Niru Ashra: श्री भीष्म पितामह
26-
भीष्म पितामह की बात सुनकर दुर्योधन उदास हो गया। भीष्म ने कहा- ‘दुर्योधन! यह क्रोध करने का समय नहीं है। अर्जुन ने मुझे जिस प्रकार जल पिलाया, तुमने अपनी आँखों से उसे देखा है। कौन है पृथ्वी पर ऐसा काम करने वाला वीर? श्रीकृष्ण और अर्जुन के अतिरिक्त सम्पूर्ण दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता और कौन है? उन्हें कोई नहीं जीत सकता। उनसे मेल करने में ही तुम्हारी और सारे जगत की भलाई है। जब तक तुम्हारे प्रिय परिजन जीवित हैं, तभी तक सन्धि कर लेना उत्तम है। अर्जुन ने जो कुछ किया है वह तुम्हारी सावधानी के लिये पर्याप्त है। मेरी मृत्यु ही इस हत्याकाण्ड का अन्त हो। पाण्डवों को आधा राज्य दे दो। बैर भूलकर सब लोग प्रेम से गले मिलो। तुम लोग इस समय जिस मार्ग से चल रहे हो, वह सर्वनाश का मार्ग है।’ भीष्म इतना कहकर चुप हो गये। सब लोग उनसे अनुमति लेकर अपने-अपने स्थान पर चले गये।
जब सब लोग चले गये, तब भीष्म पितामह के पास कर्ण आया। कर्ण की आँखों में आँसू भर आये। उसने गद्गद स्वर से कहा-‘पितामह! मैं राधा का पुत्र कर्ण हूँ। मेरे निरपराध होने पर भी आप मुझसे लाग-डांट रखा करते थे।’ भीष्म ने कर्ण की बात सुनकर धीरे-धीरे आँख खोलीं। वहाँ से रक्षकों को हटा दिया और एक हाथ से पकड़कर उसे अपने हृदय से लगा लिया। उन्होंने कहा-‘प्यारे कर्ण! आओ, आओ तुमने इस समय मेरे पास आकर बड़ा उत्तम कार्य किया है। वीर! मुझसे देवर्षि नारद और महर्षि व्यास ने कहा है कि तुम राधा के पुत्र नहीं, कुन्ती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं, साक्षात् भगवान् सूर्य हैं। मैं सत्य-सत्य कहता हूँ; मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति तनिक भी द्वेषभाव नहीं है। मैंने जान-बूझकर तुम्हारे प्रति कटु वचनों का प्रयोग इसलिये किया है कि तुम्हारा तेज घटे। संसार में तुम्हारे समान पराक्रमी बहुत ही कम हैं। तुम ब्रह्मनिष्ठ, शूर और श्रेष्ठ दानी हो। तुम्हारे उत्कर्ष से कौरवों का घमण्ड और बढ़ेगा तथा वे पाण्डवों से अधिकाधिक द्वेष करेंगे इसीलिये मैं तुम्हारा अपमान किया करता था। मगधराज जरासन्ध भी तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकते थे। इस समय यदि तुम मुझे प्रसन्न करना चाहते हो तो एक काम करो। तुम पाण्डवों से मिल जाओ। फिर युद्ध बंद हो जायेगा, मेरी मृत्यु से ही यह बैर की आग बुझ जायेगी और प्रजा में शान्ति का विस्तार होगा।’
Niru Ashra: श्री भीष्म पितामह
26-
श्री भीष्म पितामह ने कहा-‘बेटा! यदि यह बैर-भाव नहीं मिट सकता तो तुम युद्ध करो। आलस्य, प्रमाद और क्रोध को छोड़कर, शक्ति और उत्साह के अनुसार, सदाचार का पालन करते हुए अपने निश्चित कर्तव्य को पूर्ण करो। तुम्हारी जो इच्छा हो वह पूर्ण हो। अर्जुन के बाणों से तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी, क्षत्रिय के लिये धर्मयुद्ध ही सर्वोत्तम कर्म है। यदि इस लोक में तुम लोग सुख-शान्ति से न रह सके तो न सही; धर्मविपरीत काम करके कहीं उस लोक में भी सुख-शान्ति से वंचित न हो जाना। इसलिये मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि सर्वदा धर्म की रक्षा करते हु युद्ध करना।’
भीष्म से अनुमति लेकर कर्ण चला गया। भीष्म शरशय्या पर पड़े हुए सम्पूर्ण मनोवृत्तियों से भगवान् का चिन्तन करने लगे।
श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध……..
