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November 21, 2024 11:20 pm

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!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (144)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (144)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 71 )


गतांक से आगे –

अब सुनि समवर्तनि सखि जोई । इहि प्रकार बिबि सेवें सोई ॥

सरदेंदुका मुकर मन मोहैं। अनंतरँगा सिंघासन सोहैं ॥

सोहैं अनंतरँगा सिंघासन चॅवर मधु-मारुत अली।

छत्र है ऐश्वर्यपूर्ण सुगंध गंध मादावली ॥

सर्वतोभद्रनी सज्या सुमन वल्लरि फूल है।

स्वतः संतोषनि स्मय है सेवहीं अनुकूल है ॥

निज सहचरि इच्छा अनुसारैं। बिबिधि रूप धरि संग बिहारें ॥

जो कछु पारहिं पावैं। यथासक्ति कहि भलौ मनावैं ॥

मनावैं भलौ कहि यथासक्तिहिं हार मानि न रह जियें।

कहत सुनत ही होत है उपकार यातें कह जियें ॥

जै-जै श्रीहरिप्रिया सहचरि सदा ततपर टहल में।

नित्य राजत राज अविचल महा मोहन महल में ॥३७॥

हे रसिकों ! निकुँजोपासना में ये समझना आवश्यक है कि ….यहाँ सखीत्व ही साधक का परम साध्य है …इससे आगे कोई अन्य सुख है नही । मुझे कल एक साधिका पूछ रहीं थीं कि सखी की साधना श्रीराधा के सुख को पाना है ? ना , अगर आप ऐसा सोच रहे हो तो आपने अभी तक निकुँजोपासना को समझा ही नही । सखी को अपने सखीत्व में ही परम सुख मिल रहा है …उसे आगे कुछ नही चाहिए । ये नित्य विहार लीला है …जो नित्य चल रहा है …..चाहे विश्व ब्रह्माण्ड में कुछ कहीं हो जाए किन्तु इन श्रीरासबिहारी की लीला में कोई विक्षेप नही आता । इस नित्य विहार में सखी ही मूल भूमिका में है …अजी ! क्या कहूँ ! ये सखीत्व है …जिसकी कामना करते हुए स्वयं श्रीकुँज बिहारी दिखाई देते हैं …तो कभी इसी सखीत्व की कामना करती हुयी श्रीराधिका जी दिखाई देती हैं …ये सामान्य भाव नही है …ये भावों का भी भाव है ।

एक दिन कदम्ब कुँज में सखियों को प्रिया जी नृत्य सिखा रहीं थीं । लाल जी का मन नही लग रहा बिना प्रिया जी के ….तो वो पहुँच गए कदम्ब कुँज में ……किन्तु बाहर सखियों ने रोक दिया और कहा ….लाल जी ! भीतर प्रिया जी हम सखियों को नृत्य सिखा रही हैं आपको प्रवेश नही है …..लाल जी कुछ कहते उससे पहले ही सखी ने कह दिया – प्रिया जी ने ही मना किया है….उन्होंने कहा है ….इस समय सखियों का ही प्रवेश होगा किसी पुरुष का नही …..”पुरुष” शब्द में सखी जोर दे रही थी …लाल जी उदास हो गए …वो वही बैठ गये सोचने लगे कि क्या किया जाए ? तभी बुद्धिमानों के बुद्धिमान लाल जी तुरन्त सखी से बोले ….सखी ! एक काम कर मुझे सखी ही बना दे और प्रिया जी का नृत्य दिखा दे । ये सुनकर सखी हंसी …उसे लगा ये तो विनोद कर रहे हैं ….किन्तु लाल जी विनोद नही गम्भीरता में ही बोल रहे थे ….और ये भी कहते जा रहे थे ….मुझ से ज़्यादा सौभाग्य तो तुम लोगों का है ….जो सेवा में लगी रहती हो और सेवा को ही परम साध्य मानकर चलती हो …..प्यारी जी के सुख का सम्पादन तुम्हारे द्वारा ही होता है …और कई अन्तरंग क्षणों में , मैं भी नही होता वहाँ तुम होती हो …जैसे – स्नान आदि और ये नृत्य आदि । लाल जी झुक गये…..घुटनों के बल बैठ गये ….सखी से हाथ जोड़कर बोले ….सखी ! मुझे सखीभाव प्रदान कर , मुझे सखीत्व प्रदान कर …..मुझे सखी बना कर उस नृत्य का दर्शन करा जिसे हमारी प्यारी कर रही हैं । अस्तु ।

