Niru Ashra: “एक था पुरंजन, एक थी पुरंजनी”
भागवत की कहानी – 22
“साधकों ! इस कहानी को ध्यान से पढ़ना । इस कहानी के पात्र हम ही हैं , ये कहानी हमारी है”।
कहानी शुरू होती है यहाँ से …..
एक था पुरंजन । ये सदैव प्रसन्न रहता था …आनंदित रहता । क्यों ? इसलिए आनंदित रहता क्यों की इसका मित्र बड़ा ही हितैषी था …इसके हित के विषय में ही वो सोचता था ..और करता था ।
नाम क्या था उस मित्र का ?
अच्छा नाम ? वैसे नाम जानकर करोगे क्या ? इतना समझो , उसके अनन्त नाम थे …विश्व ब्रह्माण्ड में जितने नाम हैं , सारे नाम उसके ही थे , फिर भी वो नामों से परे था ।
पुरंजन अपने मित्र को “अविज्ञात” कहकर पुकारता था । तो इसका नाम समझ लो अविज्ञात ।
अविज्ञात सदैव साथ रहता था पुरंजन के …..पुरंजन को सम्भालता था ….पुरंजन भी अपने मित्र के साथ परम प्रसन्न था ……..किन्तु एक बार ये अपने मित्र अविज्ञात से दूर चला गया । दूर जाने की वजह ? पुरंजन अपने मित्र को महत्व नही देता था ….ज़्यादा साथ रहने की वजह से महत्व कम हो गया था अविज्ञात का । आकाश हमारे साथ है किन्तु क्या उसका महत्व हमारी दृष्टि में है ? वायु सदैव साथ है …वायु के बिना हम जी नही सकते किन्तु क्या उसका महत्व है ? अविज्ञात तो ये चाहता था कि पुरंजन उसके साथ ही रहे …दोनों कितने खुश थे …किन्तु अब महत्व कम हो रहा था पुरंजन की दृष्टि में अपने मित्र का ।
ये बात अविज्ञात के समझ में आगयी थी …..तो पुरंजन को अविज्ञात ने कहा ….ठीक है यार ! तुम्हें जो अच्छा लगे वही करो ….जाओ , किन्तु मुझे भूलना नही । ये कहकर अविज्ञात ने पुरंजन को विदा किया …सजल नेत्रों से अविज्ञात उसे जाते हुए देखता रहा था । अविज्ञात ने देखा उससे दूर जाते ही पुरंजन ने हाथों में धनुष ले लिया और उसमें बाण लगाकर वो शिकार खेलने के लिए तेजी से भागा था । अविज्ञात गम्भीर हो गया …..उसे दुःख है की पुरंजन मुझे छोड़कर चला गया है ।
इधर – पुरंजन आगे बढ़ता जा रहा था ….उसकी सोच में भी अब अविज्ञात नही है ….ओह ! कितनी जल्दी भुला बैठा था ये अपने सच्चे मित्र को ।
“वाह ! कितना सुन्दर नगर है ये”…….चलते चलते उसनें सामने एक सुन्दर सा नगर देखा , उस नगर के नौ द्वार थे यानि दरवाज़े उस नगर के नौ थे । उस नगर में जब पुरंजन ने प्रवेश किया तो एक बगीचा दिखाई दिया …..बगीचा बड़ा ही सुन्दर था ……उसमें नाना प्रकार के फूल लगे थे …..वो तो बगीचा देखकर ही मुग्ध हो गया था । कुछ देर के लिए पुरंजन वहाँ बैठा ही था कि सामने से उसे एक सुन्दर युवती आती हुई दिखाई दी ….युवती अति सुन्दर थी । वो प्रमत्त थी …अल्हड़ …उसके साथ उसके दस सेवक थे ….जो इसकी हर आज्ञा मानते थे । पुरंजन को आश्चर्य हुआ कि इन सबकी रक्षा करने के लिए एक सर्प इनके साथ चल रहा था …जिस सर्प के पाँच फन थे । वो सुन्दरी सोलह वर्ष की थी ….और बड़ी चंचला थी ….वो बार बार पुरंजन की ओर देखती , मुस्कुराती । पुरंजन ये सब देखकर बड़ा ही खुश हुआ था….उसे लगा ये तो मुझे प्रेम निमन्त्रण दे रही है …..वो पास में गया ….तो वो शरमाई ।
देवि ! तुम कौन हो ? तुम उर्वशी हो या तिलोत्तमा ? ये नगर तुम्हारा है ? और ये सेवक ? अपना कुछ तो परिचय दो । पुरंजन मुग्ध हो चुका था उस सुन्दरी पर ….वो आख़िर में बोला ही …तुम्हें देखकर मेरे मन में प्यार जाग रहा है …..मैं तुम्हें हृदय से लगाना चाहता हूँ क्या तुम भी यही चाहती हो ?