यदि केवल व्यवहार की दृष्टि से ही देखा जाये तो भी यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि जीव बड़े कृतघ्न हैं। जिन्होंने हमें प्रलय की घोर निद्रा में से जगाया, जिन्होंने हमें समझने-बूझने की बुद्धि दी, जिन्होंने हमें मनुष्य बनाया, जिनकी कृपा-दृष्टि से, जिनकी शक्ति से हम जीवित हैं, जिनकी गोद में हैं, जो एक क्षण के लिये भी हमें अपनी आँखों से ओझल नहीं करते, उन्हीं परमपिता, परम कारुणिक, सर्वशक्तिमान प्रभु को भूलकर हम विषयों का चिन्तन करते हैं। जगत् के तुच्छ जीवों की सेवा करते हैं, उनके सामने कुत्तों की भाँति चापलूसी करते फिरते हैं। जिनका सब कुछ है, उनसे तो हमने कुछ नाता ही नही जोड़ा, उन्हें तो भुला ही दिया। नाता जोड़ा उन लोगों से, याद किया उन लोगों को जो हमें नरक की धधकती हुई आग में जलाने को तैयार रहते हैं। इतना सब होने पर भी परम दयालु प्रभु हमारी भूलों पर दृष्टि नहीं डालते। वे स्मरण करते ही आ जाते हैं, ध्यान करते ही ध्यान करने बैठ जाते हैं, एक पग चलते ही सौ पग दौड़ आते हैं। यहाँ तक कि कोई उनका अनिष्ट करने भी उनके पास जाये तो वे उसकी भलाई ही करते हैं। मैं सोच भी नहीं सकता कि इतने कृपालु प्रभु को छोड़कर हम लोग दूसरों का चिन्तन-स्मरण क्यों करते हैं, परंतु करते हैं यह सच्ची बात है।
यहाँ प्रसंग है भीष्म का। चिन्तन-स्मरण न करने वालों का भी प्रभु ध्यान रखते हैं तो जिन्होंने संसार के सम्पूर्ण विषयों से अपना मन हटा लिया है, उनका वे कितना चिन्तन करते होंगे, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। भीष्म को संसार से कोई मतलब न था। संसार में रहते हुए, अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए युद्ध में भी उन्होंने भगवान् का स्मरण किया। मारने वाले वेश में भी भगवान् को पहचाना। अब वे बाणशय्या पर पड़े हुए हैं, उनके शरीर में दों अंगुल भी ऐसी जगह नहीं जिसमें बाण न धंसे हों। तब क्या वे अपने शरीर, बाण अथवा पीड़ा को याद करते होंगे, नहीं-नहीं। उन्हें और किसी बात का स्मरण नहीं है; वे केवल भगवान् के स्मरण में ही तन्मय हैं, निरन्तर भगवान् के चिन्तन में ही संलग्न हैं।
भगवान् का स्मरण करते हुए भीष्म का दर्शन करने के लिये कुरुक्षेत्र की रणभूमि में जाने की आवश्यकता नहीं है। उनका दर्शन करने के लिये तो भगवान् श्रीकृष्ण के पास चलना चाहिये; क्योंकि भीष्म की अन्तरात्मा श्रीकृष्ण के पास है और भीष्म क्या कर रहे हैं, इस बात को केवल श्रीकृष्ण ही जानते हैं, परंतु श्रीकृष्ण के पास पहुँचना तो और कठिन है। उनके पास जाने के लिये भी उनके किसी प्रेमी की, उनके किसी परिचित की आवश्यकता है। चलें धर्मराज के पास। वास्तव में धर्मराज का अनुसरण करने से ही हम श्रीकृष्ण के पास पहुँच सकते हैं।
