Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣4️⃣8️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
माँ ! ये हैं मेरे मित्र वानरराज सुग्रीव ! माताओं को अपनें मित्र वानरों का परिचय कराया ………और इन्हें तो आप जानती ही हैं ?
“मुझे तो माँ नें खूब मोदक भी खिलाये हैं”……हनुमान नें चपलता के साथ कहा ………..।
ये न होता तो पता नही मेरा पुत्र भरत आज जीवित भी होता कि नही !
हनुमान नें ही तो तेरे आनें की सुचना दी मेरे भरत को …….नही तो भरत यज्ञ कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करके बैठा था ।
माँ कौशल्या की बातें सुनकर मेरे श्रीराम बोले थे …………माँ ! हनुमान नें तुम्हारे लक्ष्मण को भी बचाया है ………और इतना ही नही ………..मेरी वैदेही का पता लगानें वाले भी यही थे ………
नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे हनुमान के बारे में बताते हुये ……..माँ ! हम सम्पूर्ण रघुवंशी भी चाहे तो भी इन कपि हनुमान के ऋण से उऋण नही हो सकते …….मेरे श्रीराम ने कहा ।
गुरुमहाराज ! ये हैं मेरे मित्र लंकेश विभीषण …………आगे बुलाकर गुरुवशिष्ठ जी को परिचय दिया था …………और ये जामबंत ……..।
मुझे याद आयी त्रिजटा कहाँ है ? मैने इधर उधर देखा ……नही मिली ………मैने धीरे से विभीषण जी से पूछा तो वो बोले ……..त्रिजटा नाराज हो गयी है ! पर क्यों ? मैं कुछ चौंक गयी थीं ।
वो है ही ऐसी ………..आप परेशान न हों ……..वो चाहती है कि उसको कोई नजरअंदाज न करे ।………मैं समझ गयी थी ………मैने पीछे देखा तो दूर खड़ी थी अकेली ………मैने उसे बुलवाया ………अनमने ढंग से आयी ………….मैने त्रिजटा का हाथ पकड़ा और उसका सबसे परिचय करानें लगी थी ।
मेरे श्रीराम सबसे मिल रहे थे………सबसे ……….एक छोटे से छोटे नागरिक से भी ………..जिसे हृदय से लगाना है उसे हृदय से लगा रहे थे …….जिससे हाथ मिलाना है उससे हाथ मिला रहे थे …..जो सन्मान्य हैं उनके सामनें झुक रहे थे ।
फूलों की वर्षा शुरू हो गयी थी………जयजयकार हो रहे थे ।
लोग नाच रहे थे ……..लोग गा रहे थे …….शहनाईयाँ बज रहीं थीं ……
सुन्दर रथ आया…………आगे बढ़कर मेरे छोटे देवर शत्रुघ्न कुमार नें विनती की ………कि अब नाथ ! चलिये ……नगर वासी भी स्वागत के लिये उत्सुक हैं ।
मुस्कुराते हुये मेरे श्रीराम रथ में बैठे……….माताओं के लिये अलग रथ थे …………गुरुओं के लिये अलग रथ ।
मेरे श्रीराम रथ में बैठे तो वाम भाग में मैं बैठी …………पीछे चँवर लिए भरत शत्रुघ्न लक्ष्मण ये सब थे …….हनुमान तो चरण पकड़ कर नीचे ही बैठ गए ……….।
त्रिजटा कहाँ है ? मैने फिर देखा जब रथ चलनें लगा था…………
भीड़ में दिखाई दी त्रिजटा………उसके पिता विभीषण जी अपनें रथ में बिठा रहे थे …..पर वो मान नही रही थी ।
क्रमशः ……
शेष चरित्र कल …….!!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-121”
( वसन-हरण )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……….
