Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 5️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#शुकसारिकाजानकील्याये।_
#कनकपिंजरहिंराखीपठाये ।।…_
📙( #श्रीरामचरितमानस )📙
#मैवैदेही ! ……………._
(#गौरांगीकास्वप्न )
मत बोल तू सीते सीते ! राम बोल ……”श्रीराम” बोल शुक !
कितना समझा रही हैं आज वैदेही …….पर ये शुक है कि मान ही नही रहा …………..देख ! शुक ! मै प्रसन्न होती हूँ जब कोई मेरे प्राणधन का नाम लेता है ………पर तू मेरा नाम ही क्यों बोले जा रहा है …..
पर ये तोता है कि मान ही नही रहा ………….
चुप ! चुप ! ये महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ……कोई जनकपुर नही ।
जो तू “सीता सीता” कह रहा है …….मत कह ……मत कह ।
ये शुक भी विचित्र है ………..बचपन से ही पालित है श्रीकिशोरी जू की गोद में ये ………….कोई साधारण तोता तो है नही ।
आगया है जनकपुर से यहाँ …………..कैसे आया !
अरे ! अपनें प्रेम का स्थान ये सब समझते हैं ……….फिर ये तो साक्षात् शुकदेव ही हैं ………आगया उड़ते हुए महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में …….अपनी आराध्या के पास ……….हाँ इनकी आराध्या सीता जी ही तो हैं ………..।
हरि जी ! कितनी देर से ट्राई कर रही हूँ ……पर आपका फोन लग ही नही रहा ………वाह ! गौरांगी का फोन आया था मेरे पास …..जब मै कल ट्रेन में था ।
गौरांगी ! मै ट्रेन में हूँ ……….यहाँ नेटवर्क अच्छे से नही आरहा ।
आप आरहे हैं श्रीधाम वृन्दावन हरि जी !
गौरांगी की ख़ुशी उसकी खनकती आवाज से ही लग रही थी ।
हरि जी ! बात ये है कि ……….मै नौ दिन के अनुष्ठान में थी …….
अपनी प्राण प्रिया श्री जी की आराधना में ……………आज नवमी के दिन मेरा अनुष्ठान पूरा हुआ ।………..( फोन फिर कट गया )
इस बार मैनें ही उसे लगाया फोन ……..हाँ बताओ गौरांगी ! क्या हुआ ?
हरि जी ! आज ही मैने आपके “आज के विचार” पढ़े ……..सारे नौ दिन तक के विचार आज ही पढ़ डाले ।
पर “वैदेही की आत्मकथा” 4 भाग तक जो आपनें लिखी है ……..
उफ़ ! ………….कितना कष्ट सहा ना ! मेरी श्री सिया जू नें !
मै रो गयी पढ़ते हुये…………मेरे आँसू नही रुक रहे थे ।
मन में आया मै आपसे कहूँ इतना दुखद वर्णन मत करो …….पर विरह ही तो प्रेम के प्राण है……….ये सोचकर मै चुप हो गयी ।
थक गयी थी …..शरीर में थकान सी होनें लगी थी ……शायद सिया जू के बारे में सोच कर ।
मुझे नींद आगयी ………मै सो गई ।
वैसे दिवा स्वप्न का कोई महत्व नही होता ऐसा कहते हैं …….पर जिस स्वप्न में किशोरी जी के दर्शन हों ………वह स्वप्न तो दिव्य है ही …….शायद जाग्रत से भी ज्यादा धन्यता है उस स्वप्न में …..क्यों की अपनी स्वामिनी जू के दर्शन जो हो रहे थे ।
गौरांगी बोले जा रही थी ।
मैने ही उसे कहा ……..अब बताओ भी …….क्या देखा तुमनें गौरांगी ।
उसकी खनकती आवाज मेरे कानों में जा रही थी …..उसनें बताना शुरू किया …………….जो उसनें सपना देखा था ।
गंगा जी बह रही हैं ……….महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ……….
और सिया जू बैठी हैं …..अकेली ! मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।
तभी मैने देखा …………एक तोता बहुत सुन्दर तोता उड़ता हुआ सिया जू के पास आया …………..सीता जी तो लिख रही थीं ………ताल पत्र में ……..अपनी आत्मकथा ।
आत्मकथा क्यों लिखेंगी सीता जी ! …..पर इस आत्मकथा के बहानें से वो अपनें प्राण धन श्री रघुनाथ जी का ही तो चिन्तन कर रही थीं ।
तभी मैने देखा हरि जी ! एक तोता उड़ता हुआ आया ……..और सिया जू के चरणों में गिर गया ………………।
कौन ? चौंक कर उन्होंने अपने चरणों की ओर देखा………..
