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July 6, 2025 8:13 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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श्री सीताराम शरणम् मम 149 भाग1″ “,(साधकों के लिए) भाग- 46 तथा अध्यात्म पथप्रदर्शक: Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣9️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

स्वयं माताओं नें खड़े होकर स्नान कराया …………मेरे श्रीराम की जटायें सुलझाईं …………साथ साथ आग्रह करके भरत और लक्ष्मण के भी ……….मुझे तो मेरी बहनों नें उबटन लगाकर इतनें प्रेम से नहलाया मैं गदगद् हो उठी थी ………….फिर वही छोटी श्रुतकीर्ति जिद्द करनें लगी थी ……जीजी ! को मैं सजाऊँगी ।

अच्छा कीर्ति ! तेरी ही जीजी हैं ये ……..हमारी तो कुछ हैं ही नहीं !

उर्मिला माण्डवी नें कीर्ति को कहा तो ……पर कीर्ति सुननें वाली थी ?

अपनें महल में ले गयी और सुन्दर भव्य आईने के सामनें मुझे बिठा दिया था …..ये श्रुतकीर्ति का श्रृंगार कक्ष था ।

आप लोग तपश्विनी हो सब ………बस मैं और मेरे आर्यपुत्र हम दोनों ही तो राज सुख भोगते रहे हैं …..श्रुतकीर्ति नें भोलेपन से कहा ।

ज्यादा बातें मत बना…..नही तो थप्पड़ खायेगी……उर्मिला स्नेह से बोल रही थी ।……ऐसे मत बोल उर्मि ! हम सबकी लाड़ली है ये कीर्ति ।

मैने भी सहजता में कहा ।

जीजी ! ये कीर्ति पता है कितनी दुष्ट है …………….उर्मिला आगे आकर बोली ।………जीजी ! इनकी बातें तो बिलकुल मत सुनना ।

और सबसे बड़ी तपस्या तो उर्मिला जीजी नें की है……….श्रुतकीर्ति नें अपनी बात रखी ।

पर सच्ची तपस्विनी तो तुम हो छोटी ! माण्डवी नें आगे बढ़कर कीर्ति के सिर में हाथ रखते हुये कहा था ।

मैं तो खाती रहती थी …………हाँ जीजी ! मैं तो खूब खाती और हँसती रहती थी ……श्रुतकीर्ति नें कहा ।

हम जानती है तू बहुत बड़ी नाटक वाज है ……….सबको दिखानें के लिये हँसती थी …………और जब रात हो जाती तब !

माण्डवी रो पडीं ……………ये अपनें कक्ष में जाकर कपाट लगाकर हिलकियों से रोती थी………..माण्डवी नें कहा ।

उर्मिला नें कहा ………जीजी ! इसको कहो ये अपना कक्ष तो दिखाए ………दिखाउंगी ! पर अभी क्यों ? श्रुतकीर्ति नें कहा ।

चलो ! मैं कीर्ति के कक्ष में ही बैठूंगी …………..मैं उठी …….मैं देखना चाहती थी ……..कीर्ति का कक्ष …………श्रुतकीर्ति का ।

पर ……अभी क्यों ? इतनी जल्दी ? जीजी ! तुम भी इन लोगों की बातों में आगयीं ?

वो छोटी बोलती रही…..पर हम सब उसके कक्ष की ओर बढ़ गयी थीं ।


ये क्या है ! जैसे ही श्रुतकीर्ति के कक्ष का दरवाजा खोला ……….उस महल को देखते ही मेरे नयन बह चले थे ………..साथ में उर्मिला और माण्डवी – ये भी रो गयीं ।

जीजी ! कुछ भी तो नही है ! कीर्ति बनावटी हँसी हँस रही थी …..।

ये दीवारों में लगे धब्बे ? मैं पास में गयी थी और दीवारों में जगह जगह लाल धब्बे थे मैं उन्हें गौर से देख रही थी और पूछ रही थी ।

तू बताएगी छोटी ! की हम बतायें !……………सिर झुकाकर रो पड़ी थी बेचारी श्रुतकीर्ति ।

मैं बताती हूँ ………..उर्मिला नें बताना शुरू किया ।

रात जब हो जाती थी तब इसके महल से रोनें की आवाज आती …….पर वो आवाज बहुत धीमी होती ।

एक दिन मैने माण्डवी जीजी से कहा …………….तब हम लोग महल के रन्ध्र से देखनें लगीं ………………

ये छोटी , हिलकियों से रो रही थी ……….. “जीजी हम सबको छोड़कर क्यों चलीं गयीं तुम ! चौदह वर्ष कैसे बीतेंगे ?