मधुमंगल ! कहाँ नहामें गोपियाँ , तोक़ुं पतौ है ? मैं कन्हैया के निकट गयौ ….और सारी बात बताई , तौ कन्हैया मोते पूछवे लग्यो । क्यों ? मैंने पूछी । तू नहातै भए गोपिन कूँ देखेगौ ? मैं हंस्यो जे कहते भए तौ कन्हैया मोते बोलो ….मेरे काजे अनुष्ठान कर रही हैं गोपियाँ तौ मोकूँ देखनौं जरुरी है कि उनकौ अनुष्ठान क्यों पूरौ नही भयौ । मैंने कही ..ठीक है – चल ।
हम दोनों है कै चल पड़े हे बा यमुना के घाट पे जहां गोपियाँ नित्य नहातीं ।
कन्हैया ने वो घाट देख्यो ….फिर इधर उधर हूँ देख्यो ……एक कदम्ब वृक्ष यमुना के अत्यन्त निकट हो ….निकट कहा ….बा कदम्ब की एक डाल तौ यमुना में ही झूलती रहती ।
कन्हैया जे सब देखके मोकूँ लै कै वापस भवन में आय गए हे । मोकूँ का पतौ ही कि कल ब्रह्मवेला में फिर कन्हैया आयवै वारौ है , यही घाट पै ।
ब्रह्मवेला में बाही घाट पे , मोकूँ लै कै आयौ कन्हैया ……जैसे ही यमुना में कोलाहल सुनी तौ कन्हैया एक कुँज रंध्र तै देखवे लग्यो …….सब नहा रही हैं …….
हे भगवान ! जे तौ नग्न स्नान कर रही हैं ? मेरे मुँह तै निकस्यो ।
गलत है ना ? मधुमंगल ! तू तौ ब्राह्मण है नदी में नग्न स्नान वर्जित है …है ना ? कन्हैया ने मोते पूछी …तो मैंने जब ..’हाँ’ कही ….तौ कन्हैया धीमी चाल तै आगै बड्यो ….मैं पीछे जायवे लग्यो तौ कन्हैया बोलो …मधुमंगल ! तू मत आ …..लेकिन तू कहाँ जाय रो है …मैंने पूछी तौ कन्हैया धीरे तै रुक के बोलो ….गोपिन कूँ ज्ञान दै वै कि यमुना में नग्न नही नहानौं चहिए । जे कहतौ भयौ कन्हैया यमुना के बा घाट पे पहुँच गयौ …जहां गोपियाँ नहा रही हीं ।
अरी निकल ! निकल बाहर …..सर्दी लग जाएगी …..अरे ! थोड़ी देर और खेलन दो ना …..नही , अब तौ जल तै बाहर निकलो ……………
एक हंसती भई बोली …निकलें कहाँ तै , वस्त्र तौ हैं नहीं ।
वस्त्र कहाँ गए ? अब सब गोपियाँ परेशान है कै चारों ओर देख रहीं हैं ।
वो रहे …….एक गोपी चिल्लाई ।
क्या वस्त्र ? हाँ , वस्त्र भी और अपने कन्हैया भी । उसी गोपी ने कहा ।
सब गोपिन ने ऊपर देख्यो …….अब तौ सब अतिप्रसन्न है गयीं …….जा के ताईं अनुष्ठान कियौ हो ……वही प्रकट है गयौ ।
कन्हैया ! ओ कन्हैया ! सब गोपियाँ चिल्लायवे लगीं ……
मोते कह रही हो ? कन्हैया इधर उधर देखके बोले ।
हाँ , तुमते ही कह रही हैं …….कन्हैया बोले …कहो ……हमारे वस्त्र दे दो ….कन्हैया बोले …कहाँ हैं तुम्हारे वस्त्र ? तुम्हारे वृक्ष में टंगे तौ हैं …….गोपिन की बात सुनके कन्हैया हँसे …खूब हँसे ….फिर बोले ….आओ और लै जाओ वस्त्र । गोपियाँ शरमा गयीं ….और बोलीं ….हम ऐसे आय नाँय सकें …..क्यों ? कन्हैया ने पूछी …..तौ गोपियाँ बोलीं ….शरम लगै । पहले तौ नाँय लग रही शरम ? कन्हैया ने कही । गोपियाँ बोलीं …पहले कोई ना हौ । कन्हैया बोले ..कैसे कोई ना हो ……का यमुना नाही ? का वृक्ष ना हे ? का आकाश ना हौ ? एक गोपी बोली …लेकिन तुम नही थे ना । कन्हैया बोले …मैं कहाँ नही हूँ ? का यमुना की धारा के रूप में , मैं नही बह रह्यो ? का वायु के रूप में मैं ही तुम्हें नाँय छू रह्यो….का आकाश की शून्यता में मैं नही हूँ ? कन्हैया फिर शान्त भाव तै बोले ….हे गोपियों ! मैं ही हूँ सर्वत्र और सर्वदा ।