शुक ! तू !
और वो शुक अकेले नही आया था ……उसके साथ सारिका ( मैना )
भी आई थी …….पर वो दूर बैठी रही ………..अपनी सर्वेश्वरी की यह स्थिति देखकर वो भी अपनें आँसू बहा रही थी ।
पर तू यहाँ क्यों आया ? जा ना मिथिला ! क्यों आया है तू यहाँ ।
क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 81 )
गतांक से आगे –
भर बरसैं सरसैं सब मही। भादों कृष्ण रोहनी कही ॥
बढ़ि-बढ़ि बीच विवसता पावें । सोई अर्ध-निसा जु कहावें ॥
ताहू में जो अति रति भासै । सो सुकला अरुनोदय आसै ॥
सब रस दै राखत पिय-मान। तासों कहियतु है रस-दान ॥
कुसुमनि करि करि क्रीडत साँझ । सौ समुझौ साँझी मन माँझ ॥
कंद्रप कोटि बिजै बिबि करहीं। दसमी बिजै ताहि उच्चरहीं ।॥
सुभग भूमि मंडल पर बास। ताहि जु कहिये रति-रस रास ॥
प्रथम समागम रंग रमावैं । सो बिहार बिधि व्याह कहावैं ॥
अमित कला बिहरै पिय-प्यारी । तासों कहिये निसा-दिवारी ॥
क्रीड़ा करत सकुच जो होई । कही केलि की कुंदी सोई ॥
सुभरव भैरव राग उचार। दिविगंधा है देव गंधार ॥
*हे रसिकों ! मेरा तो कहना ये है कि श्रीमहावाणी जिसे जानना हो …या इस रस-उपासना पद्धति को अपनाना हो …उन्हें “सेवा सुख” ( श्रीमहावाणी का प्रथम सुख ) ही मात्र नही उन्हें ये अन्तिम सुख “सिद्धान्त सुख” का भी नित्य पाठ करना चाहिए ..उसमें भी ये अन्तिम पद….
“महावाणी रस रत्न को , भर्यो गहर दृढ़ गेह । ताके ताले खुलन की , कहूँ तालिका ऐह ।।”
इस पद का गम्भीरता से अवलोकन करना चाहिए । या किसी रसिक से समझना चाहिए । क्यों की रस सिद्धान्त को इसमें बड़ी सुन्दरता से स्पष्ट किया गया है । मैं स्वयं अभिभूत हूँ ।
मेरा तो ये भी मानना है कि “सिद्धान्त सुख” को जाने बिना श्रीमहावाणी एक शृंगार रस का महाकाव्य मात्र बनकर रह जाएगी ….साधकों के लिए इसकी कोई विशेष उपयोगिता नही होगी ….इसको ऐसे समझिये …जैसे श्रीभागवत में एकादश स्कन्ध को जाने बिना भागवत धर्म को आप समझ नही सकते …..श्रीरामचरित मानस में उत्तर काण्ड को पढ़े बिना आप मानस के सिद्धान्त को समझ नही सकते ऐसे ही इस रस महाकाव्य को जीवन की साधना बनानी है तो आपको “सिद्धान्त सुख”…को पढ़ना परमावश्यक है …तभी रस मंजूषा खुलेगी …और आप इस रसतत्व को आप समझ सकेंगे ।
घनघोर रस की वर्षा हुई तो अवनी भींज गयी ….अब अवनी तो मैंने पूर्व में बता ही दिया है कि श्रीप्रिया जी का मंगल विग्रह ही अवनी है ….हरिप्रिया जी कहती हैं …रति सुख में जब निकुँज की पूरी पृथ्वी भींज जाती है …यानि श्रीप्रिया जी का मंगलविग्रह भींज जाता है …..तो उसे ही कहते हैं …”भदौ शुक्ला रोहिणी”। इस काल में युगल सरकार पूरे ही रस में भीज जाते हैं …और भींजे ही रहते हैं । इस काल में प्रिया जी भी पूरी तरह से अपने लाल जी को रस दान करती हैं ….और इस समय लाल जी की उन्मत्तता देखते ही बनती है । हरिप्रिया जी ये कहते हुए परमानन्द में निमग्न हैं । लाल जी प्रिया जी के सुन्दर अंगों रूपी कुसुम का अपने नयनों से चयन करके मत्त हो जाते ..इसे ही “सांझी” कहा गया है । ( साँझी एक उत्सव है , जो पितर पक्ष में फूलों की रंगोली के रूप में मनाया जाता है ) हरिप्रिया जी रसमय होकर आगे कहती हैं …..सुरत संग्राम चलता है युगल सरकार और कामदेव में ….बेचारा कामदेव ….हार ही जाता है …तब युगल सरकार विजयी होते हैं उसे ही “विजया दशमी”कहते हैं । रहस्यमय सुन्दर मण्डल पर युगल सरकार जब विराजते हैं …उसे ही रासमण्डल कहा जाता है …जहाँ रास नृत्य का रस चारों ओर बिखर जाता है ।
