान होते हुए भी वे आपकी शक्ति की गणना करने में असमर्थ हैं |” भगवान् कृष्ण न केवल अजन्मा हैं, अपितु अव्यय भी हैं | वे सच्चिदानन्द रूप हैं और उनकी शक्तियाँ अव्यय हैं |

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Author: admin

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