क्या कहोगे ? क्या कुछ कहना अब शेष है ? सखी उसे कहते हैं जिसने अपने आराध्य के सुख में अपना सुख देखना आरम्भ कर दिया । अपने सुख की होली जलाई और चल दी नित्य विहार के दर्शन करने …..अपनी सेवा प्रदान करने …अपना सर्वस्व सुख अपने आराध्य को देने …..लेने नही …ना । यही है सखीत्व …..इससे आगे और कुछ नही , कोई सुख नही ।


सखियाँ सुख पहुँचे युगल को इसके लिए नाना प्रकार के जतन में लगी रहती हैं …जब उन्हें लगता है हमें इनके सामने नही रहना …हमारे न रहने से इन्हें सुख मिलेगा तो वो वहाँ से हट जाती हैं …किन्तु हटकर कहीं जाती नहीं हैं …कहाँ जायेंगीं ….इन युगलचन्द्र के सिवा इनका और है ही कौन ? हरिप्रिया जी कहती हैं …सखियाँ हीं वस्त्राभूषण बन जाती हैं ….तो दूसरी सखियां …मन में उत्पन्न होने वाले भाव …हर्ष , आनन्द , आसक्ति और मन में उत्पन्न काम ही बनकर युगल को प्रमुदित करती रहती हैं ….किन्तु …..हरिप्रिया यहाँ कहते हुये रुक गयीं हैं …..वो बस मुस्कुरा रही हैं ….मैंने जब आग्रह किया कि कुछ तो कहिये ….ये सखियों का तीसरा वर्ग क्या है ? और ये क्या सेवा करती हैं ? तब हरिप्रिया जी कहती हैं …ये तीसरे वर्ग की सखियाँ …..अद्भुत हैं ….ये जब देखती हैं सुहाग सेज पर युगलवर केलि करने को उन्मत्त हो रहे हैं तो ये सखियाँ कोमल शैया बनकर सेज में बिछ जाती हैं …..एक सखी ये देखती है …तो वो भी हंसते हुए तकिया बन जाती है …और युगलवर को आधार देती है । सुरत केलि चल पड़ी है ….आभूषण इस केलि में बाधक बन रहे हैं …जो उतार दिए हैं ..अब तो कंचुकी भी बाधक है …वो भी उतार दिए हैं …..गौरवर्णी प्रिया जी का गौर अंग चमक उठा है …मानों अत्यन्त शीतल सूर्य का प्रकाश निकुँज में फैल गया हो ….तब एक सखी अतर बनकर प्रिया जी के श्रीअंग से लग जाती है …वैसे ही प्रिया जी के अंगों से सुगन्ध फैल रही थी उसमें सखी अतर बनकर और लग गयी …लाल जी मदहोश हो गए ….तभी एक सखी केसर बनकर प्रिया जी के वक्ष से लिपट जाती है ….उन वक्ष की शोभा और बढ़ गयी है । कस्तूरी बनकर एक सखी नाभि के आस पास लग गयी है ….एक सखी आनंदित होती हुई सबके देखते ही देखते चन्दन बन गयी …चन्दन का लेप बनकर प्रिया जी के सम्पूर्ण अंगों से लिपट गयी ….अब क्या था लाल जी कहाँ कहाँ बचते …..सखियाँ तैयार हैं लाल जी को पराजित करने के लिए ….तभी एक सखी “गर्व” बनकर प्रिया जी के मन में चली गयी ….लाल जी की ऐसी दशा देख प्रिया जी को गर्व हुआ ….वो गर्वित हो लाल जी को अपने गोरे बाहों में भर लेती हैं ….किन्तु उसी समय युगलवर के ही नेत्र बन्द हो गए …दोनों इस रति रस केलि के परम सुख में खो गये …समस्त सखियाँ अब प्रिया लाल जी में ही समा गयीं थीं …अब सब कुछ “एक”हो गया था । अब सिर्फ “रस” की ही सत्ता रह गयी थी ।


हरिप्रिया जी को ये क्या हुआ ….वो एकाएक जय जयकार करने लगीं थीं ….वो बारम्बार अपने हाथों को उठाकर कह रहीं थीं ….जय हो , जय हो अलबेलि सरकार की …जय हो नित्य रस रास रसिकवर महाराजाधिराज श्रीश्यामाश्याम की …आप ऐसे ही अविचल नित्य निकुँज में राज करो , हम सब सखीमण्डली आपकी सेवा में तत्पर रहें । आपकी जय हो , जय हो , जय जय हो ।