हे पुरुष श्रेष्ठ ! मुझे अपना नाम पता नही है ……गोत्र का भी कुछ पता नही । बात ये है कि संसार मान्यताओं से चल रहा है …लोगों ने जो मान लिया बस उसी के आधार पर चले जा रहे हैं ….सच बात ये है ….पुरंजनी नयन मटकाते हुये कहती है …..ये नगर किसने बनाया कोई नही जानता ……ये सेवक हैं मेरे दस ….और ये सर्प है जो मेरे इस नगर की रक्षा करता है ….ये भी कहाँ से आया मुझे पता नही । पुरंजनी कहती है ….धन्यवाद ! जो तुम मुझे चाहते हो …और मुझे ऐसे लोग अच्छे लगते हैं जो सीधे सीधे अपनी बात कह देते हैं …..कोई लाग लपेट नही । मुझे अच्छा लगा कि तुमने स्पष्ट कहा कि मेरे मन में प्यार जाग रहा है ….ये सुख है …ये प्यार जिसे सन्यासी-महात्मा लोग भले ही निन्दनीय कहें किन्तु इसका जो सुख है उसे वो क्या समझें ?
क्या मैं तुम्हारे इस नगर में रह सकता हूँ ? पुरंजन ने भी लगे हाथ अपनी बात कह दी ।
पुरंजनी का कहना था ….हाँ , हाँ अवश्य ! एक ही बार में पुरंजनी मान गयी थी ….वो आगे कहती है …..स्त्री और पुरुष इन दो में ही सुख है ….कुछ मत सोचो परलोक के विषय में …बस अपना सुख भोगो और आनन्द लो । पुरंजनी ने स्वयं ही आगे बढ़कर पुरंजन को हृदय से लगाया …पुरंजन को और चाहिए था क्या ? ये बड़ा खुश हुआ और पुरंजनी के साथ उसी के नगर में रहने लगा था ।
अब तो दोनों भोग करते …उन्मत्त होकर विहार करते …..
ये कभी कभी भोग से विरत होने लगता तो पुरंजनी इसे कहती ….परमसुख तो भोग में ही है …वासना को भले ही ये सन्यासी लोग गलत कहें …लेकिन सही बात ये है कि बिना भोग विलासिता के तुम्हें संतुष्टि नही मिलेगी ….आओ ! मुझे आलिंगन करो …मुझे प्यार करो …मत सोचो कुछ भी ….मेरे साथ खेलो । पुरंजन को ये उकसाती ….पुरंजन उसकी मीठी मीठी बातों में आजाता ….और एक प्रकार से दास ही बनता जा रहा था ये पुरंजन ।
कई वर्षों तक ये भोग में रत रहा …..न दिन देखा न रात ….पुरंजनी के दस सेवक थे वो पुरंजनी की ही बात मानते थे …और पुरंजन को भी बात मानने को कहते ।
एक दिन पुरंजन बोर हो गया तो वो अकेले ही बिना पुरंजनी को बताये शिकार खेलने चला गया ….शाम को शिकार करके आया ….शिकार ही नही किया था इसनें , मदिरा का सेवन भी किया था । ये आया ….तो पुरंजनी के दस सेवक उसे घूर रहे थे ….वो उनको घूरते देखकर घबड़ाया ….मदिरा के अत्यधिक सेवन से वो गिर भी गया था …पर सेवकों ने उसे कोई सहारा नही दिया …उसने महल में जाकर देखा वहाँ पुरंजनी नही है ….उसने सारे महल देख लिए किन्तु पुरंजनी कहीं नहीं है ….ये देखकर वो दुखी हो गया । उसने सेवकों से पूछा …तुम्हारी स्वामिनी कहाँ हैं ? सेवकों ने रूखे स्वर कहा …”कोप भवन” में । अब तो ये डरते हुये जब वहाँ जाने लगा तो सेवकों ने कहा …डरो मत …स्नान आदि करके जाओ ….शिकार के रक्त से तुम रंगे हो …और मदिरा की दुर्गन्ध भी । धन्यवाद कहता हुआ पुरंजन सरोवर में गया , नहाया …फिर हाथों में फूल लेकर वो अपनी पुरंजनी के पास गया …..