हमारे साथ रास विहार करो प्यारे ! गोपिन की जे बात सुनके कन्हैया बोले …..अभी प्रतीक्षा करो …..अब महारास की वेला आय रही है ।
जे सब कहके कन्हैया ने गोपिन कूँ वस्त्र दै दिए …..वस्त्र लै कै गोपियाँ कन्हैया कूँ निहारती भई अपने अपने घर चली गयीं हीं ….कन्हैया हूँ अब मोकूँ लै कै अपने भवन में आय गए हे ।
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३१*
*🤝 ८. व्यवहार 🤝*
_*विषय -त्याग से मुक्ति*_
विषयभोगों में से और उन्हें भोगनेवाले शरीर में से आसक्ति को कैसे निकालें—इसपर शास्त्र ने समझाया है-
*शरीरं व्रणवत् पश्येदन्नं तु व्रणलेपनम् ।*
*व्रणसेचनवद् वारि वस्त्रं तु व्रणपट्टवत् ॥*
शरीर स्वाभाविक दुःखरूप है ही, इसलिये उसे एक फोड़ा समझना चाहिये। फोड़े का घाव जबतक सूखता नहीं, तबतक वह दुःख देता रहता है, वैसे ही शरीर भी मुक्ति के प्राप्त न होनेतक दुःख देता रहता है—इसलिये शरीर को फोड़ा समझना उचित ही है। घाव भरने के लिये जैसे प्रतिदिन मलहम आदि लगाते हैं, वैसे ही शरीर को जो अन्न दिया जाता है, उसे वैसा समझना चाहिये। घाव को जैसे प्रतिदिन जल से धोया जाता है, वैसे ही शरीर को जल आदि पेय पदार्थ दिये जाते हैं और जैसे घावपर पट्टी बाँधी जाती है, वैसे ही शरीर को वस्त्रादि पहनाये जाते हैं। दीर्घकालतक इस प्रकार भावना करते रहने से शरीर से आसक्ति छूट जाती है और विषयों का सेवन तो केवल शरीर को सुख पहुँचाने के लिये ही होता है। शरीर में आसक्ति न रहने पर विषयों का राग तो अपने-आप निवृत्त हो जाता है। अभ्यास करना चाहिये -- केवल पढ़ने या जान लेने से ही कुछ नहीं होता।
अथवा श्रीशंकराचार्यजी की बतायी हुई भावना के अनुसार भाव करना चाहिये। यह भावना कुछ ऊँची है, इसलिये इसमें तनिक सूक्ष्म विचार की आवश्यकता है-
*शवाकारं यावद् भजति मनुजस्तावदशुचिः परेभ्य: स्यात् क्लेशो जननमरणव्याधिनिलयः ।*
*यदात्मानं शुद्धं कलयति शिवाकारमचलं तदा तेभ्यो मुक्तो भवति हि तदाह श्रुतिरपि ॥*
जबतक मनुष्य शव के सदृश शरीर को भजता है— अर्थात् जहाँतक शरीर को विषय-सेवन के द्वारा सुख पहुँचाने में जीवन का उपयोग करता है, वहाँतक वह अपवित्र ही रहता है। अतएव मुक्ति पाने के योग्य नहीं होता। विषयों की प्राप्ति के लिये दूसरों से वैर-विरोध करके सदा क्लेश ही पाया करता है। वह यह नहीं समझता कि मैं जिस शरीरको अपना स्वरूप मानकर उसकी सेवा करता हूँ, वह तो व्याधियों का भण्डार होने के कारण कभी सुखी होगा ही नहीं। उलटे, उसमें आसक्ति रखने के कारण वह जन्म-मृत्यु का दुःख देनेवाला होता है, परंतु जब किसी पूर्वपुण्यसे या सत्संग से मनुष्य में विवेक जाग्रत् होता है, तब वह विशुद्ध और कल्याण-स्वरूप अचल आत्मा का अनुसन्धान करता है। अर्थात् मैं शरीर नहीं, पर शरीर का नियन्ता शिवस्वरूप और सुखस्वरूप आत्मा हूँ, तब