Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत - 38
“लीलामय किशोर की झाँकी”
अधीर-विम्वाधर-विभ्रमेण हर्षाद्र-वेणु-स्वर-सम्पदा च ।
अनेन केनापि मनोहरेण हा हन्त हा हन्त मनो दुनोषि ॥३६॥
हे साधकों ! यही है प्रेम मार्ग की साधना और साध्य । प्रियतम से मिलने की बेचैनी सबको चाहिए ….फिर जब प्रियतम मिल जाता है तो बेचैनी और बढ़ जाती है…यही “दिने दिने नवं नवं “ है इस प्रेम मार्ग में । हर दिन नया नया …नही नही हर पल नया नया ….किस पल में क्या हो जाएगा कोई नही जानता , अभी अभी प्रियतम की बाहों में पड़े हैं किन्तु कोई पता नही कब कौन सी बात होगी और प्रियतम रूठ जायेंगे । यहाँ आपको पल पल क्षण क्षण में नवीनता मिलेगी ..कब तुम रोने लगोगे और कब रोते रोते हंसने लगो ये सिर्फ़ तुम्हारा प्रियवर ही जानता है ।
रस राज्य की बिल्वमंगल की यात्रा अद्भुत से भी अद्भुत है …..क्यों कि यहाँ प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ नया घट ही रहा है …..एक क्षण को भी शान्ति नही है । ये मार्ग वैसे भी शान्ति का नही है …ये मार्ग तो रस का है ….रस में कहाँ शान्ति है ….वहाँ तो उछाल है , उन्मत्तता है ….कुछ पागलपन भी है …ये प्रेम है ….प्रेम में पागलपन तो होगा ही ना ।
अब आइये इस रस राज्य में ……..बिल्वमंगल उन्मत्त होकर इस रस क्षेत्र में भ्रमण कर रहे हैं …वो ‘रस राज’ कभी प्रकट होता है तो कभी अन्तर्ध्यान । बिल्वमंगल कभी रोते हैं कभी हंसते हैं …कभी गम्भीर होकर वृक्षों में लताओं में अन्वेषण करते हैं कि ….वो यही कहीं होगा ?
आज का दिन तो बिल्वमंगल के लिए परम शुभ रहा …..क्यों कि कल पैंतीसवें श्लोक में जहां बिल्वमंगल श्याम सुन्दर को देखकर आलिंगन की बात कह रहे थे किन्तु श्याम सुन्दर वहाँ से चले जाते हैं ….तब बिल्वमंगल बहुत रोते हैं ….विरह के दर्द को वो सहते हैं और कराहते हैं …..किसी तरह पूरी रात बिल्व मंगल बिताते हैं …..फिर जब सुबह की वेला होती है ….पक्षी कलरव कर रहे होते हैं …मोर इधर उधर घूम रहे होते हैं ….कमल आदि के पुष्पों से रस राज्य महक रहा होता है ….तभी ….बिल्वमंगल सामने देखते हैं कि … .एक नीला प्रकाश बिन्दु जितना कुछ दिखाई देता है …बिल्वमंगल पास में जाते हैं …तो वो देखते हैं वो नीला बिन्दु बड़ा होता जा रहा है …उसमें से आकार बन रहा है …..बिल्व मंगल ये सब देख रहे हैं , उनका हृदय आनन्द की धारा में बह रहा है …..त्रिभंगी बन गया है अब वो नीलमणि ……मुस्कुराहट उसकी मादक है और मारक भी है …..बिल्वमंगल देख रहे हैं ….प्रसन्नता के साथ वो किशोर मुस्कुरा रहा है ….उसकी मुस्कुराहट से रस राज्य के जितने पुष्प है वो सब खिल गये हैं …..उसमें भँवरे जा रहे थे लेकिन कमल को छोड़कर वो सब इस किशोर के मुख कमल में मँडराने लगते हैं ……बिल्वमंगल देख रहे हैं ….आहा ! बाँसुरी उस लीलामय किशोर ने अपनी फेंट से निकाल ली है …..इस किशोर के बाँसुरी निकालते ही मानों सम्पूर्ण अस्तित्व में ही आनन्द छा गया । बाँसुरी को अपने अरुण अधर में रखते ही पूरा वन प्रान्त झूम उठा था …शीतल मन्द सुगन्ध समीर चल पड़ी थी …उस समीर के कारण घुंघराले केश उस किशोर के उड़ रहे थे ….जिसके कारण उसकी सुन्दरता और बढ़ गयी थी । बिल्वमंगल देख रहे हैं ….अधीर अधर हैं इस किशोर के तो ! चंचल हैं पतले पतले अधर !