वो तो बहुत नाराज़ थी । अब जाते ही पहले तो पुरंजन साष्टांग लेट गया …फिर उठकर पुरंजनी के पाँव दवाने लगा । गलती हो गयी …देवि ! मुझे मारो …मारो मुझे …मैं तुम्हें बिना बताये चला गया …अपराधी हूँ मैं …मेरा दण्ड यही है कि अपने कोमल हाथों से मुझे थप्पड़ मारो …..अपने दाँतों से मुझे काटो …मेरे ऊपर अपने चरण का प्रहार करो ….किन्तु रूठो मत मेरी प्यारी । इस तरह दो दिन लगे पुरंजन को , पुरंजनी मनाने में । अब तो पुरंजन अकेले कहीं जाने की सोच भी नही सकता था …..ये रूठना ही तो पुरंजनी का वशीकरण अस्त्र था । पुरंजन अब पूर्ण रूप से पुरंजनी का गुलाम हो गया था ।
इधर – अविज्ञात अकेले बैठा है ….उसे अपने मित्र पुरंजन की याद आरही है ….वो ये भी समझ रहा है कि पुरंजन को मेरी याद नही आरही होगी ….इसी बात का तो इसको दुःख है….क्यों , कहाँ फँसा जाकर वो पुरंजन । यहाँ कितना अच्छा था …हम दोनों कितने प्रेम से रहते थे …किन्तु वो । अविज्ञात को बहुत याद आरही है पुरंजन कि । अविज्ञात उठा वो अपने मित्र को खोजने चल पड़ा ..जिस दिशा की ओर गया था उसका मित्र उधर ही अविज्ञात चल पड़ा था । उस नगर के बाहर पहुँचा ….जिस नगर में इसका मित्र रह रहा था । कितना प्रेम करता है ये अविज्ञात अपने सखा से …सखा ने तो इसे भुला दिया …पर ये नही भुला पाया था ….अब नगर में दृष्टि रखे हुये है अविज्ञात ।
सौ बरस से भी ज़्यादा हो गए हैं …..पुरंजन अब वृद्ध हो चला है ….तभी नगर को जीर्ण शीर्ण होते शत्रुओं ने देखा तो आक्रमण कर दिया । पहले तो जरा नामक एक स्त्री आयी ….वो अपने साथ मय असुर को लेकर आयी थी उसके साथ सेना भी थी …इन सबने नगर पर आक्रमण कर दिया । दस सेवक बेचारे कुछ देर ही लड़ सके , पाँच फन वाला सर्प भी कितनी देर तक टिकता ….सब हार गये थे ….अविज्ञात देख रहा है …..वो प्रसन्न है …वो सोच रहा है …चलो , अब तो पुरंजन मुझे याद करेगा …अब तो आएगा मेरे पास ….किन्तु जब अविज्ञात ने देखा कि अभी भी पुरंजन के स्मरण में वो नही है …पुरंजनी ही है ….अविज्ञात को और दुःख हुआ । आक्रमण से नगर टूट गया था तो पुरंजन को वहाँ से निकलना पड़ा ….पुरंजनी का चिंतन नगर छोड़ते समय इसका प्रगाढ़ हो गया था …इसलिए तो पुरंजन का दूसरा जन्म स्त्री देह में ही हुआ । ये स्त्री बना । इसका मित्र इसे देख रहा है …कैसे इसने सब कुछ मान लिया था ….इसने मान लिया था कि मैं स्त्री हूँ …..अविज्ञात हँसता है ….कैसे कोई असत्य को सत्य मान सकता है । स्त्री बना पुरंजन राजकुमारी है …उसका विवाह एक राजा से हुआ है …वो राजा मर गया ….अभी तो विवाह हुआ ही था ….तो क्या हुआ काल किसी की प्रतीक्षा तो करता नही ….बालपने में मृत्यु आजाये , हो सकता है युवावस्था में ही आजाये । स्त्री बना पुरंजन विधवा हो गया है ।