अच्छा, तो अठारह दिन का भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका है, धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य लेना अस्वीकार किया, परंतु भाइयों ने, नारद ने, व्यास ने और सबसे अधिक श्रीकृष्ण ने उन्हें राज्य लेने के लिये बाध्य किया। युधिष्ठिर राजा हुए। वे प्रतिदिन और प्रतिक्षण अपने कर्तव्य का ध्यान रखते थे। गान्धारी, धृतराष्ट्र, विदुर, भाई-बन्धु सबका सम्मान करते हुए वे अपनी निखिल प्रजा को संतुष्ट रखते। आज सबकी प्रसन्नता सम्पादन करके वे भगवान् श्रीकृष्ण के पास जा रहे हैं। चलें हम भी उनके पीछे-पीछे। उन्हीं के कृपा प्रसाद से हम भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त करें और उनकी भक्तवत्सलता को मूर्तिमान् देखें।
युधिष्ठिर ने जाकर देखा, भगवान् श्रीकृष्ण मणिजटित सोने के पलंग पर बैठे हैं, सोने से मढ़ी हुई नीलम-मणि के समान के उनकी कान्ति चारों ओर फैल रही है। वर्षाकालीन बादल की भाँति उनके शरीर की सुस्निग्ध नीलोज्ज्वल कान्ति है। स्थिर विद्युत् के समान पीताम्बर ओढ़े हुए हैं। शरीर में दिव्य आभूषण पहने हुए हैं। उनके कण्ठ की कौस्तुभ मणि इस प्रकार जगमगा रही है मानो उदयाचल के पास भगवान् सूर्य अभी उग ही रहे हों। बड़ी सुन्दर छवि थी, देखते ही बनता था।
युधिष्ठिर ने उन्हें देखकर पूछा-‘श्रीकृष्ण! रात में नींद तो अच्छी आयी है, कोई कष्ट तो नहीं हुआ है? आपकी कृपा से ही हम सब सकुशल हैं। आपकी ही कृपा से हमारी विजय और कीर्ति हुई है। आपकी कृपा से ही हम लोग धर्म से विचलित नहीं हुए। इस प्रकार बड़ी नम्रता से कहे गये युधिष्ठिर के वचन श्रीकृष्ण तक नहीं पहुँच सके। उस समय श्रीकृष्ण पलंग पर बैठे हुए दीख रहे थे, परंतु वास्तव में वे पलंग पर बैठे हुए नहीं थे। वे भीष्म के पास थे। युधिष्ठिर ने देखा कि श्रीकृष्ण ध्यानमग्न हैं, उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी है। वे आश्चर्यचकित हो गये।
क्रमश:….
Niru Ashra: श्री भीष्म पितामह
27-
बहुत देर के बाद युधिष्ठिर ने पुन: भगवान् से प्रार्थना की- ‘प्रभो! आप किसका ध्यान कर रहे हैं? इस समय तीनों लोकों में मंगल तो है न? आप इस समय जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों से अतीत होकर तुरीयपद में स्थित हैं। आपने पाँचों प्राण रोककर इन्द्रियों को मन में, इन्द्रियों और मन को बुद्धि में एवं बुद्धि को आत्मा में स्थापित कर लिया है। आपके रोएँ तक नहीं हिलते, आपका शरीर पत्थर की तरह निश्चल हो रहा है। आप वायु से सुरक्षित दीपक की भाँति स्थिर भाव से स्थित हैं। आपके इस प्रकार ध्यान करने का क्या कारण है। यदि मैं वह बात जानने का अधिकारी होऊँ और कोई गुप्त बात न हो तो आप मुझसे अवश्य कहें। भगवन्! आप ही सारे संसार की रचना और संहार करने वाले हैं। क्षर-अक्षर, प्रकृति-पुरुष, व्यक्त-अव्यक्त सब आपके ही विस्तार हैं। आप अनादि, अनन्त, आदिपुरुष हैं। मैं नम्रता और भक्ति से आपको प्रणाम करता हूँ और जानना चाहता हूँ कि आप क्यों, किसका ध्यान करते थे?’