हाय ! मैं क्या करूँ अब ? इसने तो मेरे मन को पहले से ज़्यादा क्षुब्ध कर दिया …पहले ही ठीक था ….पहले मन मुग्ध ही तो था , बाद में लुब्ध हो गया ….कोई बात नही ….बिल्व मंगल कहते हैं ….लेकिन अब तो क्षुब्ध भी हो गया है …हाय हाय ! ये स्थिति मैंने आज तक न देखी थी न जानी थी ….इनके अधरों को देखकर तो ऐसा लगता है …धैर्य इनसे हार गया है …अब तो ये अधर अधैर्य को अपना चुके हैं …तभी तो कैसे चपल हैं देखो तो । बिल्वमंगल कुछ देर देहभान खो बैठते हैं ….उनको स्व का कोई भान नही रहता …..कुछ देर बाद जब उन्हें अपना भान होता है तब वो कहने लगते हैं ……इन अधरों के विलास से मेरे मन को हे लीलामय किशोर! क्यों जला रहे हो ? बस ये सुनते ही वो सुन्दरवर किशोर तो हंसने लगे ……हंसी अत्यन्त मोहक थी …..बिल्वमंगल कुछ देर तो हास्य से भरे उस कमल सदृश आनन को देखते रहे …लेकिन उस नव किशोर ने बिल्वमंगल से इतना अवश्य पूछा ….बिल्वमंगल ! दर्शन न दूँ तो तेरा मन जलता है और अब दर्शन दे रहा हूँ तब भी मन जल रहा है , क्यों ?
बिल्वमंगल सहज बोले …..तुम मन को मारने वाले हो किशोर ! तुम्हारे कारण मन मरता है …वो चाहे दर्शन देकर हो या छुपकर ….दोनों ही अवस्थाओं में पिसता बेचारा मन ही है …फिर एकाएक बिल्वमंगल हंसने लगते हैं ..हे लीलामय किशोर ! विचित्र बात है ना ! देखती आँखें हैं और मरता बेचारा मन है …..ये कहते हुये उन नव किशोर के आगे बिल्वमंगल साष्टांग लेट गये थे ।
अद्भुत पथ है प्रेम को , न्याय करत सब कोय ।
नैंनन सों नैंना मिलें , घाव करेजे होय ।।
ये रस राज्य है ही ऐसा ………..
क्रमशः….
Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत - 39
“संयोग में वियोग – प्रेम वैचित्र्य”
यावन्न मे निखिलमर्मदृढाभिघात , निःसन्धिबन्धनमुदेत्य सवोपताप: ।
तावद्विभो भवतु तावक वक्त्र चन्द्र- चन्द्रातपद्विगुणिता मम चित्त धारा ॥३७।।
हे साधकों ! ये प्रेम एक अबूझ पहेली है ….जो समझता है वो समझा नही है , और जो नही समझा वही इस प्रेम की पहेली को हल कर जाता है । आप उस स्थिति का अनुमान भी लगा सकते हैं ? जब प्रियतम सामने हों …हम उन्हें निहार रहे हों तभी मन में आए कि – अरे ! ये तो अब चले जाएँगे तब हमारा क्या होगा ? ये विरह दे जायेंगे , अभी जो आनन्द आरहा है वो आनन्द तो चला ही जायेगा और तुरन्त महामृत्यु के समान कष्टप्रद काल आजाएगा उसे हम कैसे काटेंगे ?
