Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी..1️⃣0️⃣0️⃣भाग 3
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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नमामि विश्वजननीं रामचन्द्रेष्टवल्लभाम् ।
सीतां सर्वानवद्याङ्गीं भजामि सततं हृदा ॥ ८॥
ब्रह्मा के अनेक पुत्रों में एक पुत्र ऋषि पुलस्त्य भी थे ……….
वत्स ! सृष्टि को आगे बढ़ाओ !
……विधाता को शायद और कुछ कहना आता ही नही…….उनको सृष्टि का कार्य और उसको विस्तार देना, बस इतना ही जानते हैं ।
पुलत्स्य नें सृष्टि का नाम सुनते ही सिर हिला दिया ………..मुझे विवाह नही करना …………..और मैं विवाह क्यों करूँ ?
अपनें पिता की आज्ञा नही मानते हो तुम ?
विधाता ब्रह्मा कुछ कुपित से होनें को हुए थे ……।
पिता जी ! बड़े भाई नें ही ये परम्परा शुरू की है…… पिता के अनुचित आज्ञा के उल्लंघन करनें की …………इशारा ऋषि पुलत्स्य का सनकादि ऋषियों की ओर था ।
वत्स ! सृष्टि के कार्य में मेरी सहायता करनी ही होगी तुम्हे ।
इतना कहकर अंतर्ध्यान हो गए थे विधाता ब्रह्मा ।
युग था सतयुग…….हे सीता देवी ! हिमालय की एक कन्दरा में ऋषि पुलत्स्य तपस्या में लीन हो गए ……..स्थान बड़ा रमणीक था ।
पर कुछ कोलाहल सा हुआ तो ऋषि पुलत्स्य की तपस्या टूट गयी ……..
चारों ओर देखा – कन्याएं खेल रही थीं ………….उनका चहकना ……उनका हास्य …….उनका उछलना …………तपस्वियों को ये सब कहाँ प्रिय होगा ……………………
“जो कन्या इस स्थान में आएगी ……….वो गर्भवती हो जायेगी”
ये क्या बात हुयी …………पर ऋषि को यही श्राप सूझा और दे दिया ।
ये रावण का इतिहास मुझे त्रिजटा सुना रही थी ।
ऋषि पुलत्स्य अब आनन्द से तप में लीन हो गए थे …………..
नही माँ ! नही ………मुझे नही पता ये सब कैसे हो गया ?
राजा तृणविन्दु की राजकुमारी खेलते हुए उस स्थान पर चली गयी थी …..जिस स्थान के लिए ऋषि नें श्राप दे दिया था ………और वह गर्भवती हो गयी थी ……..।
मोटे मोटे अश्रु गिर रहे थे उस राजकुमारी के ………………
मुझे नही पता माँ ! ये कैसे हो गया, बस रोये जा रही थी वो राजकुमारी ।
राजा तक बात पहुंची तो राजा तृणविन्दु नें खोज करवाई …….तब पता चला कि उस स्थान में जो कन्या जायेगी वह गर्भवती हो जायेगी ……ये श्राप देकर बैठे हैं तप में ऋषि पुलत्स्य ।
हे ऋषिवर ! आपके लिये मै भिक्षा लाया हूँ …………..
राजा तृणविन्दु नें हाथ जोड़कर तप में लीन ऋषि से कहा ।
आँखें खोलीं ऋषि नें ……..क्या लाये हो ? ऋषि नें पूछा ।
ये मेरी कन्या है …………..पर अब ये आपकी है ……..राजा नें विनम्रभाव से कहा ।
पर मैं तो गृहस्थ आश्रम अस्वीकार कर चुका हूँ…….ऋषि पुलत्स्य का कहना था ।
आपके स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही है ……..स्वीकार तो आस्तित्व नें कर ही लिया है ……ये गर्भ वती है ….और कारण आप हैं ऋषि ।
फिर हाथ जोड़कर प्रणाम किया राजा नें …….इसे स्वीकार कर लीजिये ……..आपकी तपस्या में ये बाधक नही होगी, सहायक होगी ..।
ऋषि पुलत्स्य नें उस कन्या को देखा ………….सलज्ज नेत्रों से कन्या नें ऋषि को देखा ……………
फिर हँसे …………अपनें पिता विधाता ब्रह्मा की बात याद आयी ……..