अविज्ञात सखा सोच रहा है ……कि अब तो मुझे याद कर ले ……किन्तु उसे कुछ याद नही है ….स्त्री बना पुरंजन बस रो रहा है ….अब वो सती होने को तैयार है । अविज्ञात देखता है …अब इससे रहा नही जाता …ये दौड़ पड़ता है ..और जाकर स्त्री बने पुरंजन को झकझोरता है ।
तुम कौन हो ? स्त्री बने पुरंजन ने पूछा ।
अविज्ञात उत्तर देता है ….तुम्हारा सनातन सखा ।
मेरा कोई सखा नही है ….मेरे जो थे ये मेरे पति थे अब मर गए हैं ….मेरा धर्म यही है कि मैं अपने पति के साथ सती हो जाऊँ । स्त्री बने पुरंजन ने अविज्ञात को कहा ।
किन्तु पिछले जन्म में तुम्हारी पत्नी मरी थी तब तो तुम उसके साथ सता नही हुए ? अविज्ञात ने ये बात हंसते हुये कही ।
पिछले जन्म में ?
हाँ , पिछले जन्म में ….तुम पुरुष थे ….पुरंजन , तुम्हारी पत्नी थी पुरंजनी ….तुम दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे …..अविज्ञात ने बताया ।
स्तब्ध सा स्त्री बना पुरंजन कहता है …पिछले जन्म में मैं पुरुष था इस जन्म में स्त्री ! फिर ये चक्र कब तक चलता रहेगा ? अविज्ञात कहता है …जब तक तुम ये चक्र चलाना चाहो । तो मैं कौन हूँ ? जीव …अविज्ञात ने कहा । तुम कौन हो ? मैं तुम्हारा सनातन सखा ….ब्रह्म ।
मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ?
आत्मा …..अविज्ञात ने स्पष्ट किया ।
तो जीव कहाँ फँसता है ?
बुद्धि चातुर्य में ।
अविज्ञात ने आगे कहा …पुरंजनी बुद्धि है …पुरंजन जीव बुद्धि के आकर्षण में फंस गया ।
नगर क्या है ? अविज्ञात ने कहा …ये शरीर ही नगर है ।
स्त्री बने पुरंजन को अब कुछ कुछ स्मरण आ रहा है ……वो दस सेवक कौन थे पुरंजनी के ?
दस इंद्रियाँ ……पाँच ज्ञानेंद्रियाँ पाँच कर्मेंद्रियाँ । ये बुद्धि के सेवक हैं । कुछ सोचकर स्त्री बना पुरंजन पूछता है ….वो पाँच फन वाला सर्प ? पाँच प्राण …जो इस देह रूपी नगर को सम्भाले हुये हैं । तुम्हें याद होगा पाँच फन वाला सर्प जैसे ही नगर छोड़ता है नगर ध्वस्त हो जाता है …अविज्ञात समझा रहे हैं । फिर मैं जीव ये स्त्री क्यों बना ? तुमने अपने को पुरुष और स्त्री मान लिया था …इसलिए । क्यों माना मैंने अपने को पुरुष स्त्री ? अविज्ञात कहता है …क्यों कि तुम मुझे भूल गये…मुझे स्मरण रखते तो सखा ! तुम कभी इन मिथ्यात्व में नही फँसते …तुम फँसे तब हो जब तुमने मुझे भुला दिया है । ये बात सजल नेत्रों से अविज्ञात ने कही थी ..स्त्री बने पुरंजन को अब सब याद आगया उसने दौड़कर अपने सच्चे मित्र अविज्ञात को हृदय से लगा लिया था ..मिथ्या देह स्त्री पुरुष ये सब यहीं रह गया ..और ये दोनों मित्र साथ होकर आनन्द से फिर विहार करने लगे ..अब दोनों ही प्रसन्न थे ..पुरंजन तो आनन्द की सरिता में अवगाहन कर रहा था ।
ये कहानी तुम्हारी हमारी है …..हम भी अपने सच्चे मित्र ईश्वर को भूल गये और स्त्री पुरुष बनकर दुःख सुख भोग रहे हैं ….ये बात आपकी समझ में आती है ?