युधिष्ठिर की विनती सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने मन और इन्द्रियों को यथास्थान स्थापित किया। तत्पश्चात् मुस्कुराते हुए कहा-‘युधिष्ठिर! भला आपसे गुप्त रखने की कौन-सी बात है? इस समय मैं आपके दादा वृद्ध पितामह भीष्म का चिन्तन कर रहा था। धर्मराज! वे बुझती हुई आग की तरह शरशय्या पर पड़े हुए मेरा ध्यान कर रहे हैं। मेरी प्रतिज्ञा है कि जो मेरा ध्यान करता है, उसका ध्यान किये बिना मुझसे रहा ही नहीं जाता। इसलिये मेरा मन उन्हीं की ओर था। जिनकी धनुषटंकार को इन्द्र भी नहीं सह सकते थे, जिनके बाहुबल के सामने कोई भी राजा नहीं ठहर सका, परशुराम तेईस दिन तक युद्ध करके भी जिन्हें नहीं हरा सके, वही महात्मा भीष्म आज आत्मसमर्पण करके मेरी शरण में आये हैं। भगवती भागीरथी ने जिन्हें गर्भ में धारण करके अपनी कोख को धन्य बनाया था, महर्षि वशिष्ठ जिन्हें ज्ञानोपदेश करके अपने ज्ञान को सफल किया था, जिन्हें अपना शिष्य बनाकर परशुराम ने अपने गुरुत्व को गौरवपूर्ण किया था, जो सम्पूर्ण वेद-वेदांग, विद्याओं के आधार, दिव्य शस्त्र-अस्त्रों के प्रधान आचार्य और भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों को जानने वाले हैं, वही महात्मा भीष्म आज मन और इन्द्रियों को संयत करके मेरी शरण में आये हैं।
इसीलिये मैं उनका चिन्तन कर रहा था। प्यारे धर्मराज! उनके इस लोक से चले जाने पर यह पृथ्वी चन्द्रहीन रात्रि की भाँति शोभाहीन हो जायेगी। उनके न रहने पर भूमण्डल में ज्ञान का हृास हो जायेगा। इसलिये आप उनके पास जाकर, चारों वर्णों और आश्रमों का, चारों विद्याओं का, चारों पुरुषार्थों का और जो कुछ आपकी इच्छा हो उसका रहस्य पूछ लीजिये।’
युधिष्ठिर ने आँखों में आँसू भरकर गद्गद कण्ठ से कहा-‘श्रीकृष्ण! आपने भीष्म के प्रभाव का जो वर्णन किया है, उस पर मुझे पूर्ण विश्वास है। अनेक ऋषि-महर्षियों ने मुझे उनका महत्तव बतलाया है। फिर आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं। आपकी बात पर भला कैसे संदेह हो सकता है? आप मुझ पर बड़ी कृपा रखते हैं, आप मुझे अपने साथ ही उनके पास ले चलिये। उत्तरायण सूर्य होते ही वे इस लोक से चले जायेंगे, इसलिये ऐसे अवसर पर उन्हें आपका दर्शन मिलना चाहिये। आप आदिदेव परब्रह्म हैं। आपके दर्शन से पितामह कृतकृत्य हो जायेंगे। धर्मराज युधिष्ठिर की प्रार्थना सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने सात्यकि से रथ तैयार कराने को कहा।
भगवान् श्रीकृष्ण, धर्मराज युधिष्ठिर, कृपाचार्य, भीम, अर्जुन आदि सब भीष्म पितामह को पास चले। रास्ते में धर्मराज युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्ण ने परशुराम जी के चरित्र का वर्णन किया।। भीष्म के पास पहुँचकर उन लोगों ने देखा कि वे संध्याकालीन सूर्य के समान निस्तेज होकर शरशय्या पर पड़े हैं, बड़े-बड़े महात्मा उन्हें घेरे हुए बैठे हैं। वे दूर से ही अपनी सवारियों से उतरकर वहाँ गये और व्यास आदि महर्षियों समेत सबको प्रणाम करके भीष्म के चारों ओर घेरकर बैठ गये।
श्रीकृष्ण ने महात्मा भीष्म को सम्बोधन करके कहा-‘आपका ज्ञान तो पहले की भाँति है न! पाण्डवों के घाव की पाड़ के कारण आपकी बुद्धि अस्थिर तो नहीं हुई है? अपने पिता धर्मपरायण शान्तनु के वरदान से आप अपनी इच्छा के अनुसार मृत्यु के अधिकारी हुए हैं। बड़े-बड़े महात्माओं और देवताओं को भी इच्छा मृत्यु प्राप्त नहीं है। शरीर में सुई चुभ जाने पर लोगों को उसकी पीड़ा सहन नहीं होती, परंतु आपके शरीर में तो अनेकों बाण बिंधे हुए हैं। आप स्वयं ही बड़े-बड़े देवताओं को उपदेश कर रहे हैं, आपसे जन्म-मृत्यु के सम्बन्ध में क्या कहा जाये! आप समस्त धर्मों का रहस्य, वेद-वेदांग, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष सबका तत्व जानते हैं।
आपके समान गुणी मनुष्य संसार में न देखा गया है और न तो सुना गया है। आप अपने तपोबल से जगत् की सृष्टि कर सकते हैं। बन्धु-बान्धवों का संहार होने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर इस समय शोकाकुल हो रहे हैं। आप सभी धर्मों का रहस्य जानते हैं। उनकी शंकाओं का समाधान करने वाला कोई दूसरा नहीं दीखता। आप कृपा करके उनके शोकाकुल चित्त को शान्त कीजिये।’