आनंदित होकर हरिप्रिया जी यही बोल रहीं थीं ….मैंने हरिप्रिया जी के चरणों की धूल अपने माथे से लगाई ।

हे रसिकों ! ये सुख “सखीत्व” में ही है …..और कहीं नहीं ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (144)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास में श्रीकृष्ण की शोभा

उपगीयमान….वनम

उपगीयमान उद्गायन् वनिताशतयूथपः ।
मालां विभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन् वनम ।।

शरद, ऋतु, पूर्णिमा तिथि और पूर्ण चंद्रमा का उदय। राकेश- राका-पूर्णिमातिथि पूर्णमासिं ईष्टे इति राकेशः, अथवा ईशावास्यमिदम् राकां ईष्टे इति राकेश। चंद्रमा आकाश में पूर्णिमा का होने से उसके भीतर जो कलंक है वह एकदम स्पष्ट दिखता है। सौन्दर्य के साथ कलंक का अयुत सिद्ध संबंध है। जब तक कलंक न लगे तब तक सुन्दरता क्या? सह तेन यूना मिथ्यापवादवचसादभिमानसिद्धिः नन्द-नन्दन गोपीजनवल्लभ मुरली मनोहर, पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर के साथ अगर झूठ-मूठ भी कलंक लग जाय, मिथ्या कलंक भी लग जाय, तो भाई, लोगों की दृष्टि में यह तो होगा कि उसके कुछ हैं; न हों अपनी नजर में तो क्या, लोग तो समझेंगे कि यह भी उनकी कोई है। व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः- एणांक माने कलंकी चंद्रमा। जैसे कलंकी चंद्रमा ताराओं से घिरकर आकाश में सुशोभित होता है और ताराएँ भी कोई पंक्तिबद्ध नहीं हैं- कोई कहीं, कोई कहीं, कोई कहीं- वैसे इन श्रीकृष्ण की शोभा देखो, धरती पर आज वृन्दावन-चंद्र का उदय हुआ है; ये श्यामसुन्दर, साँवरे-सलोने, यह यमुनाजी का मन्द-मन्थर प्रवाह, यह बालुकामय पुलिन, ये लता, ये वृक्ष, ये हरिण, ये मोर, ये चकोर, क्या शोभा है!

गोपियों से जुड़कर इसकी शोभा कितनी बढ़ गयी है! यों तो चंद्रमा स्वयं प्रकाशमान है और इसमें पूर्णिमा का चंद्र तो और भी प्रकाशमान है, परंतु कलंक की अभिव्यक्ति से और ताराओं से घिरे होने पर उसकी जो शोभा प्रकट होती है, वैसी ही शोभा आज गोपियों से घिरे हुए इस वृन्दावन चंद्रकी हो रही है। ईश्वर की जैसी शोभा निर्गुण निराकार रूप में, प्रत्यक्चैतन्याभिन्न होकर के, अंतर्यामी हो करके, प्राज्ञ सर्वेश्वर सर्वज्ञ के रूप में जैसी शोभा रोज होती है उसकी अपेक्षा आज उसकी शोभा विलक्षण हुई। व्यरोचत- अर्थात् ईश्वर की शोभा बढ़ गयी। गोपी न हो तो ईश्वर की शोभा क्या? ये उपासना के जो शास्त्र हैं न, उनको दुनियादार लोग नहीं जानते हैं, और महात्मा लोग उनसे छिपाकर रखते हैं।+

शास्त्र में वर्णन है कि चाहे कोई क्रीं-विद्या-सिद्ध हो, और चाहे हीं-विद्यासिद्धि हो-चाहे कोई महाकाली, महालक्ष्मी-महासरस्वती सिद्ध हो, सिद्धि का फल होता है कि सिद्ध पुरुष के आसपास स्त्री और पुरुष मँडराते रहते हैं, हमने उपासनाशास्त्र का स्वाध्याय किया है, उसमें देवता की सिद्धि, और मंत्र की सिद्धि का लक्षण दिया है-

कुरंगाक्षीं वृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलम् ।
वसस्त क्षोणी प्रतिरितिधरित्रीपरिवृतः ।।
ऋतुकारागारं कलपति परं केलिकलया ।
चिरं दूरं नित्यं स भवति भक्तः प्रतिजनिः ।।

तो श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् जिनका नामस्मरण करके क्लीं-क्लीं-क्लींका जप करके, कोई सिद्ध पुरुष होता है।