वह दुःखमात्र से छूट जाता है। श्रुति भगवती भी यही बात कहती हैं। संक्षेप में कहने का आशय इतना ही है कि यह शरीर तो *'मुर्दा'* ही है, केवल आत्मा के प्रकाश से चेतन दीखता है। फिर यह स्वभाव से ही दुःखरूप है, अतः इसे सुख पहुँचाने का कोई अर्थ ही नहीं है। अतएव शरीर से आसक्ति निकालकर *'मैं आत्मा हूँ'* ऐसी दृढ़ भावना करनी चाहिये । *'मैं देह हूँ'* यों माननेवाला देह को सुख पहुँचाने के लिये प्रयत्न किया करता है, परंतु वह सुख प्राप्त कर नहीं सकता, पर जब *'मैं देह नहीं, आत्मा हूँ'* यह भाव होता है, तब वह स्वभाव से ही सुखमय होकर सदा आनन्द में रहता है।
विषयभोगों में जो आसक्ति हो जाती है, वही जन्म-मरण का कारण बनती है और विषयभोगों के त्याग से ही जन्म-मरण का बन्धन टूट जाता है। जो ज्ञानरूपी तलवार से विषय-तृष्णा को काट डालते हैं, उन्हींका जीवन धन्य है; क्योंकि वे ही श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त होते हैं-
*ज्ञानासिना यो हि विच्छिद्य तृष्णां विष्णोः पदं याति स एव धन्यः ।*
इसीलिये श्रीअष्टावक्रमुनि ने समस्त साधकों को चेतावनी देते हुए कहा है-
*मुक्तिमिच्छसि चेत् तात विषयान् विषवत्त्यज ।*
*क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज ॥*
हे भाई! यदि जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो विषयों को विष के समान मानकर छोड़ दो और क्षमा, सरलता, दया, सन्तोष एवं सत्य आदि दैवीसम्पत्ति को अमृत समझकर उनका सेवन करो! मुक्ति-प्राप्ति का यही सहज उपाय है।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-44
प्रिय ! श्री गुरु चरण सरोज रज…
(श्री तुलसी दास जी )
मित्रों ! कल रात में गौरांगी से बात हुई…बोली – हरि जी ! भक्तमाल ग्रन्थ में गुरु की भक्ति से जिसे भगवान मिले हों …उन भक्त की कोई कथा सुनाओ ना । मैंने कहा …पागल ! घड़ी देख कितने बज रहे हैं ! 12 बज रहे हैं…और सुबह 3 बजे उठना है …फिर यमुना जी स्नान , फिर गुरु पूजन …सो जा । मैंने उसे सोने के लिए कहा…और फोन को रख कर खुद मैं भी सो गया ।
- वो 6 वर्ष की थी बालिका…काली थी …कुरूप ही कहें…भीलनी जात की थी…पर पूर्व जन्म के संस्कार ऐसे थे कि उसका भक्ति भाव में ही मन लगता था…एक ऋषि थे…”मतंग”, वन में रहते थे …भजन परायण थे …उन ऋषि की दैनिकचर्या तपस्या या भजन में ही व्यतीत होता था …। पर कुछ दिनों से वह ऋषि चिंतित दिखाई दे रहे थे …कारण ? मैंने जानने का प्रयास किया तो पता चला कि कोई उनके वस्त्रों को धो देता है और कौन धोता है ये ऋषि को खबर भी नही चलती थी …।
शायद ऋषि जब ध्यान में बैठते थे …और देह सुध वह भूल जाते थे तभी कोई आता और चुपके से उनके सारे वस्त्रों को धो देता था । मैंने मन में सोचा आजकल तो अपने हाथों अपने ही वस्त्रों को धोना ये भी निम्न बना देता है लोगों को …मैंने बड़े बड़े साधुओं को देखा है कि अपनी लँगोटी भी किसी और से धुलावाते हैं । नही ! ये गलत है …हम किसी से अपनी सेवा करवाते हैं तो सेवा करने वाला हमारे सुकृत को ले जाता है ..। कौन धो देता है मेरे वस्त्रों को ! …मतंग ऋषि ने आज ध्यान करने का स्वांग किया …। तभी आवाज़ आयी किसी के पद चाप की …किसी ने उनके वस्त्रों को लिया और पास के ही सरोवर में ।
