Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣4️⃣8️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
मेरे श्रीराम रथ में बैठे तो वाम भाग में मैं बैठी …………पीछे चँवर लिए भरत शत्रुघ्न लक्ष्मण ये सब थे …….हनुमान तो चरण पकड़ कर नीचे ही बैठ गए ……….।
त्रिजटा कहाँ है ? मैने फिर देखा जब रथ चलनें लगा था…………

भीड़ में दिखाई दी त्रिजटा………उसके पिता विभीषण जी अपनें रथ में बिठा रहे थे …..पर वो मान नही रही थी ।
मैने त्रिजटा को आवाज दी……..पहले उसनें अनसुनी कर दी …….फिर जब लोगों नें उसे कहा ……”सिया महारानी आपको बुला रही हैं”……तब मेरी ओर देखा था उसनें……मैने हँसते हुये उसे बुलाया ….अब वो खुश लग रही थी…..आई और मेरे बगल में खड़ी हो गयी…..मैने त्रिजटा के मुख को देखा………अब ठीक है इसका मूड ।
नगर द्वार पर हमारा रथ रुका था…………बस फिर क्या था लोगों नें अक्षत दही केशर अबीर फूल ये सब हमारे ऊपर बरसानें शुरू कर दिये थे ……….महामन्त्री सुमन्त्र जी बहुत नाराज हो रहे थे …..लोगों को समझा भी रहे थे ………..कि ज्यादा कुछ मत फेंको चोट लगेगी ।
पर लोग कहाँ मानने वाले थे …………आज चौदह वर्ष बाद तो लोग हँस रहे थे ………..अयोध्या मुस्कुराई ही है चौदह वर्ष बाद ।
मार्ग फूलों से पटा पड़ा था ………सुगन्धित इत्र छींटा गया था ….।
लोगों की इतनी भीड़ उमड़ रही थी ……..कि सम्भालना मुश्किल पड़ रहा था ………..पर मेरे श्रीराम सबको छु रहे थे…….रथ में बैठे मेरे श्रीराम को छूनें के लिये सब दौड़ पड़े थे ……….महामन्त्री सुमन्त्र सबको हटा रहे थे …….पर मेरे श्रीराम नें किसी को मना नही किया ।
ये तो मन्थरा का महल है ना ! मेरे श्रीराम नें पूछा ।
जी ! महामन्त्री सुमन्त्र नें कहा ।
हाथ के इशारे से रथ रुकवाया मेरे श्रीराम नें…….रथ रुका तो उतरे श्रीराम….उनके उतरते ही महामन्त्री नें तुरन्त व्यवस्था सम्भाली….भीड़ को रोक दिया……..आश्चर्य ! और मुझे ही आश्चर्य नही हुआ……अयोध्या में इस दृश्य को जिसनें देखा ……”राम तुम धन्य हो” यही कहा सबनें ।
मन्थरा ! द्वार खोलो ! मेरे श्रीराम नें जाकर द्वार खटखटाया ।
कैकेई रो गयी इस दृश्य को देखते ही ....माँ कौशल्या नें उसे उतरनें के लिये कहा ।
कैकेई भी मन्थरा के महल के द्वार पर खड़ी हो गयी थी ।
मन्थरा ! द्वार खोलो……..देखो ! कौन आया है ? कैकेई नें अब आवाज लगाई ।
नही …….मुझे मारनें के लिये अयोध्या की भीड़ आज उमड़ पड़ी है ….मुझे मार देंगें ये लोग ………मैने बहुत बड़ा अपराध किया है ।
अरे पागल ! द्वार खोल देख ! मैं आई हूँ………और देख तो कौन आया है तेरे द्वार पर…….चिल्लाकर बोली थी कैकेई ।
धीरे से द्वार खोला मन्थरा नें ………….तब उसनें क्या देखा ……..आहा ! नीलमणी राजिव नयन श्रीराम ।
राम ! तुम ! चरणों में गिर गयी मन्थरा ……….और हिलकियों से रो पड़ी थी …….मैं ही हूँ तुम्हारे अयोध्या को बर्बाद करनें वाली ।
चौदह वर्ष के लिये यहाँ के नर नारियों को दुःख के समुद्र में डुबो देनें वाली मैं ही हूँ राम ! मुझे दण्ड दो ……..मुझे मृत्यु दण्ड दो …….