और इतना ही नही ……..ये रोते हुये दीवारों में अपना सिर मारती थी ……….हमनें देखा रक्त निकलता था इस के मस्तक से ….ये जो लाल लाल धब्बे देख रही हैं ना आप ……ये इस छोटी के मस्तक के रक्त हैं …..उर्मिला की बातें सुनते ही ……कीर्ति मेरे पास दौड़ी…….जीजी ! मेरे हृदय से लग गई और फूटफूट कर रोनें लगी थी ।

जीजी ! तुम्हारे बिना ये अयोध्या मसान लगता था ……….जीजी ! मुझे कभी कभी ऐसा लगता – कि मैं मर क्यों न जाऊँ !

पर मैं जब अपनें प्राणनाथ को देखती ……….तब मुझे मरनें की सोच छोड़नी पड़ती ………….

आर्य श्रीराघवेंद्र वन में ……उनके साथ भैया लक्ष्मण भी वन में ……और भरत भैया नन्दीग्राम में ………..रह गए मेरे प्राणनाथ !

वो भीतर ही भीतर घुटते थे……….वो अकेले में रोते थे मैने उन्हें कई बार देखा है……..वो किसी को अपनें आँसू दिखाते नही थे जीजी ! ।

क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ……..!!!!

🌹जय श्री राम ] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ३३*

               *🤝 ९. व्यवहार 🤝*

         _*निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्*_ 
   *[* अर्जुन! (मेरे कर्म में) तू निमित्तमात्र बन *]*

   इस प्रसंग को श्रीमद्भागवत में बहुत सुन्दर रीति से समझाया गया है, उसे देख लें तो दृढ़ता होती है। कंस राजा जब अपनी बहन देवकी को विदा करने जा रहा था और बहन पर अपना स्नेह प्रकट करने के लिये स्वयं ही रथ हाँक रहा था, तब आकाशवाणी सुनायी दी कि- *'कंस! जिस बहन को तू इतने आदर से विदा कर रहा है, इसी की संतान से तेरी मृत्यु है।'* यह सुनते ही कंस तलवार निकालकर देवकी को मारने के लिये तैयार हो गया। तब उसे रोकते हुए वसुदेवजी ने कहा-

   *मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते ।*

अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवम् ॥

   'कंसराज! आप शूरवीर हैं, शूर कभी मृत्यु से नहीं डरते; क्योंकि वे इस बात को जानते ही हैं कि देह की मृत्यु तो देह के साथ जन्मती है। अर्थात् देह का जन्म होता है, उसी समय उसकी आयु की सीमा निर्धारित हो जाती है और उसमें ब्रह्मा भी परिवर्तन नहीं कर सकते। फिर जो निश्चित वस्तु है, उसके लिये डरना क्या? मृत्यु चाहे सौ वर्ष बाद आये, चाहे आज ही आ जाय; परंतु जो जन्मा है, उसे एक दिन मरना तो पड़ेगा ही और वह भी निश्चित समयपर ही।' अस्तु!

    *यों चाहे जितनी सावधानी रखी जाय; परंतु आयु पूरी होने पर मरना ही पड़ता है।* हिरण्यकशिपु ने मृत्यु न हो, इसके लिये कितनी सावधानी रखी थी और कैसे-कैसे वरदान प्राप्त किये थे। दस सिरवाले रावण ने भी मनुष्य के सिवा अन्य किसी के हाथ से मेरी मृत्यु न हो, यह वरदान प्राप्त किया था; क्योंकि उसे निश्चय था कि कोई भी मनुष्य तो मुझे मार ही नहीं सकता। ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं। पर सभी को समय आनेपर मौत के मुँह में जाना ही पड़ा। कोई भी देहधारी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, वह सदा नहीं जी सकता; क्योंकि देह की मृत्यु का निर्माण तो उसके जन्म के साथ ही हो चुका होता है, अतएव आयु की मर्यादा पूरी होते ही प्राणी को शरीर छोड़ना ही पड़ता है।

   *उपसंहार में इतना ही कहना है कि प्रत्येक देहधारी के लिये मृत्यु की घटना अनिवार्य है, अतः उससे डरना व्यर्थ है। मृत्यु चाहे जिस निमित्त से आये, निमित्त को कभी दोष नहीं देना चाहिये; क्योंकि निमित्त को तो दैव उपस्थित करता है और मृत्यु होती है आयु की मर्यादा पूरी होनेपर।*

   भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमुख से गीता में गाया है—

 *जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।*
 *तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥*
                      (२/२७)