कौन है तू ? …बोल नही तो अभी भस्म कर दूँगा…
मैं शबरी ! मेरा कोई दूसरा उद्देश्य नही है भगवन् ! बस आपकी सेवा ही मेरा धर्म है …हे प्रभु ! आपही मेरे मालिक हैं…मैंने भगवान को नही देखा है …पर मैं आपको नित्य निरन्तर निहारती रहती हूँ …क्या चाहती हो ? …बोलो क्या चाहती हो ? …आप का शिष्यत्व । आपकी शिष्या बनना चाहती हूँ …हे भगवन् ! मैं जाति की बहुत छोटी हूँ …शुद्र ही समझिये ना ! …पर मैं आपके सिवाय अब किसी को कुछ नही मान सकती ।
अगर मैं दीक्षा नही दूँ तो ? …मतंग ने कहा …शबरी बोली …सामने सरोवर है …जल गहरा है …मुझे तैरना नही आता
…मैं कूद जाऊँगी और मर जाऊँगी ।
ऋषि मतंग ये बोलते हुये अपनी कुटिया में चले गये कि “कूद जाओ” । थोड़ी देर बाद जब बापस आये तो देखा वह बालिका शबरी वहाँ नही है …इधर उधर देखने लगे …सरोवर में ध्यान गया ऋषि का …ओह !…ऋषि मतंग ने छलाँग लगाई…और डूबती हुयी उस बच्ची शबरी को बाहर ले आये ।
तू पागल है …कुछ हो जाता तो ? …मतंग ने कहा …शबरी बोली – आप नही मिलते तो इस जीवन का भी क्या अर्थ ? …
तू पागल है ? …चरणों में सिर रखते हुये बोली …थोड़ी थोड़ी ।
मतंग ऋषि ने विधि विधान से शबरी को दीक्षा दिया …मन्त्र कान में फूँक दिया …और कान के माध्यम से उस मन्त्र ने हृदय में जाकर “रामतत्व” का प्रकाश फैला दिया ।
उस दिन शबरी ख़ूब नाची …उसके गुरुदेव मतंग …शबरी को राम भक्ति का उपदेश देते…ऋषि मतंग अपनी प्रिय शिष्या को…सच्चिदानंद श्री राम से प्रेम करने की ही बात बताते …।
एक दिन पम्पा सरोवर में शबरी स्नान करने के लिए गयीं थीं …और स्नान करके गुरुदेव के लिए जल भी लेकर आना था …जैसे ही जल में स्नान करने के लिए उतर ही रही थी कि …कई कर्मकांडी ब्राह्मण जो अपनी जाति व्यवस्था में कट्टर थे …उन्होंने तुरन्त शबरी को रोक दिया …और चिल्लाकर बोले …नही …हे निम्न जाति की नारी ! अगर तुमने इस जल को छू भी लिया तो हम सब मिलकर तुम्हें ऐसा दण्ड देंगे कि तुम्हारे गुरुदेव भी तुम्हें नही बचा पाएंगे । अरे ! तुम्हारे गुरु मतंग ने जाति व्यवस्था का तिरस्कार कर दिया तो क्या हम भी अब तुम शूद्रों के साथ नहायेंगे ! …।
शबरी बेचारी डर गयी …दौड़ी दौड़ी आई …और आकर गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ी …हे भगवन् ! इस तरह मुझे ये ब्राह्मण वर्ग तिरस्कृत कर रहा है …तो मुझे कैसे भगवान स्वीकार करेंगे ? …कहीं ऐसा तो नही होगा कि मैं शुद्र हूँ कहकर श्री राम प्रभु भी मुझे दर्शन न दें । ऐसा कहते हुये चरणों में सिर रखकर वो शबरी बहुत रोई ।
मत रो …शबरी ! मत रो । अरे ! दान और कर्मकाण्ड में ही जिनकी निगाह निरन्तर लगी रहती है …ऐसे ये ब्राह्मण क्या भक्ति और प्रेम की महिमा को जानेंगे ?…भगवान ने कब देखि है जाति कुल ?