इस स्थिति का अनुमान आपको होगा ? उस स्थिति का कि – प्रियतम अभी आए ही हैं और वर्षों बाद आए हैं ….उनके हृदय से हम लग रहे हैं ….तभी हमारा रुदन आरम्भ हो जाये …..हम हिलकियों से रोने लग जायें …..प्रियतम पूछें कि क्या हुआ ? तब वो प्रेमी कहे …तुम चले जाओगे ….तुम हमें छोड़कर फिर जाओगे ! प्रियतम कहता है ….किन्तु अभी तो मैं चार दिन हूँ ना ! ओह ! तुम चार दिन बाद चले जाओगे ? बस …..विरह व्याप गया । ये स्थिति प्रेमियों की है …..इस स्थिति में मन के जन्मों जन्मों के पाप-पुण्य सब जल जाते हैं ….नही नही , मन के संस्कार ही नही जलते …..मन ही जल जाता है ।
अब आज देखिए क्या हो रहा है रस राज्य में ……कल हमने दर्शन किया कि …बिल्वमंगल के सामने नव किशोर बाँसुरी वादन करते हुए खड़े हैं …..बिल्वमंगल उस झाँकी का दर्शन करते हुए मुग्ध हैं …वो आह भरते हैं ..वो कहते हैं – इस तरह बाँसुरी मत बजाओ ..मेरा मन जल रहा है ।
आज दर्शन करते हुए बिल्वमंगल प्रेम की वैचित्र्य अवस्था में पहुँच जाते हैं …..श्याम सुन्दर को निहारते हुए इनके मन ये बात आजाती है कि ….तुम तो मुझे छोड़कर चले जाओगे ना ? ये सोचते ही आर्त क्रन्दन करने लगते हैं बिल्वमंगल ….वो कहते हैं …..हे विभो ! आपका विरह मुझे बहुत संताप देता है …..आप जब मुझे छोड़कर चले जाते हो तब मेरा अन्तकरण जलने लगता है …मुझे लगता है तुम्हारा विरह मेरे मर्मस्थल को निष्ठुरता पूर्वक चोट पहुँचा रहा है । विचित्र स्थिति हो गयी बिल्वमंगल की यहाँ …मिलन का सुख न लेकर वो विरह के परम दुःख में जलने लगते हैं ।
लेकिन ये स्थिति भी इनकी समान नही रह पाती ….वो फिर श्याम सुन्दर की ओर देखकर हंसने लगते हैं …..कहते हैं …..नही , अब आप यही काम करो ….मुझे विरह ही दे दो ….मेरे मन को चोट पहुँचाओ …बेदर्दी के साथ चोट पहुँचाओ ….तुम छुप जाओ ….तुम चले जाओ …..मैं रोऊँगा , मैं चीखूँगा ….पर तुम मत आना । उस स्थिति से मुझे परम लाभ मिलेगा कि मेरे पूर्व के सारे संस्कार जल जायेंगे ….फिर न स्वर्ग का झंझट रहेगा ना नर्क का ….फिर तो तुम ही मुझे अपने साथ लगा लोगे …क्यों कि तुम्हारे सिवा मेरा कोई बचेगा ही नही । बिल्वमंगल ये कहते हुए श्याम सुन्दर से रोने लगते हैं ……कुछ देर तक रोने के बाद ….फिर श्याम सुन्दर के मुखारविंद को निहारने लगते हैं …कुछ देर बाद वो फिर कहते हैं …..इतनी जल्दी क्या है ? चले जाना ना ! श्याम सुन्दर बिल्वमंगल की बातें सुनकर हंसने लगते हैं ….कहते हैं मैं अभी कहाँ जा रहा हूँ …अभी तो मैं तुम्हारे पास ही हूँ । बिल्वमंगल ये सुनकर फिर रोने लगते हैं …अभी हो ना ….किन्तु कुछ देर बाद तो चले जाओगे ना ? श्याम सुन्दर कुछ कहने जा रहे थे ….बिल्वमंगल उसी समय तुरन्त अपने अश्रु पोंछ लेते हैं …..फिर हंसते हुये कहते हैं ….छोड़ो ये रोना धोना ….मेरा अन्तकरण शोक ग्रस्त हो गया है ….अब तुम मेरे अन्तकरण को शीतल बनाओ ।
कैसे ? श्याम सुन्दर हंसते हुए पूछते हैं ।
अपने मुखचन्द्र को दिखाकर …….बिल्वमंगल कहते हैं ।
दिखा तो रहा हूँ अपना मुख मण्डल ….श्याम सुन्दर हंसते हुये फिर बोले हैं ।
इस मुखचन्द्र को थोड़ा और शीतल करो …दुगुना शीतल करो …बिल्वमंगल बोले ।
उससे क्या होगा ? श्याम सुन्दर मुस्कुराते हुये बिल्वमंगल के सामने आकर खड़े हो गए हैं ।
उससे मेरा अन्तकरण शान्त होगा ….मैंने कहा ना आपसे ….मेरा चित्त जल रहा है ….अन्तकरण में आग लग गयी है ……अब अपने रूप की शोभा को शीतल करो ….और शीतल करो ….तभी मेरा चित्त शांत होगा ….नही तो – हे विभो ! मैं इसी विरहाग्नि में जल कर मर जाऊँगा …..बिल्वमंगल ये कहकर फिर श्याम सुन्दर के चरणों में लोटने लगते हैं ।
क्रमशः….