मेरे श्रीराम के बल्कल पकड़ कर दहाड़ मार कर रो रही थी मन्थरा ।
बड़े प्रेम से उस मन्थरा को उठाया था मेरे श्रीराम नें …………….
नही ………….आपका क्या दोष ? अपितु आप अगर ऐसा नही करती ना ! तो पृथ्वी का कष्ट कैसे दूर होता ……..बेचारे ऋषि मुनि रावण के आतंक से त्राहि त्राहि कर रहे थे ………उनका क्या होता ?
मन्थरा को आगे लेकर आये मेरे श्रीराम…….प्रजा उमड़ रही थी …….मन्थरा को सबके सामनें कहा ……..आप निर्दोष हैं……और आपको जो दोष देता है…….वो दोषी है…..राम तो यही मानता है ।
मन्थरा को सबके सामनें प्रणाम करके मेरे श्रीराम फिर रथ में बैठ गए थे …………।
मुझे अपनी बहनों से मिलना था ……….मुझे जल्दी से जल्दी बहनो के साथ उनके महल में जाकर खूब बातें करनी थीं ।
जीजी ! गवाक्ष से श्रुतकीर्ति चिल्लाई ………..मैने ऊपर की ओर देखा ……तो वो छोटी…….. हाथ हिला रही थी ।
शेष चरित्र कल …….!!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३२*
*🤝 ९. व्यवहार 🤝*
_*निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्*_
*[* अर्जुन! (मेरे कर्म में) तू निमित्तमात्र बन *]*
*यदभावि न तद् भावि भावि चेन्न तदन्यथा।*
*इति चिन्ताविषघ्नोऽयं बोधो भ्रमनिवर्तकः॥*
जो नहीं होना है, वह करोड़ उपाय करनेपर भी नहीं होता और जो होना है, वह करोड़ प्रयत्न करनेपर भी हुए बिना नहीं रहेगा। बस, इतनी ही बात यदि समझमें आ जाय, तो श्रीविद्यारण्य मुनि कहते हैं कि फिर मनुष्य पर चिन्तारूपिणी साँपिन का विष नहीं चढ़ता, इसी प्रकार सुख-दुःख का द्वन्द्व भी उसे नहीं सता सकता ।
कुरुक्षेत्र के समरांगण में श्रीकृष्ण भगवान् ने अर्जुन को उन्हीं की प्रार्थना पर विश्वरूप दिखलाया, तब वे घबरा उठे और बोले कि *‘भगवन्! ऐसा उग्रस्वरूप आपने कैसे धारण किया, इसका रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप प्रसन्न होइये। आप कैसे कार्य कर रहे हैं, उसे मैं कुछ भी समझ नहीं सकता, कृपा करके आप मुझे समझाइये ।'* अर्जुन के ऐसे विनययुक्त वचन सुनकर भगवान् ने कहा-
*कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।*
*ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥*
(गीता ११/३२)
मैं लोकों का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय इन लोकों का संहार करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिये प्रतिपक्षियों की सेना में जो योद्धागण स्थित हैं, उन सबका काल आ गया है, इससे वे मरनेवाले ही हैं, तुम तो निमित्तमात्र बनोगे। मेरे न मारने से ये योद्धागण नहीं मरेंगे, तुम्हारी ऐसी मान्यता भूलभरी है। अतएव हे अर्जुन-
*तस्मात् त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।*
*मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥*
(गीता ११ | ३३)
तुम साहस बटोरो और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके यश प्राप्त करो तथा इस समृद्धिसम्पन्न राज्य को भोगो। इस युद्ध में जो-जो वीर मरेंगे, उनको तो पहले से ही मैंने मार रखा है। तुम तो उनकी मृत्यु में केवल निमित्त हो जाओ।
*एक पारधी जैसे तीर से हरिन को मारता है, इसमें यद्यपि हरिन की मृत्यु तो तीर लगने से ही होती है, तथापि वह तीर तो पारधी के हाथ का साधनमात्र है। यथार्थ में मारनेवाला तो पारधी ही है। इसी प्रकार इस प्रसंग में भी यथार्थ मारनेवाला तो मैं ही हूँ, तुम तो तीर की तरह मेरे हाथ के साधनमात्र हो।*
अर्जुन-जैसे परम भक्त की भी समझ में प्रभु की संहारलीला नहीं आयी, फिर दूसरे मनुष्य की तो बात ही क्या है। अतएव आज हम भगवान् कालस्वरूप धारण करके किस प्रकार संहार का कार्य सम्पादन करते हैं, इसे लौकिक दृष्टान्तों के द्वारा समझने का प्रयत्न करेंगे, जिससे अर्जुन की भाँति व्यामोह न हो और विषम काल में भी धीरज रह सके।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️* Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-45
प्रिय ! भरोसो दृढ़ इन चरनन चेरो …
(श्री सूरदास जी )
मित्रों ! कल अध्यात्म जगत का महामहोत्सव गुरु
पूर्णिमा सम्पन्न हुआ …हम सब थक गये थे कल
शाम होते होते …।
पागलबाबा गुरु पूर्णिमा के दिन कुछ नही खाते
…अपने गुरुदेव का मानसिक ध्यान करते हुये
मात्र चरणामृत लेते हैं …।
- साधकों ! कल के दिन मेरे पास में कई साधकों के
प्रश्न आये थे…मैंने सोचा आज क्यों न उन
प्रश्नों के ही उत्तर दिए जाएँ । गौरांगी ने भी
कहा …आप को उत्तर देना चाहिए …हरि जी !