] 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣8️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#प्रथमबरातलगनतेंआई …….
📙( #रामचरितमानस )📙
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मै वैदेही ! …………….
सम्पूर्ण जनकपुर एक नगर के समान नही…..एक सुन्दरी नारी के समान सर्वाभरण भूषिता, आपाद मस्तक अलंकृता स्वागत में प्रस्तुत थी ।
बरात जनकपुर आयी ……….मुझे मेरी सखियों नें ये सूचना दी थी ।
सात दिन लगे अवध से जनकपुर आनें में बरात को ।
बहुत अच्छे हैं चक्रवर्ती सम्राट ! दूत बता रहा था मेरे पिता जी को ।
बहुत उदार शिरोमणि हैं महाराज ………..यथा राजा तथा प्रजा ।
अब राजा ऐसे हैं तो प्रजा में भी तो वो उदारता आएगी ही ना !
वह दूत बता रहा था पिता जी को ………….मुझे महाराज अवधेश नें अपनें गले का हार क्या दिया ……….अवध की प्रजा तो मुझे रत्नाभरण से भूषित करनें के लिये तत्पर हो गयी ।
पर महाराज ! मैने कुछ स्वीकार नही किया …….दूत नें सिर झुकाकर कहा ………..।
मेरे पिता जी बोले थे …….क्यों ? बड़े लोग कुछ उपहार दें तो लेलेना चाहिए ना !
महाराज ! कैसी बात कह रहे हैं …………..हमारे यहाँ बेटी के घर का जल तक ग्रहण नही करते ……..ये हमारी मैथिली संस्कृति है ……….कैसे हम भूल सकते हैं ………..वो दूत भावुक हो गया था ……….
महाराज ! सिया जू केवल आपकी पुत्री नही है ………..सिया जू तो जनकपुर के हर व्यक्ति की लाड़ली है ………बेटी है ……..जनकपुर का हर व्यक्ति आज ये सोच रहा है कि मेरी ही बेटी का विवाह है ……….किसी राजकुमारी का नही ।
बरात आगयी है महाराज !
……….अंत में दूत नें इतना कहकर मौन साध लिया ।
मेरे पिता अपनें परिवार के और राज्य के गणमान्य व्यक्तियों के साथ पहुँचें बरात का स्वागत करनें …………….
गुरुदेव वशिष्ठ जी के चरणों में साष्टांग वन्दन किया था विदेहराज नें ।
चक्रवर्ती महाराज अवधेश नें विदेहराज को पकड़ कर अपनें हृदय से लगा लिया था ………..अनेकों हाथी अनेकों घोड़े ……रथ …….इत्यादि की भरमार थी ……….गाजे बाजे बज रहे थे ………..रूपसी नारियाँ नृत्य करती हुयी चल रही थीं …………..।
चक्रवर्ती नरेश दशरथ जी चकित थे ………….जनकपुर के दर्शन करके ।
जनवासे में महाराज चक्रवर्ती नरेश को लेकर गए विदेहराज ।
एक घटना मेरी सखी चारुशीला नें मुझे सुनाई थी ……….
जब बरात आयी ……….तो सबका स्वागत किया गया ……..