हरिप्रिया जी के हाथों में मेहंदी लग गयी है ….पाँवों में महावर …..वो एकाएक फूली फूली लग रही हैं …मैंने उनसे पूछा क्या हुआ ? तो बोलीं …युगल सरकार का ब्याहुला । हरिप्रिया जी मेरे कुछ कहने से पहले ही बोलीं ….श्रीराधा कृष्ण ब्याह एक रस रहस्य है इसे सब कहाँ जानें ।
ये अनादि दम्पति हैं …इनका क्या विवाह ? किन्तु जब ये मिलते हैं और इन्हें प्रथम मिलन जैसा अपार सुख मिलता है उसे ही ब्याहुला कहते हैं । इसके बाद अनन्त कला से सम्पन्न होकर …जब ये दोनों सुकुमार रात्रि में उन्मत्त विहार करते हैं …उसे ही कहा गया है ….दिवाली । इनके अंगों की आभा से पूरा निकुँज जगमग कर उठता है …वही तो दिवाली है ।
“आजु दिवाली की निशि नीकी”……
हरिप्रिया जी अपने मधुर कण्ठ से गान करती हैं ।
निकुँज जगमगा उठा था उस समय …….
शेष अब कल –
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 12
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूध्न्र्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् || १२ ||
सर्व-द्वाराणि – शरीर के समस्त द्वारों को; संयम्य – वश में करके; मनः – मन को; हृदि – हृदय में; निरुध्य – बन्द कर; च – भी; आधाय – स्थिर करके; आत्मनः – अपने; प्राणम् – प्राणावायु को; आस्थितः – स्थित; योग-धारणाम् – योग की स्थिति |
भावार्थ
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समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है | इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है |
तात्पर्य
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इस श्लोक में बताई गई विधि से योगाभ्यास के लिए सबसे पहले इन्द्रियभोग के सारे द्वार बन्द करने होते हैं | यह प्रत्याहार अथवा इन्द्रियविषयों से इन्द्रियों को हटाना कहलाता है | इसमें ज्ञानेन्द्रियों – नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श को पूर्णतया वश में करके उन्हें इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने नहीं दिया जाता | इस प्रकार मन हृदय में स्थित परमात्मा पर केन्द्रित होता है और प्राणवायु को सर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है | इसका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है | किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है अब यह विधि व्यावहारिक नहीं है | सबसे उत्तम विधि तो कृष्णभावनामृत है | यदि कोई भक्ति में अपने मन को कृष्ण में स्थिर करने में समर्थ होता है, तो उसके लिए अविचलित दिव्य समाधि में बने रहना सुगम हो जाता है |
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] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (154)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-1
भगवान की आज्ञा अप्रतिहत होती है, माने उसको कोई टाल नहीं सकता। ऐसा सामर्थ्य सृष्टि में किसी का नहीं। पर उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोपियों से कहा कि लौट जाओ तो देखो क्या आश्चर्य कि गोपियों ने आज्ञा टाल दी, बोलीं- हम नहीं जायेंगी। गोपी के हृदय में यह दृढ़ता कहाँ से आयी कि हम नहीं लौटेंगी? यह दृढ़ता भी उनमें कृष्ण ने भर दी है कि हमारी बात मत मानो। आप देखो, शास्त्र में ऐसा लिखा है कि गुरु की आज्ञा माननी चाहिए, पर बोले कि अगर गुरु कहे कि तुम हमारे दर्शन के लिए मत आया करो तो? बोले कि गुरु की आज्ञा नहीं माननी चाहिए। चेला एक गिलास पानी लेकर गया, क्योंकि गुरु को प्यास लगी थी।