    तात्पर्य यह है कि जिस प्राणी का जन्म होता है, उसको मरना पड़ता ही है। इसी प्रकार जो मरता है, वह फिर जन्म लेता ही है। इसलिये समझदार मनुष्य को न तो अपनी मृत्यु से डरना चाहिये और न किसी भी देहधारी की मृत्यु होनेपर शोक ही करना चाहिये ।

    भक्तकवि नरसिंह मेहता ने गाया है-

 *ऋतु लता पत्र फल फूल देवै यथा मानवी मूर्ख मन व्यर्थ सोचे ।*
*देह के भाग्य में जिस समय जो लिखा उसे उस ही समय वही पहुँचे ॥*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-46

प्रिय ! पगले जीवन को तू देख …
(सन्त वाणी)

मित्रों ! नेपाल काठमाण्डौ से मेरा मित्र आया
है , बचपन का मित्र है …साथ में खेले कूदे
हैं पढ़े हैं । उसकी बहुत इच्छा थी कि
पागलबाबा से मिलना है , मैंने कहा – मेरे मित्र
हो तो मिलना ही चाहिए तुम्हें । चलो !
प्रातः 3 बजे कुञ्ज में जाकर हम लोग बैठ गये
…कहाँ हैं बाबा ? मैंने कहा …थोड़ी देर
क्या हम लोग ध्यान कर सकते हैं यहाँ बैठकर ?
…हाँ क्यों नही …मैंने कहा …बाबा
3:30 बजे कुञ्ज में भ्रमण करते हैं
…वृक्षों को छूते हैं …गले से लगाते
हैं …प्यार करते हैं । तब तक क्या हम लोग शान्त भाव से ध्यानस्थ हो जायें । हाँ क्यों नही ! हम लोग शान्त भाव से ध्यान में डूब गये ।

20 मिनट ही बीते होंगे ध्यान में…कि तभी
बाबा आगये …हम दोनों ने जाकर बाबा के
चरणों में प्रणाम किया ।
बाबा को अपने मित्र का परिचय दिया ….बाबा
प्रसन्न हुये ।
मैंने कहा …बाबा इसे कुछ पूछना है …बाबा
ने मुस्कुराकर पूछने की आज्ञा दी …मेरे
मित्र ने पूछा –

बाबा ! “हम क्या करें” ? …

बाबा मुस्कुराकर बोले – कब के लिए पूछ रहे हो ?
आज के लिए या कल के लिए ? या दूसरे जन्म के
लिए ? जब तुम आज क्या कर रहे हो यही
तुम्हें पता नही है तो कल के लिए दिए गये
ज्ञान को तुम अपने जीवन में उतारोगे क्या
गारन्टी है ? देखो ! इस समय तुम क्या कर रहे
हो ? इस बात के प्रति जागरूक होना ही साधना
है …तुम्हारे अन्तःकरण में क्या चल रहा
है इस बात के प्रति जागरूकता ही साधना कहलाती
है । अपनी दृष्टि को जितनी पैनी बना सको
उतनी बनाओ …पर उस पैनी दृष्टि से इस जगत को
नही देखना है …इस जगत के लोगों को नही
देखना है …इन लोगों का व्यवहार नही देखना है
…देखना है अपने अन्तःकरण को…जागरूक रहना है अपने अन्तःकरण के प्रति ।

बाबा बोले समझ में आरही है ना बात ?…हाँ
बाबा आरही है ।
बाबा बोले – अभी क्या कर रहे हो ? …क्या
संकल्प उठ रहे हैं तुम्हारे मन में
…क्यों उठ रहे हैं ? …कर्म करने की
प्रेरणा कहाँ से मिल रही है ? और कर्म क्यों
करना चाह रहे हो ? …जीवन में किसको महत्व
दे रहे हो ? …तुम्हारे जीवन में महत्वपूर्ण
कौन है ? क्या तुम्हें पता है अपने
अन्तःकरण के बारे में ? शरीर के प्रति
जागरूकता मात्र नही …मन के प्रति जागरूक
बनो …मन की वृत्तियों के प्रति जागरूकता लाओ ।

4 बज गये थे …चलोगे मेरे साथ यमुना स्नान
करने के लिए ? बाबा ने एकाएक मुझ से न पूछकर
मेरे मित्र से पूछ लिया ।

मेरे मित्र ने मेरी ओर देखते हुये कहा …मेरा
सौभाग्य होगा कि मैं आपके साथ यमुना स्नान को
जाऊँगा ।

हम लोग स्नान करने के लिए यमुना जी गये
…बाबा यमुना जी में जाकर बैठ गये थे
….दूर एकान्त में हम दोनों बाबा के
साथ में ही थे …थोड़ा थोड़ा दिन उग रहा
था ।