भीष्म ने तनिक सिर उठाकर अंजलि बांधकर श्रीकृष्ण से कहा-‘भगवन्! आप समस्त कारणों के कारण और सबके परम निधान हैं। आप प्रकृति से परे और प्रकृति में व्याप्त हैं। आप सबके आश्रय और नित्य एकरस अविनाशी सच्चिदानन्द हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। अलसी के फूल के समान आपका साँवला शरीर मुझे बहुत ही प्रिय लगता है। उस पर पीताम्बर की शोभा तो ऐसी मालूम होती है मानो वर्षाकालीन मेघ पर बिजली स्थिर होकर बैठ गयी हो। मैं परम भक्ति से, सच्चे हृदय से आपके शरण हूँ।’
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए गम्भीर स्वर से कहा-‘महात्मन्! आप मेरे दिव्य शरीर का दर्शन कीजिये। आपकी मुझ पर परम भक्ति है, इसी से मैं यह दिव्य शरीर आपको दिखा रहा हूँ। आप मेरे परमभक्त हैं, आपका स्वभाव बहुत ही सरल है, आप तपस्वी, सत्यवादी, इन्द्रियजित् और दानी हैं। इसलिये आप मेरे दिव्य शरीर के दर्शन पाने के अधिकारी हैं। जो मनुष्य भक्तिहीन हैं, कुटिल स्वभाव के हैं और अशान्त हैं, उन्हें मैं दर्शन नहीं देता। आप इस शरीर का परित्याग करके उस दिव्य धाम मे जायेंगे, जहाँ से फिर कभी लौटना नहीं पड़ता। अभी आप छप्पन दिनों तक जीवित रहेंगे। फिर आपको परम पद की प्राप्ति होगी। वसु देवता आकाश में स्थित होकर आपकी रक्षा कर रहे हैं। आपके शरीर-त्याग के पश्चात् आप-सरीखा कोई तत्वज्ञानी नहीं रह जायेगा। इसलिये हम आपके पास आये हैं कि आप अपने अनुभूत सम्पूर्ण ज्ञान का वर्णन कर जायें। इससे आपके अनुभूत धर्म-सिद्धान्त की रक्षा होगी और धर्मराज युधिष्ठिर का शोक भी दूर हो जायेगा।’
क्रमश:….
Niru Ashra: श्री भीष्म पितामह
28-
भीष्म ने हाथ जोड़कर कहा-‘भगवन्! आपके वचनों से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं भला आपके सामने किस धर्म का वर्णन कर सकता हूँ? संसार में जितने धर्म-अधर्म कहे जाते हैं, मनुष्यों के लिये जो कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य निश्चित हैं, उन सबके मूल कारण आप ही हैं। जैसे इन्द्र के सामने कोई देवलोक का वर्णन करें, वैसे ही आपके सामने धर्म-रहस्य का वर्णन करना है। बाणों के आघात से मेरा शरीर व्यथित है, हृदय पीड़ित है और बुद्धि क्षीण हो गयी है। वाणी असमर्थ हो गयी है, बल नष्ट हो चुका है। प्राण निकलने के लिये जल्दी कर रहे हैं। आपके प्रभाव से ही मैं जीवित हूँ। आप सम्पूर्ण ज्ञानों के निधि हैं। आपके सामने मैं क्या उपदेश कर सकता हूँ? गुरु के सामने शिष्य क्या बोल सकता है? इसलिये मुझे क्षमा कीजिये। आप ही धर्मराज को धर्म का उपदेश दीजिये।’
श्रीकृष्ण ने कहा-‘पितामह! आप सब तत्वों के ज्ञाता, शक्तिशाली और भरतवंश के भूषण हैं। इसलिये आपके ये विनीत वचन आपके योग्य ही हैं बाणों के घाव के कारण शरीर में पीड़ा है तो मैं आपको यह वरदान देता हूँ कि आपकी ग्लानि, मूर्छा, जलन और भूख-प्यास मिट जाये, आपके हृदय में सब ज्ञान जाग्रत हो जायें। आपकी बुद्धि निर्मल हो जाये, आपके मन से रजोगुण और तमोगुण हट जायें, केवल सत्वगुण ही रह जाये। आप धर्म और अर्थ के सम्बन्ध में जितना विचार करेंगे, आपकी बुद्धि उतनी ही बढ़ती जायेगी। आपको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जायेगी और आप सब वस्तुओं का रहस्य जान सकेंगे।’
भगवान् श्रीकृष्ण की यह दिव्य वाणी सुनकर वेदव्यास आदि ऋषि-महर्षियों ने उनकी स्तुति की। आकाशमण्डल से श्रीकृष्ण, भीष्म और पाण्डवों पर पुष्पवर्षा होने लगी। अप्सराऐं गाने लगीं, गन्धर्व बजाने लगे। शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा चलने लगी और दिशाऐं शान्त हो गयीं। सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकने लगे। भीष्म की चेतना जाग्रत हो गयी। उनकी बुद्धि में सम्पूर्ण ज्ञान स्फुरित होने लगा। चारों ओर मंगलमय शकुन होने लगे।
संध्या हो चली थी। ऋषियों की अनुमति से दूसरे दिन फिर यहाँ मिलने की सलाह करके सब अपने-अपने स्थान पर चले गये।
पितामह का उपदेश…….
