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November 22, 2024 9:27 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(6-3), श्रीमद्भगवद्गीता !, प्लीज़ ! कृपा करो अपने ऊपर !! & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (157) : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(6-3), श्रीमदभग्वद !, प्लीज़ ! कृपा करो अपने ऊपर !! & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (157) : नीरु आशरा

] Niru Ashra: 🙏🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 6️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#नतोहम्रामबल्लभां ……_
📙#श्रीतुलसीदास जी📙

#मैवैदेही !……………_

🙏🙏👇🏼🙏🙏

मैने सुनयना माँ से ये कहते सुना कि – महारानी ! बाणासुर तो मुझे अपना बड़ा भाई मानता है …………….मुझे गुरुभाई मानता है ………..इसलिये वो पिनाक उठानें की सोच भी नही सकता ………वो अवश्य मेरे कार्य में सहयोग करनें आरहा है ……..पर ये दशानन ! ये महादुष्ट है ………..चिन्ता मुझे यही है कि कहीं रावण पिनाक को तोड़नें के लिए आगे बढ़ा …….और उससे पिनाक टूट गया तो ? मेरी पुत्री राक्षस के यहाँ जायेगी !………..नही ।

तब मेरी माँ सुनयना नें मेरे पिता को समझाया था ………….अब ये बात पक्की हो गयी है कि पिनाक धनुष चिन्मय है ……….वह जड़ नही है ।

इसलिये रावण के हाथों ये स्वयं नही टूटेगा ………..आप देख लेना स्वामी ! मेरी माँ ने समझाया था ।

पर ये क्या रावण और बाणासुर तो दूसरे दिन ही आ धमके थे ।

मेरे पिता के चरण छूए बाणासुर नें ……..बड़े गुरुभाई कहकर …………….जय शंकर की ! अहंकार में भरा रावण यही बोला था मेरे पिता से ।

मेरे पिता ने भी जय शंकर! कहकर सम्मान किया था ……..अतिथि का सम्मान होना ही चाहिए …….. ..मेरे पिता का ये स्वभाव ही है ।

कोई सेवा बताओ गुरुभाई ! बड़े प्रेम से कहा …….बाणासुर नें मेरे पिता जी से कहा …………….पर रावण बोल उठा ………पिनाक कहाँ है ?

मेरे पिता चिंतित हो उठे ………….बताओ जनक ! कहाँ है पिनाक ! मै भी देखना चाहता हूँ उस धनुष को ………….रावण बोल रहा था ।

ले गए थे पिता जी रावण को उस पूजा स्थल में जहाँ पिनाक रखा था ।

पर ये कुछ दी देर बाद मुझे बुलानें के लिए सेविकाएं आयीं ………..आप चलिए राजकुमारी जी !

मेरी माँ सुनयना नें रोना शुरू कर दिया था …….उन्हें लगा रावण नें धनुष को तोड़ दिया ……….इसलिये अब प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे वर माला रावण को ही पहनानी होगी ।

आप जल्दी चलिए महाराज नें शीघ्र बुलाया है आपको ……..दासी नें फिर कहा ।

मेरी सखियाँ भी उदास हो गयीं थीं …………वो मुझे ले जानें के पक्ष में ही नही थीं ………..पर उस समय मुझे देवर्षि की बात का स्मरण हो आया कि पिनाक चिन्मय है ।

मै गयी अपनी अष्ट सखियों के साथ ………………ओह ! ये क्या ! धनुष में तो रावण की ऊँगली फंस गयी थी ……….पिनाक को उठानें के चक्कर में उठा तो नही पाया पर कुछ ही उठा था धनुष ….. फिर गिर गया था ………….तब रावण की ऊँगली फंस गयी थी ।

वो चिल्ला रहा था ……………..उसको असहनीय पीड़ा हो रही थी …………….

