मिथिला के भक्त - 9
!! श्रीसूर किशोर दास जी !!
परात्पर श्रीराम अपनी आल्हादिनी श्रीसीता के साथ “मधुर रस “ में लीन रहते हैं …..कहाँ ? मिथिला-जनकपुर धाम में । शील सिन्धु हैं श्रीराम …..अपूर्व शक्ति से भरे हैं श्रीराम । लेकिन प्रेम के लिए शील और शक्ति ही तो पर्याप्त नही है ….”मधुरता” , ये आवश्यक है प्रेम के लिए । माधुर्य होगा तभी प्रेम खिलेगा …..माधुर्य होगा तभी लोक में रस बिखरेगा …लोक आकर्षित होंगे …..अजी ! माधुर्य होगा तभी सम्बन्ध बनेगा …तभी – कोहवर महकेगा ….कोहवर महकेगा तो युगल एक होंगे ….तब …”गिरा अरथ जल बीचि सम , कहियत भिन्न न भिन्न”। अद्वैत की घटना तब घटेगी ….तब श्रीसीता राम एक हो जाएँगे । वैसे ये एक हैं ….लेकिन लीला में इन दोनों को एक करने का श्रेय सिर्फ मैथिली -मिथिला को ही जाता है ।
लेकिन श्रीराम में माधुर्य नही है ……ऐसा सामान्य लोग कहते हैं ……और बात कुछ हद्द तक ठीक भी है …..मैथिली अगर नही होतीं ….तो ये बात बिलकुल सही मानी जाती ….लेकिन शीलसिन्धु राघव को माधुर्यमूर्ति राघव बनाने में ….शीलसिन्धु में माधुर्यमूर्ति गढ़ने में ….मैथिली जनकदुलारी का पूरा योगदान है और मैथिली सिया जू का ही क्यों मिथिला-जनकपुर का भी पूरा योगदान है ….जिसे विश्व का कोई भी श्रीराम भक्त नकार नही सकता ।
कल से आगे का प्रसंग –
श्रीसूरकिशोर दास जी युगल सरकार को डोले में विराजमान करके भक्तों के साथ …जनकपुर की सीमा में प्रवेश कर चुके थे ।
आस पास के नर नारियों ने जब सुना कि अयोध्या से युगल सरकार जनकपुर पधार रहे हैं ….तो सब चल पड़े थे जनकपुर धाम की ओर । यहाँ त्रेतायुग जैसा दृष्य उत्पन्न हो गया था ……मानों मिथिलावासियों को लगा कि हमारे दुलहा सरकार और हमारी बेटी युगों के बाद जनकपुर में लौट के आए हैं ….डोला के आगे स्वयं बाबा सूरकिशोर दास जी नाचते हुए आरहे थे । दिन के समय जनकपुर में प्रवेश किया था ….और वही स्थान जहां नीम का वृक्ष था …जिस स्थान के लिए स्वयं श्रीकिशोरी जी ने कहा था कि त्रेतायुग में यहीं पर मेरा महल था , और यहीं पर , इसी स्थान पर बाबा सूरकिशोर दास जी को दिव्य महल के दर्शन भी हुए थे । इसी स्थान में डोला को लाकर रखा गया । आस पास के लोगों ने मिलकर एक मन्दिर सा बना दिया ….राग भोग आदि की व्यवस्था भी हो गयी । बाबा की इच्छा थी कि मेरी बेटी और दामाद दोनों दिव्य चाँदी के सिंहासन में विराजें ….यहाँ तो बाबा के संकल्प करने की ही देरी थी …..वही व्यापारी फिर आया और उसने बड़े प्रेम से एक सुन्दर दिव्य सिंहासन चाँदी का बनवा दिया । बाबा श्रीसूर किशोर दास जी उस व्यापारी से बहुत प्रसन्न थे । आज संध्या की आरती बाबा कर रहे थे …..तब उस व्यापारी से बोले ….एक नथनी मेरी बेटी के लिए बन जाता तो बहुत अच्छा रहता ….सुहाग में नथनी आवश्यक है …बाबा सूरकिशोर दास जी इतना ही बोले थे ……वो व्यापारी तो तुरन्त गया …और दूसरे ही दिन सुन्दर सी नथनी बनाकर ले आया ।