और सबके लिये वाहन की व्यवस्था भी थी …………पर कुछ अवध वासी थे ……जो बोले …….हम पैदल जायेंगें ……..।
सात दिन से रथ में, घोड़े में बैठ बैठ कर ………हम थक गए हैं ……इसलिये पैदल कुछ दूर तक हम चलेंगें ।
“चारुशीला” मेरी सखी है …………मेरी अष्टसखियों में ये चारुशीला भी एक है ……..इसकी विशेषता ये थी …….कि बिना कहे ही मेरे मन की रूचि ये जान लेती थी ।
वही मुझे आज ये सब बता रही थी ………….
सिया जू ! हमारे जनकपुर का डोम नही है !
हाँ , है तो !
बस उसका घर देख लिया इन अयोध्या वासियों नें ………..
एक नें कहा …………कितना सुन्दर सजा हुआ है ये घर ………हमें तो लगता है …..हमारे ठहरनें की व्यवस्था यहीं है ………..बराती यहीं रुके हैं शायद ……….।
सब लोग , जो जो पैदल चल रहे थे ……वो सब लोग ……..घुस गए उस डोम के घर में ……….।
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (23)
🕉🙇♀👏मोरी अँखिया हरी दर्शन की प्यासी
केसर तिलक मोतीयन की माला, ब्रिन्दावन को वासी
केसर तिलक मोतीयन की माला, ब्रिन्दावन को वासी
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी |
देखियो चाहत कमल नैन को, निसदिन रहेत उदासी |
आये उधो फिरी गए आँगन, दारी गए गर फँसी |
केसर तिलक मोतीयन की माला, ब्रिन्दावन को वासी |
काहू के मन की कोवु न जाने, लोगन के मन हासी |
सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस बिन, लेहो करवट कासी |
नरसी भक्त पुत्र शामलदास को सुयोग्य वर मान रिश्ता किया
भक्तराज नरसी की शुद्ध एवं पवित्र बाते सुकर दीक्षितजी प्रसन्न होकर बोले – भक्त शिरोमणि ! लक्ष्मी तो चंचला ;वह कभी आती है और कभी चली जाती है । जो मनुष्य आज अतुल धन का स्वामी है, कल वही रास्ते पर भीख माँगते हुए देखा जाता हैं । इसलिए महात्मा लोग द्रव्यवान को सच्चा धनवान नहीं मानते ।
कबीर दास जी कहते है – कबिरा सब जग निर्धना ,धनवंता नहिं कोई ।
धनवंता सोई जानिये रामधनी जो होई।।
‘ इस संसार में सब निर्धन ही है, कोई धनवान नहीं है । धनवान तो उसे ही जानना चाहिए जिसके पास ही वह सच्चा रामधन हो ।’ भक्तराज ! केवल आपके पास ही वह सच्चा रामधन है ,यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ । अतः आप मुझे भ्रम में न डालिए और अपने पुत्र को मुझे दिखाईये ।’दीक्षित जी ने सच्चे धन की व्याख्या करते हुए कहा ।
मेहता जी ने शामलदास को बुलाया । परमात्मा की कृपा से दीक्षित जी को शामलदास जी का मुखमण्डल चन्द्रमा के समान सुकान्तियुक्त दिखाई पड़ा । उसकी अलौकिक तेजस्वी मूर्ति को देखकर वह अत्यंत प्रसन्न हुए । उन्होंने सामुद्रिक विधा के अनुसार शामलदास में अनेक शुभ लक्षण देखे । उन्होंने तुरंत शामलदास के हाथ में श्रीफल तथा स्वर्गमुद्रा देकर ललाट पर तिलक कर दिया । फिर प्रसन्नता के साथ वह बोले -‘ भक्त राज ! मदन राय की पुत्री जूठीबाई के साथ आज मैं शामलदास का सम्बनध करता हूँ ।
जैसी परमात्मा की इच्छा कहकर भक्त राज ने अपनी निर्लिप्तता प्रकट की । इतने में ही माणिकबाई भी वहाँ पहुँच गयी । पुत्र का सम्बनध हो जाने की बात जानकर माता का हर्दय कितना पुलकित हुआ, इसे कौन कह सकता है । इस निर्धनता में भी अपने इस सौभाग्य की बात सोचकर आनंद के मारे उसके नेत्र गीले हो गये ।