जैसे ही मै गयी ……………मै समझ गयी ……….मेरी सखियाँ तो मारे ख़ुशी के उछलना चाहती थी ……….पर मैने ही उन्हें रोक दिया ।

पुत्री सीता ! इस धनुष को उठा दो ……दशानन को बड़ा कष्ट हो रहा है …………..मैने पहली बार रावण को देखा ………..काला था ……..काजल की तरह काला …….पर शरीर उसका बलिष्ठ लग रहा था ……बड़ी बड़ी मूंछे थीं उसकी …….आँखें ऐसी थीं जैसे अंगार उगल रही हों …..लाल ।

मै गयी ………….रावण के पास ……………उसनें मुझे देखा था ……………मैने एक ही हाथ से उठा दिया पिनाक……………….रावण नें अपनी ऊँगली निकाल ली ……

काफी सहलाता रहा पहले तो अपनी ऊँगली ………फिर मेरी ओर देखा था …………….देख कर चौंक गया ।

भगवती ! हे माँ ! हे जगदम्ब ! पता नही क्या क्या बड़बड़ानें लगा था …………….मेरे पिता और मेरी सखियों नें सोचा ऊँगली की पीड़ा के कारण रावण ज्यादा बोल रहा है ……….वो बोलता रहा …………..

मेरे पिता जनक जी नें मेरी सखियों को इशारा किया ……….ले जाओ पुत्री सीता को …।

मै जब चली ………तब रावण पीछे से चिल्लाया ………….मेरा उद्धार नही करोगी भगवती ! तुम्हे मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा ………..आपको मेरी लंका में अपनें चरण रखनें ही पड़ेंगें …………इस रावण का उद्धार आपके ही द्वारा होगा …………….।

मै कल तक चिंतित था कि दशानन तेरा कल्याण कैसे होगा ? पर आज मुझे मेरे कल्याण का मार्ग मिल गया ………..

तुझे ही इस रावण का कल्याण करना है वैदेही !…………..ये कहते हुए अट्टहास किया था रावण नें ……..और वहाँ से चला गया ।

#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….


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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: श्रीसीतारामशरणम्मम

अध्याय 8 : श्रीमद्भगवद्गीता
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श्लोक 8 . 17
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सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु: |
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेSहोरात्रविदो जनाः || १७ ||

सहस्र – एक हजार; युग – युग; पर्यन्तम् – सहित; अहः – दिन; यत् – जो; ब्रह्मणः – ब्रह्मा का; विदुः – वे जानते हैं; रात्रिम् – रात्रि; युग – युग; सहस्त्रान्ताम् – इसी प्रकार एक हजार बाद समाप्त होने वाली; ते – वे; अहः-रात्र – दिन-रात; विदः – जानते हैं; जनाः – लोग |

भावार्थ
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मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है |

तात्पर्य
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भौतिक ब्रह्माण्ड की अवधि सीमित है | यह कल्पों के चक्र रूप में प्रकट होती है | यह कल्प ब्रह्मा का एक दिन है जिसमें चतुर्युग – सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि – के एक हजार चक्र होते हैं | सतयुग में सदाचार, ज्ञान तथा धर्म का बोलबाला रहता है और अज्ञान तथा पाप का एक तरह से नितान्त अभाव होता है | यह युग १७,२८,००० वर्षों तक चलता है | त्रेता युग में पापों का प्रारम्भ होता है और यह युग १२,९६,००० वर्षों तक चलता है | द्वापर युग में सदाचार तथा धर्म का ह्रास होता है और पाप बढ़ते हैं | यह युग ८,६४,००० वर्षों तक चलता है | सबसे अन्त में कलियुग (जिसे हम विगत ५ हजार वर्षों से भोग रहे हैं) आता है जिसमें कलह, अज्ञान, अधर्म तथा पाप का प्राधान्य रहता है और सदाचार का प्रायः लोप हो जाता है | यह युग ४,३२,००० वर्षों तक चलता है | इस युग में पाप यहाँ तक बढ़ जाते हैं कि इस युग के अन्त में भगवान् स्वयं कल्कि अवतार धारण करते हैं, असुरों का संहार करते हैं, भक्तों की रक्षा करते हैं और दुसरे सतयुग का शुभारम्भ होता है | इस तरह यह क्रिया निरन्तर चलति रहती है | ये चारों युग एक सहस्र चक्र कर लेने पर ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य होते हैं | इतने ही वर्षों की उनकी रात्रि होती है | ब्रह्मा के ये १०० वर्ष गणना के अनुसार पृथ्वी के ३१,१०,४०,००,००,००,००० वर्ष के तुल्य हैं | इन गणनाओं से ब्रह्मा की आयु अत्यन्त विचित्र तथा न समाप्त होने वाली लगती है, किन्तु नित्यता की दृष्टि से यह बिजली की चमक जैसी अल्प है | कारणार्णव में असंख्य ब्रह्मा अटलांटिक सागर में पानी के बुलबुलों के समान प्रकट होते और लोप होते रहते हैं | ब्रह्मा तथा उनकी सृष्टि भौतिक ब्रह्माण्ड के अंग हैं, फलस्वरूप निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं |

इस भौतिक ब्रह्माण्ड मे ब्रह्मा भी जन्म, जरा, रोग और मरण की क्रिया से अछूते नहीं हैं | किन्तु चूँकि ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करते हैं, इसीलिए वे भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा में लगे रहते हैं | फलस्वरूप उन्हें तुरन्त मुक्ति प्राप्त हो जाती है | यहाँ तक कि सिद्ध संन्यासियों को भी ब्रह्मलोक भेजा जाता है, जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वोच्च लोक है | किन्तु कालक्रम से ब्रह्मा तथा ब्रह्मलोक के सारे वासी प्रकृति के नियमानुसार मरणशील होते हैं |


[] Niru Ashra: !! प्लीज़ ! कृपा करो अपने ऊपर !!


मत करिए किसी पर कृपा ….अपने ऊपर तो करिये !

मत कीजिए किसी पर दया ….अपने ऊपर तो कीजिए !

कल क्या होगा तुम्हारा ? जिसके लिए मर रहे हो …चाहे वो बच्चे हों या पत्नी हो या पति या तुम्हारा घर , अथवा पैसा ! लगता है तुम्हें ये सब तुम्हारा साथ देंगे ? उस समय साथ देंगे जब तुम असहाय हो जाओगे ? तुम्हारा देह काम नही करेगा ? तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नही होगा ? और ये बात वृद्धावस्था की है ऐसा क्यों सोच रहे हो …ये स्थिति कभी भी आसकती है ….और आएगी ही …उस समय कौन होगा तुम्हारा ?

मैं यही तो कहना चाहता तुम सब से…..पर तुम मानते ही नहीं ..
ऐसे मत्त हो जैसे – तुम ऐसे ही रहोगे , सब कुछ ऐसे ही चलेगा ?


उस राजा को शौक़ था कविता करने का ….काल संस्कृत का था वो …इसलिए कवि लोग संस्कृत में ही काव्य रचना करते ….बड़े बड़े कवियों को वो राजा अपनी सभा में बुलाता था ….और बुलाकर काव्य गोष्ठी रखता …कविताएँ सुनता , उसे आनन्द आता था …अब तो उस पर भी ये कविता लिखने का भूत सवार हो गया …..जो स्वाभाविक है ….आप जिस वातावरण में रहोगे वही बनोगे …यही नियम है । वो राजा एक रात कविता लिखने बैठा …..किन्तु उससे लिखा नही गया ….दूसरी रात फिर उसने ख़राब की ….लेकिन आज उसे खुशी मिली क्यों की कविता का एक चरण उसने जैसे तैसे लिख दिया था….”चेतो हरा युवतयः सुहृदोनुकूला” ये कविता का प्रथम चरण था …उसने लिख दिया ….वो उस रात बहुत नाचा …..उसने कहा …वाह ! अपनी पीठ थपथपाई …..सुबह सभा लगी तो उसने अपने कवियों को ये प्रथम चरण सुनाया और कहा ..मेरी रचना है …..इसका अर्थ है – “मेरे चित्त को हरने वाली सुन्दर युवतियाँ मेरे पास हैं …और अनुकूल भी हैं” …चाटुकारों ने तालियाँ बजाईं …और कहा राजन्! अद्भुत कविता है …..वाह ! “चेतोहरा युवतयः सुहृदोनुकूला” । किन्तु राजन्! इस कविता का दूसरा चरण ? राजा ने कहा ….आज रात्रि में बनाऊँगा । तब सभासदों और कवियों ने कहा …हम सबको प्रतीक्षा रहेगी ।

राजा ने एक रात और खर्च की ….बड़ी उत्सुकता से उसने आगे का चरण बनाना शुरू किया ….पूरी रात बीत गयी ….चलो कविता का दूसरा चरण भी पूरा हुआ …..