आपके प्रति सबकी अपेक्षा बढ़ती जा रही है
…इसलिए आप उत्तर दें …सबका उत्तर दें ।
आज मैं कुछ प्रश्न , जो मेरे साधकों द्वारा
किये गये हैं …उनके समाधान की दिशा में
आगे बढूंगा ।
ये प्रश्न किया है महाराष्ट्र के एक साधक ने
…गुरु क्या है ?
समाधान – गुरु एक तत्व है…और गुरु को तत्व
के रूप में ही देखा जाना चाहिए …न कि शरीर के
रूप में ।
ये प्रश्न किया है …बिहार की एक साधिका
ने…क्या गुरु को बदला जा सकता है ? …या
गुरु को बदलकर नए गुरु बना सकते हैं …हो
सकता है हमने पहले जल्दबाजी में गुरु बना लिए
पर अब हमें लग रहा है कि गुरु को चेंज किया जाए
तो अब क्या करें ?
समाधान – पहले ये समझें कि गुरु हमने क्यों
बनाया था ? …हम गुरु क्यों बनाते हैं ?
…और क्या देखकर गुरु बनाया था ।
आज अध्यात्म को फैलते हुये हम विश्व में देखते
हैं …देख रहे हैं…पर क्या सच में यही
अध्यात्म है ? …तनाव ग्रस्त हो गये हैं हम
लोग …टेंशन से भरे रहते हैं हम लोग
…इसलिए अध्यात्म में जाने लगे हैं
…मेडिटेशन करने लगे हैं …नही नही
…आधुनिक अध्यात्मवादियों की भीड़ देखकर ये मत
सोचिये कि …विश्व बदल रहा है …अब
शान्ति आने वाली है …नही जी ! कुछ नही
बदल रहा …बस दवा का ब्रांड चेंज कर दिया
है …टेंशन की दवा मेडिटेशन …तनाव से
मुक्ति की दवा …स्प्रिच्युअल (अध्यात्म) होगया है ।
…ये सोच भौतिकतावादी ही है…इसमें
अध्यात्म कहीं भी नही है …। सुबह सुबह
किसी पार्क में …या किसी बगीचे में आप जोर
जोर से हँसते हुये…या पेट को पिचकाकर
प्राणायाम करते हुये …या आँखें बन्द करके
मेडिटेशन करते हुये अगर आप लोगों की भीड़ देखें
तो ये न सोचें कि अध्यात्म बढ़ रहा है
…नही …ये केवल अपने शरीर के लिए ही
हो रहा है …उस शरीर के लिए जो नाशवान
है…। मैं ये नही कह रहा कि शरीर के लिए
कुछ मत करो …पर ये अध्यात्म नही है
…मैं ये कह रहा हूँ । आप आत्मतत्व को
जानना चाहते हैं …या मात्र शरीर के
स्वास्थ्य के लिए अध्यात्म के क्षेत्र में आये
हैं …पहले आप ये स्वयं समझिये …।
अध्यात्म का अर्थ है …आत्मतत्व को जानना
…यानी अन्तर्मुखता …। भौतिकवाद
यानी विशुद्ध बहिर्मुखता …आप को अगर
वास्तव में शान्ति चाहिए …आनंद चाहिए
…तो बहिर्मुखता को त्याग कर …अंतर्मुखी
बनना ही पड़ेगा । यानी सच्ची शान्ति
भौतिकता में नही है …अध्यात्म में ही है ।
आप जितने अंतर्मुखी होंगे …आप उतने
स्वस्थ भी रहेंगे …क्यों कि आप अपनी
प्रकृति (स्वभाव) के प्रति जागरूक रहेंगे
…”आप क्रोध करेंगे”…पर क्रोध आप को
आएगा नही…आप अपनी मर्जी से क्रोध
करेंगे…क्यों कि आप जागरूक हैं …।
अब रही गुरु को चेंज करने की बात …तो आप
स्वयं सोचिये कि आपने जिन्हें गुरु बनाया है
…वो इस योग्य हैं कि आपको अध्यात्म की
यात्रा में लेकर चल सकें ? …क्या वो
इस मार्ग की कठिनाइयों से वाक़िफ़ हैं ? …क्या
वो चलें हैं इस मार्ग में ?