बाबा बाहर बैठे थे , आनन्द से ।
बाबा ! मैं किशोरी जू के लिए नथ ले आया …ये कहते हुए उस व्यापारी ने बाबा सूर किशोर दास जी को साष्टांग प्रणाम किया ……व्यापारी नथ दिखाने लगा तो बाबा बोले …तुमने बहुत सेवा की है …मेरे पास तो धन नही था तुमने ही अपना धन लगाया ….डोला चाँदी का , सिंहासन चाँदी का और अब ये नथ भी सोने का ….बाबा प्रसन्नता पूर्वक बोले …जाओ और तुम ही श्रीकिशोरी जी को नथ धारण करा कर आओ …..फिर मैं दर्शन करने आऊँगा । बाबा ने उस व्यापारी को भीतर मन्दिर में भेज दिया था । कुछ देर ही हुए होंगे कि वो व्यापारी चिल्लाता हुआ बाहर आया …..बाबा भी घबड़ा गये …पूछा ..क्या हुआ ? पाहुन और बेटी डर जाएँगे ….ऐसे नही चीखते ।
बाबा ! श्रीकिशोरी जी के नाक से रक्त बह रहा है …बाएँ नाक की नथुनी फट गयी है । क्या ? ये सुनते ही बाबा का हृदय रो उठा …..वो दौड़े भीतर की ओर …..जब देखा रक्त बह रहा था श्रीकिशोरी जी की नथुनी से …वो फट गया था ….बाबा को कुछ समझ में नही आया उन्होंने सिन्दूर लेकर सिया जू के नाक में लगा दिया , रक्त तो रुक गया ….लेकिन …….बाबा समझ गये कि व्यापारी ने दिखावे के चलते अधिक सुवर्ण नथ में लगा दिया था …जिसके कारण नथ अत्यधिक भार वाला हो गया ….और कोमलांगी मेरी सिया बेटी । बाबा बहुत रोए ….मेरी बेटी बहुत कोमल है …..तुमने इतने भार का नथ क्यों बनाया ? बाबा बोलते जा रहे थे ….जब मेरी बेटी पुष्प वाटिका में भी जाती थी ….तब कमल का पराग इसके मार्ग में बिछाया जाता था ….ये इतनी कोमल है ….अत्यधिक कोमल । उस रात्रि में बाबा रोते रहे तब श्रीकिशोरी जी ने प्रकट होकर बाबा को सान्त्वना दिया ….और कहा …बाबा ! लोगों को ये बताने के लिए ही मैंने ये लीला की थी कि …मैं मूर्ति नहीं हूँ …..लोग ये समझें कि जनकपुर धाम में जिसे बाबा सूर किशोर लाये हैं वो जनकपुर की बेटी और पाहुन को ही लाए हैं …..ये प्रत्यक्ष हैं । सिया सुकुमारी इतना कहकर अंतर्ध्यान हो गयीं थीं । उस दिन बाबा ने बहुत दुलार किया था दोनों को …..
( श्रीजनकपुर धाम श्रीजानकी मन्दिर में जो श्रीविग्रह है जिसे सूरकिशोर बाबा लाए थे …आज भी श्रीकिशोरी जी के विग्रह की नाक की नथुनी फटी है, उसमें सिन्दूर लगा दिया जाता है । )
हे साधकों ! इन्हीं श्रीसूरकिशोर दास जी ने श्रीजनकपुरधाम को फिर बसाया था । आस पास के लोगों को लाकर यहाँ रखा …..मन्दिर की व्यवस्था इस तरह बढ़ती गयी ….मन्दिर का गर्भगृह ही “कोहवर” था ….वहीं लीला प्रमोद नित नवीन होते थे …और आज भी होते हैं । वर्तमान में जो महन्त की परम्परा है जानकी मन्दिर की …वो श्रीसूरकिशोर दास जी से ही चली है । ऐसे दिव्य, सिद्ध , विदेहराज के अवतार श्रीसूरकिशोर दास बाबा को हमारा साष्टांग प्रणाम ।
अब आगे का चरित्र कल –
Hari sharan
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