*यत्पादपंकजपरागनिसेवतृप्ताः योगप्रभावविधिनाऽखिलकर्मबन्धाः । *
स्वैरं चरन्ति हृदयोऽपिनिलगामानातस्यक्षयाय वपुषा सुत एष बन्धः ।।

वही श्रीकृष्ण जिनके मात्र स्मरण से सिद्धि प्राप्त होती है वह श्रीकृष्ण स्वयं गोपियों के बीच में, वृत्तियों के बीच में चैतन्य के समान, अथवा इडा-पिंगला-सुषुम्ना के योग में योग के समान, श्रुतियों में परमतात्विक ब्रह्म के समान, आज विशेष शोभा को प्राप्त हो रहे हैं। असल में श्रीकृष्ण में ब्रह्म का साधारणीकरण हो गया। जिस ब्रह्म को वेदान्ती, अवाङ्मनसगोचर है वही सर्वेन्द्रियगोचर है। इस बात के अनुभव में केवल अज्ञान ही प्रतिबन्धक है, इसके सिवाय और कुछ भी प्रतिबन्धक नहीं है। जब तक नहीं पहचानते तब तक-तद्दूरे और पहचान लें तो- तद्वन्ति के तदेजति अरे, वही नाच रहा है। गोपियों के साथ, तन्नैजति- कभी चुप खड़ा हो जाता है, कभी चिबुक हिलता है, कभी आँख खुलती है- तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्ति के- कभी नाचता-नाचता दूर चला जाता है, कभी नाचता-नाचता पास आ जाता है, कभी तदन्तरस्य सर्वस्य, गोपीजनस्य कभी सब गोपीजनों के बीच में है; तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः- कभी सबसे जाकर अलग खड़ा हो जाता है। त्रिभंगललितभाव से वह दृष्ट हो रहा है और उसके मुखारविन्द से उदार हास प्रकट हो रहा है। उदारहासद्विजकुन्ददीधितिः- उदारहास माने उन्मुक्त हँसी। किसी-किसी को हँसी आती है तो वह रूमाल से मुँह ढक लेता है। अरे, नाचन लगे तब लाज कहाँरी। जब हँसने लगे तब लाज काहे की?++

उदारहास का अर्थ है उन्मुक्त हँसी- खुलकर हँसना, जिसमें गाल भी लाल हो जाय, नाक भी चढ़ जाय, और दाँत भी दिखने लगें। हँसी कई प्रकार की है- स्मित, हसित, प्रहसित, विहसित, अतिहसित, अट्टहास। जब श्रीकृष्ण हँसते हैं, तब उनके मुख से जो हसित-छटा निकलती है, वह ऐसी जैसे- श्वेत-श्वेत चाँदनी फैल गयी हो। मुख चंद्रमा है और जो हँसी निकलती है वह चाँदनी है।

यह उदार है। हास को उदारहास क्यों कहा? तो देखो, हास जो है वह हँसने वाली को एक चेष्टा ही है; जैसे शक्ति शक्तिमान के अधीन रहती है वैसे हँसी हँसने वाले के अधीन रहनी चाहिए। लेकिन यह हँसी ऐसी है कि जैसे- श्रीकृष्ण एकबार हँस दें और उसको सौ आदमियों ने देखा, तो हुआ क्या कि सबके हृदय में श्रीकृष्ण आकर बैठ गये। यह हँसी की उदारता देखो। हँसी की उदारता क्या हुआ कि वह हास हँसने वाले का दान करता है। जैसे- कमल खिलता है वैसे- मुखारविन्द खिल गया और मुख पर एक उल्लास आया। और उसने बिना अधिकारी-अनधिकारी का विचार किये। ठाकुरजी को दान कर दिया, उधर एक गोपी को दे आया, इधर एक ग्वाले को दे आया, उधर एक चिड़िया को दे आया, इधर एक गाय को दे आया, एक बछड़े को दे आया, देवी को दे आया, देवता को दे आया! यह हँसी क्या है- भगवान् के लोगों को अपने मालिक का वितरण करती है। इसलिए हास को उदार बताया! उदार वह जो अपनी शक्ति से अधिक, शक्ति से बढ़कर के, सबका सब उठाकर के दान कर दे।