या केवल बातें बनाना जानते हैं…मैं तो यही
कहूँगा …गुरु अगर योग्य नही हैं …यानी
आपको अध्यात्म विज्ञान की विशुद्ध जानकारी देने
की उनमें योग्यता नही है …तो आप
उन्हें छोड़ दीजिये …जीवन कम है
…साँसें जा ही रही हैं …इसलिए
ऐसे गुरु को त्याग दीजिये …भागवत में लिखा है
…राजा बलि ने भी अपने गुरु शुक्राचार्य का
त्याग कर दिया था । इसलिए आप ये देखिये कि
आपके गुरु आपको क्या दे सकते हैं ?
…भगवान की बातें बताते हैं तो क्या वो
भगवान से मिला सकते हैं ? …आत्म तत्व की
चर्चा करते हैं तो क्या आत्मसाक्षात्कार करा
सकते हैं ? …अगर नही …तो त्याग दीजिये
ऐसे गुरु को ।
नेपाल के सर्लाही जिला से एक साधिका ने प्रश्न
किया है …
मैं भगवन् नाम जपती हूँ …”कृष्ण कृष्ण” और 1
वर्ष से जप ही रही हूँ …पर कुछ विशेष लाभ हुआ
हो ऐसा लग नही रहा ।
फिर कभी कभी लगता है कि अन्तःकरण में गन्दगी
जन्मजन्मांतरों की ज्यादा ही भर गयी होगी
…इसलिए सफाई में भी तो समय लगता है
…आप मार्ग दर्शन करें ।
समाधान – आप मेरी बात मानें …नाम जप के साथ
साथ ध्यान को भी अपनी साधना में जोड़ें
…ध्यान करें । उन साधिका ने तुरन्त
पूछा कैसे करें ध्यान ? …
आप ध्यान के सम्बन्ध में कुछ जानती हैं ?
…हाँ मैं श्री श्री रविशंकर जी के
ध्यान को जानती हूँ …करती भी हूँ ।
नही …पर मेरा ध्यान ये ज्ञान मार्ग या
योग मार्ग का ध्यान नही है …रविशंकर जी और
ओशो या महेश योगी जी इन सबका ध्यान बस
अपनी साँसों को देखना, यही प्रक्रिया है
…पर मैं जो आपको बताने जा रहा हूँ …ये एक
“प्रेम साधना” है ।
ये ध्यान प्रातः 7 बजे के बाद नही करना है
…7 बजे से पहले ही कीजिये ।
सुखासन में बैठ जाइए…और प्रेम से अपनी
आँखें बन्द कर लीजिये…बन्द आँखों से
देखिये …
नीली यमुना जी बह रही हैं …उसमें कमल खिले
हुये हैं…भौरों का झुण्ड गुनगुना रहा
है…दृष्टि थोड़ा इधर उधर घुमाइए…ओह !
पास में ही एक कदम्ब का वृक्ष है …और उस
कदम्ब के तले एक नीले रंग का कृष्ण खड़ा है ।
उसमें अद्भुत सौंदर्य है …उस की
मुस्कुराहट में ही मादकता भरी हुयी है ।
आनंदित हो जाइए …चलिये नीचे यमुना जी बह
रही हैं …जाइये यमुना में …और अंजुली
में जल भर कर ले आइये । ले आये ?