“सद्वान्धवा: प्रणतिगर्भ गिरश्च भृत्या:”

लीजिए दूसरा चरण कविता का पूर्ण हुआ था ..इसका अर्थ था ….”मेरे अनेक प्रिय मित्र हैं , बन्धु बांधव भी मेरे हितैषी हैं ….और मेरे कई नौकर हैं जो सब विनम्र हैं” । राजा ने ये चरण भी दूसरे दिन अपनी सभा में सुना दी ….सबने करतल ध्वनि की …”साधु साधु” कहकर राजा को महिमामण्डित किया । अब बारी थी तीसरे चरण की ….उसमें भी कोई आपत्ति नही आयी ….राजा ने आज तीसरा चरण भी पूरा किया और दूसरे दिन सभा में उसे भी सुना दिया –

“गर्जन्ति दन्ति निवहाश्चपलास्तुरन्गा”…..”बहुत से हाथी हैं मेरे पास जो मेरे द्वार पर गर्जते रहते हैं ….और अत्यंत चंचल घोड़े हैं जिनकी कोई तुलना नहीं है”।

जो हर बार करते थे सभासदों आज भी वही किया …सबने तालियाँ बजाईं ….और कहा ..हे राजन्! अब चौथा, अंतिम चरण कविता का कल पूर्ण हो …राजा अहंकार में मुस्कुराया ….कल ये कविता पूरी होगी ही ।

किन्तु नही हो पाई , इसलिए राजा परेशान ….पूरी रात जागकर बिता दी थी उसने …क्या करें ! कुछ समझ में नही आरहा था …कविता पूरी नही हो पाई थी । राजा उस दिन सभा में नही आया ….मन्त्री से कहलवा दिया …कि स्वास्थ्य खराब है …इसलिए महाराज आज नही आयेंगे सभा में । ऐसे ही दिन बीतने लगे ….राजा ने सभा में जाना ही छोड़ दिया …क्यों की कविता पूरी नही हो पा रही थी अब लोग क्या कहेंगे ! कि धिक्कार है राजा से एक कविता पूरी नही हुई ।

जो अतिअहंकार से भरा होता है ….वो अत्यंत छुद्र बातों में भी अपने को दुःख के भँवर में डाल देता है …वही राजा के साथ हुआ । राजा दिन पर दिन दुर्बल होता गया ….दिन भर रात भर जाग जागकर वो कविता का अन्तिम चरण पूरा करना चाहता था किन्तु …………..

एक दिन …….मन्त्री एक वयोवृद्ध विद्वान को लेकर राजा के पास पहुँचा महाराज ! ये आपकी कविता पूरी कर देंगे …..इन्होंने मुझे कहा है …..राजा ने उस वृद्ध को देखा ..ऊपर से लेकर नीचे तक ….फटी धोती ..दुर्बल देह ….किन्तु तेज अद्भुत था मुखमण्डल में ।

राजा ने अपनी कविता दिखाई उन वृद्ध को ….प्रथम चरण …राजा बताने लगे – “चेतोहरा युवतयः सुहृदोनुकूला” ( मेरे पास अत्यन्त सुन्दर युवतियाँ हैं जो मेरे अनुकूल हैं ) दूसरा चरण राजा ने बताया ….”सद्वान्धवा:प्रणतिगर्भ गिरश्च भृत्या:” ( मेरे अनेक मित्र हैं जो प्रिय हैं और हितैषी भाई हैं मेरे अनेक नौकर भी हैं जो विनम्र हैं ) उस वृद्ध विद्वान ने कविता का तीसरा चरण पढ़ा ….”गर्जन्ति दन्ति निवहास्चपलास्तुरंगा : ( मेरे द्वार पर गर्जने वाले अनेक हाथी हैं और चंचल घोड़े हैं जिनकी कोई संख्या नही है )।

ये मेरे द्वारा बनाई हुई कविता है ….कैसी लगी ? राजा ने उन वृद्ध से पूछा ।

पर ये तो अधूरी है …..वृद्ध ने हंसते हुए कहा ….