दूसरे दिन दीक्षित जी बड़नगर के लिए विदा हो गये ,उन्होंने बड़नगर पहुँच कर अपने यजमान के सामने नरसिंह राम की अपूर्व भक्ति, सज्जनता सच्चाई आदि सत्य स्तय बखान कर बता दी । शामलदास के रूप, शील और सुलक्षण का वर्णन करते हुए जूठीबाई के सौभाग्य के लिए उसे बधाई दी । मदन राय का सारा परिवार उनके वर्णन को सुनकर बड़ा आन्न्दित हुआ । नरसिंह राम की निर्धनता पर मदन राय ने बड़े उत्साह के साथ कहा कि – *”जब कुल – शीलादि में वह सब तरह से योग्य है तो फिर धन की कोई चिंता नहीं, वो तो आता और जाता रहता है । भगवान की मैहर होनी चाहिए । भगवान ने हमे भरपूर दिया है ; सात-आठ लाख की सम्पत्ति से एकाध लाख भी उन्हें दे देने से हमे कुछ फर्क नही होगा। उनका कष्ट दूर हो जायगा । बेटी को सारे जीवन ही देना है यह अपना भाग्य लेकर आई है ।
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।।
[हे उद्धव! जिस प्रकार मेरे प्रति वढ़ी हुई भक्ति मुझे वश में कर सकती है, उस प्रकार अष्टांगयो, सांख्य-शास्त्रों का अध्ययन, धर्म, स्वाध्याय तथा तप आदि क्रिया मुझे वश करने में समर्थ नहीं हो सकतीं।]
[श्रीमद्भा. 11/14/20]
क्रमशः ………………!
जय जय
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 25
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यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः |
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् || २५ |
यान्ति – जाते हैं; देव-व्रताः – देवताओं के उपासक; देवान् – देवताओं के पास; पितृृन् – पितरों के पास; यान्ति – जाते हैं; पितृ-व्रताः – पितरों के उपासक; भूतानि – भूत-प्रेतों के पास; यान्ति – जाते हैं; भूत-इज्याः – भूत-प्रेतों के उपासक; यान्ति – जाते हैं; मत् – मेरे; याजिनः – भक्तगण; अपि – लेकिन; माम् – मेरे पास |
भावार्थ
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जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं |
तात्पर्य
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यदि कोई चन्द्रमा, सूर्य या अन्य लोक को जाना चाहता है तो वह अपने गन्तव्य को बताये गये विशिष्ट वैदिक नियमों का पालन करके प्राप्त कर सकता है | इनका विशद वर्णन वेदों के कर्मकाण्ड अंश दर्शपौर्णमासी में हुआ हा, जिसमें विभिन्न लोकों में स्थित देवताओं के लिए विशिष्ट पूजा का विधान है | इसी प्रकार विशिष्ट यज्ञ करके पितृलोक प्राप्त किया जा सकता है | पिशाच पूजा को काला जादू कहते हैं | अनेक लोग इस काले जादू का अभ्यास करते हैं और सोचते हैं कि यह अध्यात्म है, किन्तु ऐसे कार्यकलाप नितान्त भौतिकतावादी हैं | इसी तरह शुद्धभक्त केवल भगवान् की पूजा करके निस्सन्देह वैकुण्ठलोक तथा कृष्णलोक की प्राप्ति करता है | इस श्लोक के माध्यम से यह समझना सुगम है कि जब देवताओं की पूजा करके कोई स्वर्ग प्राप्त कर सकता है, तो फिर शुद्धभक्त कृष्ण या विष्णु के लोक क्यों नहीं प्राप्त कर सकता? दुर्भाग्यवश अनेक लोगों को कृष्ण तथा विष्णु के दिव्यलोकों की सूचना नहीं है, अतः न जानने के कारण वे नीचे गिर जाते हैं | यहाँ तक निर्विशेषवादी भी ब्रह्मज्योति से नीचे गिरते हैं | इसीलिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन इस दिव्य सूचना को समूचे मानव समाज में वितरित करता है कि केवल हरे कृष्ण मन्त्र के जाप से ही मनुष्य सिद्ध हो सकता है और भगवद्धाम को वापस जा सकता है |


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