…बहुत बढ़िया …अब इस जल से पखारिये
…इनके कोमल चरण …चरण पखारे ? बहुत
अच्छा …अब एक कमल तोड़ कर लाइए …और अपने प्यारे कृष्ण के चरणों में चढ़ा दीजिये ।
अब थोड़ी देर उनके चरणों का ध्यान कीजिये !
…कैसे सुंदर और लालिमा लिए हुये
…सुकोमल चरण हैं ।
इस तरह ध्यान कीजिये…नित्य ध्यान का अभ्यास
बनाइये …नाम जप और ध्यान से आपकी साधना
तुरन्त बढ़ेगी ।
आपका अन्तःकरण जैसा सोचेगा …वही हो जायेगा ।
देखना अगर एक महीना भी आपने इस ध्यान
का रसमय अभ्यास किया तो वह दिन दूर नही …जब वह यमुना जी और कदम्ब में झूल रहे वो कृष्ण तुम्हारे सामने आएंगे और तुम्हें गलबैयां डाल
कर बोलेंगे…कि बता कैसी है तू ! ये
प्रत्यक्ष होने लग जाता है।
कल गुरु पूर्णिमा के दिन शाम को मैं गया था
पागलबाबा के पास …तो गौरांगी और अन्य साधक
बैठे थे …बाबा के पेट में दर्द शुरू हो
गया …बाबा ने कहा …पता नही आज क्यों
दर्द हो रहा है ? …पास में एक बूढ़े वैद्य जी
रहते हैं …अच्छे अनुभवी हैं …बाबा के
प्रति श्रद्धा भी रखते हैं …उनको बुलाया गया
…वो आये मैंने ही वैद्य जी से कहा
…गुरुपूर्णिमा है कहकर बाबा ने व्रत रखा
है ..खाली पेट के चलते कहीं गैस, एसिडिटी
तो नही होगई ? …वैद्य जी ने ध्यान से
नाड़ी देखी …और उन्होंने तुरन्त कह दिया
…खाली पेट ? …इनका खाली पेट कहाँ हैं
…इन्होंने तो ज्यादा खा लिया है …इसलिए
इनका पेट दूख रहा है …और रोटी भी खाते
तो कोई बात नही थी …दूध का आइटम खाया है
इन्होंने । थोड़ी देर नाड़ी देखकर वैद्य जी
निश्चिन्तता से बोले …खीर ज्यादा खाली
इसलिए इनका पेट खराब हो गया है ।
गौरांगी ने मेरी ओर देखा …मैंने बाबा की ओर
देखते हुये कहा …बाबा चुपके चुपके खीर खाते
हो ? …बाबा बोले …भोग लगाया था युगलवर
को …श्री किशोरी जी और श्री लाल जू को
…और खीर ज्यादा ही थी …प्रसाद कैसे
फेंक दूँ ! इसलिए स्वयं ही खा गया …।
मैंने कहा …बाबा ! हद्द है …हमें ही दे देते
…खीर प्रसाद हम भी पा लेते …अकेले अकेले
खा गये ।
बाबा गम्भीरता में बोले …मैं कैसे तुम्हें
वो प्रसाद देता …वो तो मैंने ध्यान में खीर
बनाई थी …और भोग भी ध्यान में ही …और उस
खीर प्रसाद को ध्यान में ही तो खाया था ।
मैंने उन वैद्य जी से कहा …ये क्या हो सकता
है कि ध्यान में …मानसिक रूप से किये
गये चिंतन का असर शरीर पर भी पड़ता है ..?
वैद्य जी बोले …बिलकुल पड़ता है …। ध्यान
अगर गहरा हो जाए तो “ध्येय” भी प्रकट हो
जाता है …।
ध्यान अगर गहरा है तो उसका पूरा प्रभाव शरीर
पर दिखाई देता ही है …।
मैंने कहा …अब इनका पेट दर्द कैसे ठीक होगा ?
…वैद्य जी ने कहा …ठीक यही करेंगे ,
अपना ईलाज स्वयं करेंगे ।
बाबा ने कहा …हाँ मैं ठीक कर लूँगा
…और इतना बोलकर बाबा बाहर कुञ्जों में
आगये …। एकान्त खोज रहे बाबा को जब हम ने
देखा …तो वहीं से प्रणाम करके हम लोग
अपने घर की ओर आगये थे ।
थकान ज्यादा ही हो गयी थी …तो जल्दी ही सो गये ।
“लालही देखन मैं गयी, तो मैं हूँ ह्वै गई लाल”
Harisharan

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877