आप कीजिए पूरी …..राजा ने अभी भी अहंकार में भरकर ही कहा था ।

वृद्ध ने राजा से कहा …लेखनी लाओ । राजा ने लेखनी दी …वृद्ध ने लेखनी चला दी और मुस्कुराते हुए वो चल दिये …..राजा ने देखा …क्या लिखा है …अन्तिम पंक्ति क्या लिखी है ….ओह ! जो लिखा था उसको पढ़ते ही राजा काँप गया ….एक झटके में ही उसका सारा अहंकार गिर गया ….वो भागा उन वृद्ध के पीछे ….किन्तु वो वृद्ध तो जा चुके थे ….राजा ने सब कुछ त्याग दिया राज पाठ ….त्यागना क्या था ….सहज छूट गया …और वो चला गया वन में ।

अन्तिम चरण था कविता का ….”सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति” ( अरे राजन्! नेत्र बन्द हो जाने पर यानि मृत्यु हो जाने पर ये सुन्दर युवती , भाई बन्धु , नौकर चाकर , हाथी घोड़े कुछ भी नही रहेगें )

राजा जा चुका था राज पाठ छोड़कर ….उसने सब कुछ त्याग दिया था ।


मैं हाथ जोड़ता हूँ …..अपने ऊपर कृपा करो ….मैं नही कहता कि सब कुछ छोड़कर चल दो …किन्तु मन से तो त्याग दो ….मन का त्याग ही सब कुछ है …मोह त्यागो ..ममता त्यागो ..आसक्ति त्यागो ….अहंकार त्यागो …और उसका अनुसंधान करो “जो सदैव है “रहेगा” मैं प्रार्थना करता हूँ आप लोगों से ….अपने ऊपर दया करो । कुछ नही रहेगा ..एक झटके में सब खतम है …..सब कुछ …फिर किसका अहंकार ? ये बात आपके समझ में आरही है ? आरही है तो आज से ही मन से त्याग आरम्भ कर दो …. प्लीज़ ! कृपा करो अपने ऊपर ।

[] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (157)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-2

अब जरा गोपियों पर एक दृष्टि डालें। गोपी के हृदय मे काम नहीं था। श्रीकृष्ण ने कहा कि ओ! मेरे हृदय के काम! तुम चलकर गोपियों के हृदय में बैठ जाओ और वे वासनावानों की तरह, कामनावालों की तरह, लालसावालों की तरह व्याकुल होकर मेरी ओर आवें। तो गोपियों का काम साधारण काम नहीं है- क्या कैसा काम है- इसकी एक-दो बात आपको सुनाते हैं। श्रीउड़िया बाबाजी महाराज कभी-कभी वर्णन करते थे कि काम में और प्रेम में बाल बराबर फर्क है। क्या फर्क है? कि जहाँ काम होता है वहाँ अपने प्रियतम के सुख में सुख नहीं। है, अपने सुख में सुख है। एक स्त्री ने समझो रात को सोते हुए अपने पति को जगाया, उठो!+

यह क्या हुआ कि अपने सुख में सुखी होना। गोपी के प्रेम में क्या विशेषता है? उद्धवजी ने कहा- अरी गोपियों, श्रीकृष्ण के विरह में तुमको बड़ा दुःख है, तुम हमें आज्ञा दो, हम तुम्हारे चरणों की धूलि अपने सिर में लगाकर आज ही मथुरा जाते हैं और श्रीकृष्ण को पकड़कर ले आते हैं। कैसे नहीं आवेंगे, हम उनके सखा हैं! गोपी ने कहा- उद्धवजी, यदि हम अपना दुःख दूर करने के लिए और अपने सुख के लिए उनको बुलाती होवें तो वे कभी नहीं आवें। स्यान्नः सौख्यं यदपि बलवद्गोष्ठमाप्ते मुकुन्दे यद्यल्पापि क्षतिरुदयते तस्य मागात्कदापि। उनके आने से हमको सुख होगा- यह हम मानती हैं लेकिन हमें सुख देने के लिए यदि उनको संकोच हो तो वे कभी न आवें; हम दुःख में प्राण दे सकती हैं, परन्तु अपने सुख के लिए हम प्रियतम् को यहाँ आने के लिए कभी जिद नहीं कर सकतीं।

जो सेवक साहिबहिं संकोची। निज सुख चहत ताहि मति पोची ।।

भरतजी क्या बोलते हैं- जो सेवक अपने स्वामी को संकोच मे डालकर सुख चाहता है उसकी बुद्धि छोटी है।
समुझहिं राम कुटिल करि मोहीं। लोग कहैं गुरु साहिब द्रोही ।।