अपनी बुद्धि जिस सत्य का प्रत्यक्ष होता है, यदि उसी सत्य का प्रत्यक्ष सब बुद्धियों के द्वारा होता, तब तो कहना ही क्या था। वह एक असन्दिग्ध सत्य होता; परंतु बुद्धि सबकी पृथक-पृथक है और सबका प्रत्यक्ष भी पृथक-पृथक है। बुद्धियों की तो बात ही क्या, ये जो रुप अपनी-अपनी आँखों से देख रहे हैं हम लोग, वह भी एक प्रकार का ही नहीं है। सबकी आँख एक ही सतह पर नहीं हैं और एक ही प्रकार की शक्ति भी नहीं रखतीं। सबका क्षितिज भिन्न-भिन्न दूरी पर है। एक वृक्ष को सब समान मोटा नहीं देखते। एक ही व्यक्ति को सब एक ही रंग-रुप का नहीं देखते। इसका कारण आँखों का तारतम्य है। इसी प्रकार बुद्धियों में भी तारतम्य हुआ करता है। सब सत्य के विभिन्न प्रकार का दर्शन करते हैं। इसी से किसी का बौद्धिक ज्ञान चाहे जितना ऊँचा हो और वह अपने बौद्धिक निर्णय को चाहे जितनी युक्तियों से सिद्ध करता हो, उसका वह ज्ञान और वे युक्तियाँ सर्वथा प्रामाणिक नहीं हैं। जगत् में जो बहुत-से मत-मतान्तर और सैद्धान्तिक भेद हुए हैं, उनके मूल में यही बुद्धि की विभिन्नता स्थित है। सबने सत्य कहा है, परंतु उस सत्य में कहने वाले का व्यक्तित्व और उसकी व्यक्तिगत बुद्धि सम्मिलित है। वही परम सत्य है-यह बात जोर देकर नहीं कही जा सकती।
परंतु एक ऐसा भी ज्ञान है जो सर्वदा एकरस, एकरुप, अविचल और निर्विकार है, जो व्यक्ति और उनकी बुद्धियों के विभिन्न होने पर भी विभिन्न नहीं होता। जगत् के ज्ञान की ओर दृष्टि रखकर उसे ज्ञान कहने में हिचकिचाहट जो अवश्य होती है, परंतु इसके अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं है, जिसके द्वारा अपना भाव प्रकट किया जा सके। वह ज्ञान क्या है? वह स्वयं आत्मा है, परमात्मा है, भगवान् श्रीकृष्ण है। वे जिसके हृदय में प्रकट हो जाते हैं, उसका व्यक्तित्व लुप्त हो जाता है और उसके द्वारा परम सत्य विशुद्ध ज्ञान का विस्तार होने लगता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण का दिया हुआ ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। अपनी बुद्धि से प्राप्त हुआ ज्ञान तो सर्वथा अप्रामाणिक और आश्रयहीन ज्ञान है। इसी से महात्मा लोग जब तक भगवान् से ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते; तब तक अपने बौद्धिक ज्ञान का प्रचार नहीं करते; क्योंकि वह प्रचार तो अपने व्यक्तित्व का प्रचार है, जो किसी-न-किसी रुप में भगवान् के ज्ञान का आवरण ही है। हाँ, तो अब तक यह बात कही गयी कि महात्मा लोग अपने व्यक्तिगत ज्ञान का नहीं, भगवत्-प्रदत्त ज्ञान का विस्तार करते हैं।
भीष्म का इतना जीवन-अध्ययन कर लेने के पश्चात् हम नि:संकोच भाव से कह सकते हैं कि भीष्म महात्मा पुरुष हैं। उनका जीवन निष्काम कर्मयोग का मूर्तिमान् स्वरुप है। उनके जीवन में महान् पुरुषार्थ भरा हुआ है। भगवान् पर उनकी अविचल श्रद्धा है। वे एक क्षण के लिये भी भगवान् को नहीं भूलते और यहाँ तक कि स्वयं भगवान् भी उनका ध्यान करते हैं। उन्हीं भीष्म के द्वारा भगवान् के ज्ञान का विस्तार होने वाला है। यही बात इसके पहले अध्याय में आ चुकी है कि भीष्म ने अपने व्यक्तिगत ज्ञान का उपदेश करना अस्वीकार कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने ज्ञान का दान किया। अब भीष्म वास्तव में ज्ञान-उपदेष करने के अधिकारी हुए। ऐसे अधिकार पर आरुढ़ होकर जो ज्ञान का उपदेश करता है, वही सच्चा उपदेशक है। यों तो आजकल उपदेशकों की बाढ़ आ गयी है; परंतु कौन है भीष्म-जैसा उपदेशक, जिसे भगवान् का साक्षात् आदेश प्राप्त हुआ है?