अरे ! जाति किसकी ? …इस देह की ना ? …शबरी तुम हम ये देह नही हैं …हम लोग देह से परे हैं …ये गृहस्थ और बाबा जी …ये भी बेकार की बातें हैं …बाबा भी शरीर ही बना है ना ! और गृहस्थ भी शरीर ही है …पर आत्मतत्व न ब्राह्मण है …न शुद्र …न बाबा जी है …न गृहस्थ ।
मतंग के आँखों में अश्रु भर आये …मेरे “राम” मात्र प्रेम देखते हैं ।
रोती हुयी शबरी बोली …मुझे मिलेंगे ना श्री राम ? …बोलो ना गुरुदेव ! मिलेंगे ना ?…ध्यान लग गयी मतंग ऋषि की …”राम राम राम” यही नाम ले रहे थे…देह भान छूट गया …शबरी वहीं बैठी रही …1 वर्ष तक ध्यान में बैठ के बैठे ही रहे मतंग । और एक वर्ष तक शबरी तन्मयता से अपने सद्गुरूदेव की सेवा करती रही …। वो उस क्षेत्र के सवर्णी लोग …शबरी को लेकर कुछ न कुछ बोलते …पर शबरी कोई प्रत्युत्तर नही देती …पर आज जब…एक कर्मकाण्ड के अहं में डूबे हुये व्यक्ति ने जब ये कहा …कि ये मतंग आदमी ही खराब है…अपने सद्गुरुदेव के प्रति ऐसी बात …बस फिर क्या था …सहन शक्ति ने ज़बाब दे दिया …लड़ पड़ी …और सबको अपने आश्रम से भगा दिया …और भगाते हुये जोर से ये भी बोली …आज के बाद अगर इस आश्रम में पैर भी रखे तो पैर काट दूँगी ।
आकर अपने गुरुदेव के चरणों में सिर रखकर वो बहुत रोई …रोने की आवाज़ ने ही समाधी से जगा दिया मतंग को ।
मत रो …देख ! मेरा समय हो गया है …मैं जा रहा हूँ …।
मानो शबरी के ऊपर वज्राघात हो गया था …क्या ? …चौंक गयी थी शबरी । हाँ शबरी मैं जा रहा हूँ …भगवान के धाम …मेरी साधना पूरी हो गयी है …अब मैं जा रहा हूँ ।
शबरी बिलख उठी …मैं भी जाऊँगी । मुझे भी ले चलिये …हे गुरुदेव ! आपके बिना मेरा इस जगत में कौन है ? …मैं यहाँ किसके लिए रहूँगी ?…मुस्कुराये सद्गुरुदेव , श्री राम के लिए ।
हाँ शबरी मैं कह रहा हूँ …इसी कुटिया में राम आएंगे …इसी कुटिया में श्री राम आकर रूकेंगे …और किसी के यहाँ नही जाएंगे …ये जितने जाति के अभिमान में अपने आप को बड़ा समझ रहे हैं ना …ये सब तुम्हारे आगे बौने साबित होंगे ।
पर ! …चिंतित हो उठे एक क्षण के लिए ऋषि मतंग । आप चिंतित न हों…मुझे आज्ञा दें…मेरे होते हुये आप चिंतित ?