चाहे राम मुझे कुटिल समझें, मुझे अपना प्रेमी न समझें और चाहे लोग भी कहें कि भरत रामचंद्रका, और गुरु का द्रोही है। परन्तु-

सीताराम चरन रति मोरे ।
अनुदिन बढ़ऊ अनुग्रह तोरे ।।

हमारे हृदय में आपके अनुग्रह से सीता-रामचंद्र का प्रेम बढ़े।। न हमें लोकप्रसिद्धि की आवश्यकता है, न रामचंद्र की स्वीकृति की आवश्यकता है, न हम उनको संकोच में डालना चाहते हैं, और न तो हम अपना सुख चाहते हैं; हम तो चाहते हैं बाबा उनको जैसे सुख हो वही हो! यद्यल्पापिक्षतिरुदयते तस्यामागात्कदापि- गोपी कहती हैं कि उनके आने से हमको मनोलाभ होता है लेकिन यहाँ आने से यदि उनको रत्तीभर भी हानि होती है तो वे यहाँ ने आयें; तुम नीके रहो, वहीं पर रहो।

नारायण, गोपियों के प्रेम की विशेषता यह है कि वे अपने सुख के लिए प्रेम नहीं करतीं, वे भगवान को सुख देने के लिए भगवान से प्रेम करती हैं। इसका नाम प्रेम है। तो बाल बराबर फर्क क्या है? अपने सुख से सुखी होना- इसका नाम काम है; अपने सुख और स्वार्थ के लिए चाहना इसका नाम काम है; और अपने प्रियतम के सुख लिए और उसके स्वार्थ के लिए उसको चाहना इसका नाम प्रेम है- महाराज राम पै जाऊँगो । सुख स्वारथ परिहरि करिहौं जेहि साहिबहि सुहाऊँगो ।। ‘सुख स्वारथ परिहरि’- सुख और स्वार्थ- तो मोक्षसुख भी, कामसुख भी, अर्थसुख भी, धर्मसुख भी, सुख और स्वार्थ दोनों छोड़कर ‘करिहौं सोई, जेहि साहिबहि सुहाऊँगी!’ प्रेम की रीति निराली है, भला! गोपियों के प्रेम है तत् सुखे सुखित्वम्। गोपियाँ क्या सुखी नहीं होती हैं?

जिस समय उद्धवजी आये, उस समय व्रज को देखकर यह नहीं मालूम पड़ा कि व्रज में कोई दुःख है! वैसे ही गायें तगड़ी, बछड़े छलांग भर रहे, वैसे गाँव में सफाई, सबके घर में भोजन, वैसे ही सबका स्वच्छ वस्त्र, कोई प्रोषितपति काकी तरह उदास गोपी नहीं मिली सारे व्रज में; और सबेरे जब उठे, तो घर-घर मणियों के दीपक प्रज्वलित हो रहे हैं, और कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण ध्वनि के साथ, दधि-मन्थन हो रहा है; मांगलिक शब्द हो रहा है।

उद्धवजी ने कहा- बात क्या है? बोले- इनके मन में यह है कि कहीं आज कृष्ण आ जायँ और देखें कि हमारी गैया दुबली हो गयीं, हमारा बछड़ा दुबला हो गया, हमारी गोपी के कपड़े मैले हैं, उसके शरीर पर श्रृंगार नहीं है, हमारे व्रज में झाड़ू नहीं लगी है, तो उनके कोमल चित्त में कितना दुःख होगा? इसलिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए, बाबा, शायद आज आ जायें, आवेंगे तो जरूर! ऐसा नहीं कि वे नहीं आवेंगे! आशाबन्धन नहीं टूटता! प्रेम का यह स्वभाव है कि उसमें आशाबन्धन नहीं टूटता। जरूर आवेंगे श्यामसुन्दर और हमको यदि दुर्दशा में देखेंगे तो उनको बड़ा कष्ट होगा। यह प्रीति की रीति है। दूसरी रीति देखो गोपी की! जैसे देखो, हमारे साधक लोग, भजन करने वाले, आकर हमसे प्रश्न करते हैं कि महाराज!

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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