पूर्व निश्चय के अनुसार दूसरे दिन सब लोग भीष्म पितामह की शरशय्या के पास उपस्थित हुए। बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि पहले से ही आ गये थे। देवर्षि नारद और युधिष्ठिर की प्रेरणा से भगवान् श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह से वार्तालाप प्रारम्भ किया। श्रीकृष्ण ने कहा-‘पितामह! आज की रात में आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ? आपका शरीर पीड़ारहित और मन शान्त है न?’ पितामह ने कहा-‘श्रीकृष्ण! तुम्हारी कृपा से मोह, दाह, थकावट,उद्वेग और रोग सब दूर हो गये। तुम्हारी कृपादृष्टि के फलस्वरुप मुझे तीनों काल का ज्ञान हो गया है। वेद-वेदान्तोक्त धर्म, सदाचार, वर्णाश्रम-देश-जाति और कुल के धर्म -सब मेरे हृदय में जाग गये हैं। इस समय मेरी बुद्धि निर्मल और चित्त स्थिर है। मैं तुम्हारे चिन्तन से पुन: जीवित हो गया हूँ। अब मैं धार्मिक और आध्यात्मिक प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ, परंतु एक बात तुमसे पूछनी है, वह यह कि तुमने स्वयं युधिष्ठिर को उपदेश क्यों नहीं दिया?’
क्रमश:….
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 11 : विराट रूप
🦚🦚🦚🦚🦚🦚
श्लोक 11.36
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अर्जुन उवाच |
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स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः || ३६ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; स्थाने – यह ठीक है; हृषीक-ईश – हेइन्द्रियों के स्वामी; तव – आपके; प्रकीर्त्या – कीर्ति से; जगत् – सारा संसार;प्रहृष्यति – हर्षित हो रहा है; अनुरज्यते – अनुरक्त हो रहा है; च – तथा; रक्षांसि– असुरगण; भीतानि – डर से; दिशः – सारी दिशाओं में; द्रवन्ति – भाग रहे हैं; सर्वे– सभी; नमस्यन्ति – नमस्कार करते हैं; च – भी; सिद्ध-सङ्घाः – सिद्धपुरुष |
भावार्थ
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अर्जुन ने कहा – हे हृषिकेश! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होताहै और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं | यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करतेहैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं | यह ठीक ही हुआ है |
तात्पर्
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कृष्ण से कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम को सुनकर स्र्जुन प्रवृद्ध हओगया और भगवान् के परम भक्त तथा मित्र के रूप में उनसे बोला कि कृष्ण जो कुछ करतेहैं, वह सब उचित है | अर्जुन ने पुष्टि की कि कृष्ण ही पालक हैं और भक्तों केआराध्य तथा अवांछित तत्त्वों के संहारकर्ता हैं | उनके सारे कार्य सबों के लिएसमान रूप से शुभ होते हैं | यहाँ पर अर्जुन यह समझ पाता है कि जब युद्ध निश्चितरूप से होने था तो अन्तरिक्ष से अनेक देवता, सिद्ध तथा उच्चतर लोकों के बुद्धिमानप्राणी युद्ध को देख रहे थे, क्योंकि युद्ध में कृष्ण उपस्थित थे | जब अर्जुन नेभगवान् का विश्र्वरूप देखा तो देवताओं को आनन्द हुआ, किन्तु अन्य लोग जो असुर तथानास्तिक थे, भगवान् की प्रशंसा सुनकर सहन ण कर सके | वे भगवान् के विनाशकारी रूपसे डर कर भाग गये | भक्तों तथा नास्तिकों के प्रति भगवान् के व्यवहार की अर्जुनद्वारा प्रशंसा की गई है | भक्त प्रत्येक अवस्था में भगवान् का गुणगान करता है,क्योंकि वह जानता है कि वे जो कुछ भी करते हैं, वह सबों के हित में है |
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 11 : विराट रूप
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श्लोक 11.37
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कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोंSप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् || ३७ ||
कस्मात् – क्यों; च – भी; ते – आपको; न – नहीं; नमेरन् – नमस्कारकरें; महा-आत्मन् – हे महापुरुष; गरीयसे – श्रेष्ठतर लोग; ब्रह्मणः – ब्रह्मा कीअपेक्षा; अपि – यद्यपि; आदि-कर्त्रे – परम स्त्रष्टा को; अनन्त – हे अनन्त; देव-ईश– हे इशों के ईश; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय; त्वम् – आप हैं; अक्षरम् –अविनाशी; सत्-असत् – कार्य तथा कारण; तत्-परम् – दिव्य; यत् – क्योंकि |