Hari sharan
Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत - 40
तब मेरी मृत्यु हो…
यावन्न में ननुदशा दसमी कुतोऽपि, रंध्रादुपैति तिमिरी-कृत-सर्व-भावा ।
लावण्य केलि सदनं तव तावदेव, लक्ष्या समुत्क्वणित वेणु मुखेन्दुविम्बम् । ३८ !
हे साधकों ! बिल्वमंगल को महाविरह व्याप गया था ….उनके सामने वो नव किशोर खड़े थे …फिर भी विरह ने उन्हें पकड़ ही लिया ….रोते हुए बिलखते हुए जब बिल्वमंगल श्याम सुन्दर के चरणों में लोटने लगे और कई घड़ी तक इस दशा से ये बाहर नही आये तो रात्रि हो गयी …उस वन प्रान्त में बिल्वमंगल अकेले हैं …इनकी स्थिति वैसी ही बनी हुई है …इनके विरह नाद से वह वन प्रदेश भी विरहाकुल सा हो उठा था …बिल्वमंगल के सामने अब श्याम सुन्दर नही हैं …ओह ! इसके कारण बिल्वमंगल के विरह की आग को और हवा मिली …जिससे और विरहाग्नि धधक उठी थी ।
बिल्वमंगल की आज विरह दशा देखने जैसी है …..ये बहुत रो रहे हैं ….नही नही , एक होता है अपने कुछ प्रयास से रोना और एक होता है हम नही चाहते रोना फिर भी रोना रुके नही …..बिल्वमंगल की यही दशा आरम्भ हुयी , रुदन से …अश्रु बह रहे हैं ..किसी भी प्रेमी की प्रेम यात्रा यहीं से आरम्भ होती है – रोना , रस मार्ग में चलने का प्रथम मंगल-आचरण यही है …आप बिना अश्रु के इस यात्रा का श्रीगणेश कर नही सकते । तो प्रथम स्थिति है प्रेमसाधक की ….अश्रु ….दूसरी स्थिति है …स्वेद , पसीने आना । काम या प्रेम की अवस्था में भी पसीने आते हैं ….जब प्रेमी अति रोता है तब उसके देह से पसीने निकलते हैं …ये प्रेम के वेग के कारण होता है । अब तीसरी स्थिति कम्पन है । जब प्रियतम की याद में प्रेमी खो जाता है …और प्रियतम उसके हृदय में आजाता है तब प्रेमी को उस भावना से ही कंपकंपी आनी शुरू हो जाती है ।
मैंने कई भक्तों के दर्शन किए हैं ….जो एकाएक रोते रोते काँपने लग जाते हैं …ये तीसरी स्थिति है प्रेम की । चौथी स्थिति है ….रोमांच । रोमांच पूरे देह में होने लग जाता है …..इस स्थिति की एक साधिका मेरे संज्ञान में ही हैं ….मैंने उन्हें अनेकों बार देखा है …वो मेरे पास बैठी हुयी हैं ….नाम संकीर्तन चल रहा है ….तभी उन्हें रोमांच होने लगता है ….वो ‘राधा’ कहकर चिल्ला उठती हैं । ये चौथी स्थिति है । अब पाँचवीं स्थिति …उन्माद है । प्रेमी पागल की तरह हो जाता है …वो कभी हंसता है …हंसता है तो बहुत हंसता है …..मैंने अपने पागलबाबा को देखा …एक दिन आरती कर रहे थे तभी उन्हें हंसी आगयी ….बाबा हंसते कम ही हैं …बस मुस्कुराते हैं । लेकिन उस दिन ….वो इतना हंसे की उन्होंने आरती रोक दी …….किन्तु ये भी अकारण नही होता …..मैंने बाबा से पूछा तो वो बोले ….मान सरोवर में युगलवर लीला कर रहे थे …..मुँह में जल भरकर दोनों फेंक रहे थे …..किसका जल ज़्यादा दूर जाएगा …..तभी श्रीजी ने मुँह में जल भरा और जैसे ही उसे फेंकने वाली थीं कि श्याम सुन्दर ने वहीं रुकने के लिए कहा और पास में गये ….अब बहुत देर से मुँह में जल भरा था इसलिए कपोल भी श्रीजी के दूख रहे थे ….