थोड़ी दूर से लड़ाई की आवाज आई ….आवाज़
तेज़ होती गयी ….अब वह आवाज़ स्पष्टतः हम तक भी पहुँच रही थी …

यमुना जी के किनारे कुछ महात्मा और नागाओं की टोली बैठकर गांजा पी रहे थे …तभी एक अछूत आगया यमुना स्नान करके .. गलती से उसका
पैर उन महात्माओं के कमण्डलु से लग गया
…गलती से ही लगा । बस जितनी गालियाँ
हिंदी साहित्य में थीं सारी गालियाँ अब बाहर
निकलने लगी थीं …उस अछूत के लिए । वो
बेचारा माफ़ी माँगे जा रहा था …पर वो नागा
लोग थे कि उस अछूत की बात सुनने के लिए तैयार
ही नही थे ।
एक नागा साधू को इतना क्रोध आया कि उसने उस
अछूत के ऊपर हाथ ही उठा दिया ….बस मामला
शान्त हो गया …फिर उड़ने लगा गांजे का
धुआँ ।

दूर से बाबा और हम लोग उस दृश्य को देख रहे
थे…अब हम लोगों की नजर थी उस अछूत
पर…वह बेचारा उठा और फिर यमुना में स्नान
करने लगा…और उसके मुख से “कृष्ण कृष्ण” यही
निकल रहा था । बाबा उठे , मैं और मेरा मित्र
बाबा के पीछे पीछे चल दिए ।

बाबा उस स्नान कर रहे अछूत के पास गये …और
जाकर बोले …तुम तो नहा चुके थे फिर दोबारा
क्यों नहा रहे हो ? …वह अछूत मुस्कुराया
…बाबा को प्रणाम किया .. और बोला
…मेरा तो तन ही अछूत है …और तन तो
मिट्टी है …पर ये लोग जो अपने आप को नागा
और महात्मा कहते हैं …इनका तो मन ही अछूत
है ….तन की क्या कीमत ? पर मन से ही
तो लोक परलोक सुधरता और बिगड़ता है …है ना
बाबा ? …बाबा मुस्कुराये । उस अछूत
ने कहा …इनके अन्तःकरण को क्रोध ने जकड़
लिया है …और क्रोध के कारण इनका अन्तःकरण
ही अछूत हो गया है ….बाबा ! मुझे ये
लोग कहते हैं कि मैं अछूत हूँ …अरे ! अछूत
तो ये लोग हैं …जिनके अन्तःकरण में क्रोध
रूपी शुद्र बैठा हुआ है …और उस शुद्र की
क्षुद्रता के कारण ये अछूत हैं …और
इन्होंने मुझे छुआ है इसलिए मैं भी अशुद्ध हो गया
…इसलिए मैं दोबारा नहा रहा हूँ …और साथ में
भगवन् नाम “कृष्ण कृष्ण” का उच्चारण करते
हुये अपने अन्तःकरण को शुद्ध बना रहा हूँ
…ताकि मेरी ऐसी स्थिति न हो ।

बाबा ने मेरी ओर देखा …फिर मेरे मित्र की ओर
देखा …फिर बोले …इसे कहते हैं
…साधक । जो अपने आप को निरन्तर साधना
की कसौटी में कसता रहता है – वो है साधक ।
अपने अन्तःकरण को जो गहराई से समझने का
प्रयास करता रहता है …वो है साधक । मन
की समस्त वृत्तियाँ क्या चाहती हैं …और
क्यों चाहती हैं …इस के प्रति जो जागरूक है
…उसे कहते हैं साधक …।

हमें भी साधक बनना चाहिए …है ना ?

बाबा इतना बोलकर यमुना में स्नान को उतर गये ।

बाबा नहाते हुये श्री कबीर दास जी का यह पद गा रहे थे …

“बाबा बहुरंगी हरिभक्तन के संगी…
कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरि न भजे सोई भंगी”

मेरे मित्र के आँखों से आँसु आगये ….और वो मेरे पैर छूने लगे …मैंने कहा ये न करो यार ! नही आप बहुत भाग्यशाली हैं जो ऐसे सन्त के सान्निध्य में निरन्तर रहते हैं ।
मैं मात्र मुस्कुराया…बाबा चिल्लाकर बोले …तैरना नही सीखना ?
मैंने कहा …सीखना है …मैं दौड़ा …पीछे से मेरे मित्र ने भी कहा …बाबा ! मुझे भी सीखना है …इस भव से पार जाने के लिए ।
बाबा ख़ूब हँसे ! आओ …।

Harisharan

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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