भावार्थ
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हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्त्रष्टा हैं | तोफिर आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परमस्त्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् के परे हैं |
तात्पर्य
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अर्जुन इस प्रकार नमस्कार करके सूचित करता है कि कृष्ण सबोंके पूजनीय हैं | वे सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक जीव की आत्मा हैं | अर्जुन कृष्णको महात्मा कहकर सम्बोधित करता है, जिसका अर्थ है कि वे उदार तथा अनन्त हैं |अनन्त सूचित करता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो भगवान् की शक्ति और प्रभाव से आच्छादितन हो और देवेश का अर्थ है कि वे समस्त देवताओं के नियन्ता हैं और उन सबसे ऊपर हैं| वे समग्र विश्र्व के आश्रय हैं | अर्जुन ने भी सोचा कि यह सर्वथा उपयुक्त है किसारे सिद्ध तथा शक्तिशाली देवता भगवान् को नमस्कार करते हैं, क्योंकि उनसे बढ़करकोई नहीं है | अर्जुन विशेष रूप से उल्लेख करता है कि कृष्ण ब्रह्मा से भी बढ़करहैं, क्योंकि ब्रह्मा उन्हीं के द्वारा उत्पन्न हुए हैं | ब्रह्मा का जन्म कृष्णके पूर्ण विस्तार गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से निकले कमलनाल से हुआ | अतःब्रह्मा तथा ब्रह्मा से उत्पन्न शिव एवं अन्य सारे देवताओं को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करें | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि शिव, ब्रह्मा तथा इन जैसे अन्यदेवता भगवान् का आदर करते हैं | अक्षरम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहजगत् विनाशशील है, किन्तु भगवान् इस जगत् से परे हैं | वे समस्त कारणों के कारण हैं, अतएव वे इस भौतिक प्रकृति के तथा इस दृश्यजगत के समस्त बद्धजीवों से श्रेष्ठहैं | इसलिए वे परमेश्र्वर हैं |
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 11 : विराट रूप
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श्लोक 11.38
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त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण- स्त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्र्वमनन्तरूप || ३८ ||
त्वम् – आप; आदि-देवः – आदि परमेश्र्वर; पुरुषः – पुरुष; पुराणः –प्राचीन, सनातन; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्र्वस्य – विश्र्व का; परम् – दिव्य;निधानम् – आश्रय; वैत्ता – जानने वाला; असि – हओ; वेद्यम् – जानने योग्य, ज्ञेय; च– तथा; परम् – दिव्य; च – और; धाम – वास, आश्रय; त्वया – आपके द्वारा; ततम् –व्याप्त; विश्र्वम् – विश्र्व; अनन्त-रूप – हे अनन्त रूप वाले |
भावार्थ
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आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं | आप सबकुछ जानने वाले हैं और आप ही सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है | आप भौतिक गुणों सेपरे परम आश्रय हैं | हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है |
तात्पर्य
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प्रत्येक वस्तु भगवान् पर आश्रित है, अतः वे ही परम आश्रयहैं | निधानम् का अर्थ है – ब्रह्म तेज समेत सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण पर आश्रितहैं | वे इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यदि ज्ञान का कोई अंत है, तो वे ही समस्त ज्ञान के अन्त हैं | अतः वे ज्ञाता हैं और ज्ञेय (वेद्यं) भी | वे जानने योग्य हैं, क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं | वैकुण्ठलोक में कारण स्वरूप होने से वे दिव्य हैं | वे दिव्यलोक में भी प्रधान पुरुष हैं |


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