जिसके अंदर देने में यह आ गया कि हम दे देंगे तो खायेंगे क्या- वह उदार नहीं, दरिद्र है। वैसे शुक्र-नीति में यह लिखा है कि अपने धन का पांच विभाग करके तब दान करना चाहिए। वे पाँच भाग हैं- धर्म के लिए एक हिस्सा, यश के लिए दूसरा हिस्सा, धन बढ़े इसके लिए तीसरा हिस्सा, स्वजनों के पालन-पोषण के लिए चौथा हिस्सा, और अपने लिए पाँचवाँ हिस्सा। परंतु यह शुक्राचार्य की नीति है भला, यह बृहस्पति की नीति नहीं है। यह वैश्य-गुरु की नीति है, देवगुरु की नीति नहीं है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 2
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अधियज्ञः कथं कोSत्र देहेSस्मिन्मधुसूदन |
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोSसि नियतात्मभिः || २ ||

अधियज्ञः – यज्ञ का स्वामी; कथम् – किस तरह; कः – कौन; अत्र – यहाँ; देहे – शरीर में; अस्मिन् – इस; मधुसूदन – हे मधुसूदन; प्रयाण-काले – मृत्यु के समय; च – तथा; कथम् – कैसे; ज्ञेयः असि – जाने जा सकते हो; नियत-आत्मभिः – आत्मसंयमी के द्वारा |

भावार्थ
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हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वाम कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?

तात्पर्य
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अधियज्ञ का तात्पर्य इन्द्र या विष्णु हो सकता है | विष्णु समस्त देवताओं में, जिनमें ब्रह्मा तथा शिव सम्मिलित हैं, प्रधान देवता हैं और इन्द्र प्रशासक देवताओं में प्रधान हैं | इन्द्र तथा विष्णु दोनों की पूजा यज्ञ द्वारा की जाती है | किन्तु अर्जुन प्रश्न करता है कि वस्तुतः यज्ञ का स्वामी कौन है और भगवान् किस तरह जीव के शरीर के भीतर निवास करते हैं?

अर्जुन ने भगवान् को मधुसूदन कहकर सम्बोधित किया क्योंकि कृष्ण ने एक बार मधु नामक असुर का वध किया था | वस्तुतः ये सारे प्रश्न, जो शंका के रूप में हैं, अर्जुन के मन में नहीं उठने चाहिए थे, क्योंकि अर्जुन एक कृष्णभावनाभावित भक्त था | अतः ये सारी शंकाएँ असुरों के सदृश हैं | चूँकि कृष्ण असुरों के मारने में सिद्धहस्त थे, अतः अर्जुन उन्हें मधुसूदन कहकर सम्बोधित करता है, जिससे कृष्ण उस के मन में उठने वाली समस्त आसुरी शंकाओं को नष्ट कर दें |

इस श्लोक का प्रयाणकाले शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अपने जीवन में हम जो भी करते हैं, उसकी परीक्षा मृत्यु के समय होनी है | अर्जुन उन लोगों के विषय में जो निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं यह जानने के लिए अत्यन्त इच्छुक है कि अन्त समय उनकी दशा क्या होगी? मृत्यु के समय शरीर के सारे कार्य रुक जाते हैं और मन सही दशा में नहीं रहता | इस प्रकार शारीरिक स्थिति बिगड़ जाने से हो सकता है कि मनुष्य परमेश्र्वर का स्मरण न कर सके | परं भक्त महाराज कुलशेखर प्रार्थना करते हैं, “हे भगवान्! इस समय मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ | अच्छा हो कि मेरी मृत्यु इसी समय हो जाय जिससे मेरा मन रूपी हंस आपके चरणकमलोंरूपी नाल के भीतर प्रविष्ट हो सके |” यह रूपक इसलिए प्रयुक्त किया गया है क्योंकि हंस, जो एक जल पक्षी है, वह कमल के पुष्पों को कुतरने में आनन्द का अनुभव करता है, इस तरज वह कमलपुष्प के भीतर प्रवेश करना चाहता है | महाराज कुलशेखर भगवान् से कहते हैं, “इस समय मेरा मन स्वस्थ है और मैं भी पूरी तरह स्वस्थ हूँ | यदि मैं आपके चरणकमलों का चिन्तन करते हुए तुरन्त मर जाउँ तो मुझे विश्र्वास है कि आपके प्रति मेरी भक्ति पूर्ण हो जायेगी, किन्तु यदि मुझे अपनी सहज मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी तो मैं नहीं जानता कि क्या होगा क्योंकि उस समय मेरा शरीर कार्य करना बन्द कर देगा, मेरा गला रूँध जायेगा और मुझे पता नहीं कि मैं आपके नाम का जप कर पाउँगा या नहीं | अच्छा यही होगा कि मुझे तुरन्त मर जाने दें |” अर्जुन प्रश्न करता है कि ऐसे समय मनुष्य किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को स्थिर कर सकता है?

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