पास में श्याम सुन्दर आये और फूला मुख श्रीजी का देखकर हंसने लगे श्रीजी ने संकेत किया हट जाओ पर मानें नही …इतना ही नही ….कपोल में दोनों ओर से थपली और मार दी ….बस सारा जल श्याम सुन्दर के मुख मण्डल में ………….मेरे पागलबाबा ये लीला देख रहे थे भावना में …..उनकी हंसी फूटी और बहुत देर तक हंसते ही रहे । ये उन्माद दशा है …इस दशा में हंसी भी आती है और कभी रोना भी …कभी उछलना । अब छटी स्थिति है प्रेम साधकों की ….विस्मृति । प्रेमी भूलने लग जाता है ….उसे कभी कभी स्वयं की भी विस्मृति हो जाती है । किसको क्या बोला था या बोलना है वो भूलने लगता है क्यों कि उसके अन्तकरण में मात्र उसका प्रियवर ही छा गया है । अब सातवीं स्थिति है …क्षुधा नाश । भूख नही लगती …प्रेमी कहाँ खाता है ….उसकी भूख नींद सब उड़ जाती है । आठवीं स्थिति …दाह । जलन । इस स्थिति में प्रेमी के देह में जलन शुरू हो जाती है । उसका देह जलता है …चैतन्य महाप्रभु की ये स्थिति होती थी । अब नौवीं स्थिति है …मूर्च्छा । और दसवीं स्थिति है ..मृत्यु । प्रेमी का देह उसके इन उन्मादों को सह नही पाता और छूट जाता है । ये दस स्थितियाँ हैं प्रेमियों की ।
हे साधकों ! मैंने ये सब इसलिए बताया है ….कि आज के सैंतीसवें श्लोक में बिल्वमंगल कहते हैं …हे मुरली मनोहर ! कहीं मेरी स्थिति दसवीं तो नही हो गयी ….कहीं मैं मृत्यु के निकट तो नही चला आया ? क्यों कि मुझे लगता है – रोना , फिर पसीने का अकारण बहना , कम्पन आदि ये सब तो मैं पार कर चुका हूँ ….आज पहली बार मुझे इतनी गहरी मूर्च्छा आयी …हे नव किशोर ! मैं सबसे ऊँची प्रेम की अवस्था में पहुँच गया हूँ …दशमी अवस्था में …यानि मृत्यु की अवस्था में ।
तो क्या डरते हो ? श्याम सुन्दर ने मानों पूछा तो बिल्वमंगल एकाएक हंसने लगे …खूब हंसने लगे ….जब प्रेम किया था ना , तभी मरने की सोचकर ही प्रेम किया था …इसलिए मृत्यु से हम प्रेमी लोग नही डरते प्यारे !
तो कहना क्या चाहते हो ? श्याम सुन्दर ने फिर पूछा ।
बिल्वमंगल बोले ….जब मेरी दसवीं यानि उच्च अवस्था आजाए …मेरे समस्त अस्तित्वों को गहन अन्धकार में जब मृत्यु ले जाने लगे ना ….तब हे मोहन ! तुम बाँसुरी बजा देना ….बाँसुरी की सुर लहरी मरते समय मेरे कानों से होकर हृदय में जायेगी ना ….तो मैं अपना श्रेय पा जाऊँगा । फिर बिल्वमंगल कहते हैं ….नही नही ..मात्र बाँसुरी सुनाना ही नही ….अपना मुख कमल भी दिखा देना ….बिल्वमंगल कांपती आवाज़ में कहते हैं …..अगर तुम सामने नही हुए और मेरी मृत्यु हो गयी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा । प्रभो ! मुझे लग रहा है कि शायद मेरी मृत्यु आने वाली है …..तुम अब तो आजाओ ….तुम्हें बिना देखे कैसे मरूँ ! बस अब आजाओ …ये प्राण छूटेंगे अब । और याद रहे …..तुम्हारे देखे बिना अगर मैं मर गया …तो देखना ! मेरी ये आँखें खुली ही रह जाएँगी ।
ओह ! बिल्वमंगल की इस कामना पर तो सारी कामनाओं को वारने का मन करता है … है ना !
“बिना प्राणप्यारे भये दरश तुम्हारे हाय ,
देख लीजो आँखें ये खुली रह जायेंगी”
क्रमशः….
Hari sharan


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