गुरुजी बोले- देखो भाई, तुम पानी मत लाया करो और कोई ले आयेगा। तब यह मत कहो कि गुरु की आज्ञा है कि तुम पानी मत लाओ तो अब कैसे न मानें। देखो, सेवा में आज्ञा-पालन नहीं होता, दर्शन में आज्ञा-पालन नहीं होता। गुरु ने कहा- अरे देखो, तुम कभी हमको मत खिलाओ! अब प्रेमी कैसे मानेगा? शिष्य कैसे मानेगा? तो भगवान ने आज्ञा की तुम लौट जाओ, पर गोपियों ने कहा कि कृष्ण! तुम्हारा यह वचन संपूर्ण श्रुति, स्मृति, शास्त्र अनुभव के विरुद्ध है। भगवान के पास आकर कैसे लौटेंगे? हम नहीं मानेंगे तुम्हारी बात। हम वेद की बात मानेंगी, तुम्हारी बात को नहीं मानती हैं। ‘त्वत्पादमूलं भक्ताः’- कैसे लौट जायें? आज तक कोई मुमुक्षु, कोई जिज्ञासु तुम्हारे पास आकर वापस लौटकर गया है? नहीं मानतीं तुम्हारी बात।+
अच्छा, अब दूसरी बात है। खुद ही तो उन्होंने मना किया कि लौट जाओ और फिर जब गोपियों के साथ अपनी नहीं चल पाती, तो कहने लगे- आओ! आओ गोपियों! रास-विलास करो- अपनी बात पलट दी। एक बात स्वातंत्र्य की ऐसी विलक्षण है इस अध्याय की, जिसकी कथा सुन रहे हैं उसी को सुनाता हूँ। क्या विलक्षण है इसमें एक बात? हे भगवान! सचमुच गोपियों के अन्दर मान था, मान लेकर आयी थीं। भगवान ने उनका बड़ा सम्मान किया- एवं भगवतः कृष्णाल्लब्धमाना महात्मनः। तीन शब्द हैं इसमें एक तो कृष्ण चुम्बक हैं। कृष्ण माने चुम्बक होता है। चुम्बक माने वही जो लोहे की खींचने वाला होता है। जो चूम ले व चुम्बक। जो लोहे का चुम्बन करे उसका नाम चुम्बक, तो कृष्ण माने कर्षित, जो अपनी ओर खींचे। जैसे चुम्बक लोहे को खींचता है वैसे कृष्ण अपनी ओर खींचते हैं। सोते में खींचते हैं, सपने में खींचते हैं, जागते में खींचते हैं, दूसरी बात- ‘भगवतः’- भगवान हैं। तीसरी बात क्या बतायी कि महात्मा हैं, भगवान हैं। महात्मा हैं, कृष्ण हैं।++
भगवान हैं माने ऐश्वर्यशाली हैं, और कृष्ण हैं माने प्यारा है, और महात्मा? महात्मा, यह बड़ी विलक्षण बात है। ऐश्वर्यशाली हैं माने कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्समर्थ हैं। ‘अन्यथा कर्तुं समर्थ’ का क्या अर्थ हुआ? आपको रासपञ्चाध्यायी का सार सुनाता हूँ कि गोपियाँ जब श्रीकृष्ण के पास आयीं थीं- अह यह देखो श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज के सम्प्रदाय के अनुसार व्याख्या है- तो उनके अन्दर अभिमान की मात्रा थी; तो जो लेकर आयी थीं वही उनको दिया। मान दिया- यह भगवान का स्वातन्त्र्य है। मान दिया, तो मान में मान डाल दिया। क्योंकि जो आदमी लाता है वही उसको मिलता है; प्रेम लाओ तो प्रेम मिलेगा। मान लाओ तो मान मिलेगा।
भगवान ने कहा- इनके अन्द जो मान है वह अभी छिपा है, आगे जब हम इनके साथ रास-विलास करेंगे तो जाहिर हो जायेगा और जब जाहिर हो जायेगा तो उस समय ये सब आपस में लड़ेंगी क्योंकि अभिमान अभिमान से लड़ता है, मान मान से लड़ता है। तो जिस समय रस का समय होगा उस समय ये आपस में मान करके लड़कर के रस को किरकिरा कर देंगी। अतः क्या करना कि पहले ही उसको दूर करना। यह श्रीकृष्ण का प्रेम है, हाँ। देखो- हमारा प्यारा सामने आये और उसके मुँह पर कही कोई काला दाग लगा हो तो आप पोंछ दोगे कि नहीं? है न। हमारे चश्मे में जब चन्दन लगा होता है, फूल लगा होता है तो लोग उसको दूर कर देते हैं कि नहीं? तो कृष्ण ने कहा- इतना प्रेम लेकर ये गोपी आयीं, हमने इनको बुलाया। आज तक कभी किसी मानवाले को तो मैं प्राप्त हुआ नही हूँ, लेकिन यदि मैं कह दूँ कि गोपियो, तुम्हारे अन्दर बहुत मान है तो?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877