नही शबरी !…मुझे दुःख है इस बात का कि मैं अपने स्वामी श्री राम के दर्शन नही कर पाऊँगा । शबरी ! तुम एक काम करोगी …अपने आँसुओं को पोंछते हुये शबरी बोली …आज्ञा दें ।
शबरी ये मेरी पादुका है …इस पादुका को मेरा रूप मानना …और प्रभु श्री राम जब यहाँ आयें तो उनके सामने रख देना …मुझे वहीं से दर्शन का सुख प्राप्त हो जायेगा ।
इतना बोलकर मतंग की वाणी अवरुद्ध हो गयी …शरीर मृत हो गया …शबरी बिलख उठी …अपने ही हाथों नदी में प्रवाहित किया अपने गुरुदेव का शरीर । पादुका को …स्थापित किया…और नित्य स्नान के बाद पादुका में चन्दन पुष्प अर्पित करके …उन्हीं पादुका को घण्टों निहारती रहती थी ।
अरे ! ये सफेद बालों वाली बुढ़िया…झाड़ू लगा रही है…ओह ! 8 वर्ष की शबरी आज 80 वर्ष की हो गयी थी…पर गुरु की वाणी पर उसे पूर्ण निष्ठा…गुरुदेव ने कहा है…भगवान राम आएंगे…आज , कल …करते करते …वर्षों बीत गये थे …पर निष्ठा जस की तस बनी हुयी थी…गुरु की वाणी पर निष्ठा…। आज सुबह सुबह उठी…कुटिया में झाड़ू लगा रही थी कि …दो सुंदर राजकुमार आये ।…शबरी की कुटिया कहाँ है ? …एक ब्राह्मण से पूछा…नाक भौं सिकोड़ कर…वह ब्राह्मण कुछ नही बोला बस सामने इशारा किया …शबरी को समझ में ही न आया…कि यही तो मेरे राम हैं…क्या सच में यही राम हैं ? …हाँ…श्री राम और लक्ष्मण दोनों ही साथ थे…कुटिया को देखते हुये भगवान श्री राम आगे बढ़ते ही जा रहे थे…कोई नही दीख रहा है लक्ष्मण ! यहाँ तो …
भीतर से तेजोमय स्वरूप लिए हुये …गुरु के आवेश से भरी हुई शबरी आई…और तेज़ आवाज में बोली…हे सच्चिदानंद श्री राम !
मैं मतंग हूँ …तुम्हारा दास …मैं मतंग हूँ …ऐसा कहते हुये …अपने गुरु की पादुका को सिर में धारण करके शबरी चली आरही थी …और श्री राम के चरणों में अपने गुरु की पादुका को छुवा कर …शबरी आवेश में भर कर बोली …मैं ऋषि मतंग हे भगवान श्री राम आपके चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ ।
फिर शबरी अपने भाव में आकर ख़ूब रोई …आकाश की ओर देखते हुये बोली …हे सद्गुरूदेव ! धन्य हैं आप आज इस शबरी जैसी अधम नार को भी आपने श्री राम से मिला दिया ।
मेरे पास में रखा हुआ फोन बज उठा …गौरांगी का था …ठीक 3 बजे ही लगाया इसने …मैं उठा …यमुना जी के लिए निकल गया …। गौरांगी इंतज़ार कर रही थी …मैंने कहा … गौरांगी सपना देखा मैंने आज ..शबरी के यहाँ जो भगवान श्री राम आये …वो गुरु कृपा ही तो थी ।
हरि जी ! आपको नींद तो आती है …हमें तो नींद भी नही आती…मैंने कहा …सात्विकता जब बढ़ती है तब नींद भी कम हो जाती है …तमोगुणी तो हम हैं । …हम दोनों ख़ूब हँसे ।
यमुना स्नान करके…पागलबाबा के पास गये …और उनका पूजन किया …चरण धोये …चरणोंदक लिया ।
5 बजे लौट के आरहा था कि …तभी ऐसा लगा कि कोई बोल रही है …शबरी ? … हाँ भक्ति रूपा शबरी ! …बोल रही थीं …गुरु तत्व होता है …गुरु देह नही है …गुरु को शरीर मानना उनका अपमान है ।
शायद मेरे कान ही गूँज रहे थे …पर गुरु तत्व ही तो है, नही ?
“वन्दउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि”
Harisharan


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