“सृष्टि में मेरी सहायता तो तुमको करनी ही होगी वत्स”
हँसते हुए ऋषि राजा से बोले ………..ठीक है तुम्हारी कन्या हमें स्वीकार है………राजा अपनी कन्या सौंप कर वहाँ से चले गए थे ।
तुम्हारे उदर में जो बालक है …………..ऋषि पुलत्स्य जब बोल रहे थे तब उनकी नई नवेली पत्नी पृथ्वी को कुरेद रही थीं …………..
तुम्हारे पुत्र का नाम होगा …..”विश्वश्रवा”……..नाम भी जन्म से पहले ही रख दिया था……ऋषि पुलत्स्य नें ।
पर ……………….सोच में पड़ गए थे ऋषि ………………
शुभे ! पर तुम्हारा जो पौत्र होगा…..रावण ……..ऋषि कुछ बोल ही नही पा रहे थे …………
भगवन् ! कैसा होगा मेरा पौत्र ?
ऋषि कुछ नही बोले ……..पर वो चिंतित अवश्य हो गए थे ।
त्रिजटा नें इतना ही बताया ……..फिर बोली ……मैं जाती हूँ ……।
क्या तुम अब जाकर शयन करोगी ? मैने पूछा था ।
हाँ ………………..और आप भी सो जाओ अब ……………….
पर ब्रह्ममुहूर्त का समय भी बीत गया है ..सूर्योदय होनें वाला है ………..अब सोना कैसा ?
मेरी इस बात का उत्तर दिया था त्रिजटा नें ……….हम राक्षस हैं …..दिन में सोते हैं और रात्रि को जगते हैं ………..देखना आप – सब राक्षस अब सोयेंगे…………इतना कहकर वो चली गयी ।
हे रघुनाथ ! हे मेरे प्राण ! हे श्रीराघवेंद्र !
मैं फिर रोनें लगी थी ……………..
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो।
संग जुबती ब्रजनारी।।
चंदन केसर छिड़कत मोहन अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग, स्यामा प्राण पियारी।
गावत चार धमार राग तहं दै दै कल करारी ।।
फाग जु खेलत रसिक सांवरो,
बाढ्यौ रस ब्रज भारी।
मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया मोहनलाल बिहारी।।
पद का हिन्दी अर्थ।
उपरोक्त दोहे में ब्रज में खेले जाने वाली होली का सुंदर वर्णन मीराबाई ने किया है। वह कहती हैं की गिरधारी सभी के साथ मिलकर होली खेल रहे हैं। यहां मुरली चंग और डफली वाद्य यंत्र बजाए जा रहे हैं। सारे ब्रजवासी मधुर ताल पर बड़े ही उत्साह से कृष्ण के संग होली खेल हैं।
चंदन और केसर को श्री कृष्ण अपने हाथों में उठाकर चारों तरफ बिखेर रहे हैं। अपनी मुट्ठियों में गुलाल लेकर वे ब्रज वासियों पर छिड़क रहे हैं। सभी होली खेलते समय चार धमार राग गा रहे हैं। राधा और गोपियां के संग श्री गिरिधर होली खेल रहे हैं। मीरा को उनके प्रभु मोहन लाल बिहारी होली खेलते समय बड़े ही मनभावन लग रहे हैं ।🙇♀️🙏
🌸जय जय श्री राधे 🌸
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (094)
सुंदर कथा ५८ (श्री भक्तमाल – श्री निषाद वसु और उसका पुत्र)
दक्षिण भारत में वेंकटगिरि ( तिरुपति बालाजी ) सुप्रसिद्ध तीर्थ है । महर्षि अगस्त्य की प्रार्थना से भगवान् विष्णु ने वेङ्कटाचल को अपनी नित्य निवास – भूमि बनाकर पवित्र किया है । पर्वतके मनोरम शिखरपर स्वामिपुष्करिणी तीर्थ है, जहाँ रहकर पार्वतीनन्दन स्कन्द स्वामी प्रतिदिन श्रीहरि की उपासना करते हैं । उन्हींके नामपर उस तीर्थ को स्वामि पुष्करिणी कहते हैं । उसके पास ही भगवानका विशाल मन्दिर है, जहाँ वे श्रीदेवी और भूदेवीके साथ विराजमान हैं । सत्ययुग में अंजनागिरि, त्रेता में नारायण गिरि, द्वापर में सिंहाचल और कलियुग में वेङ्कटाचल को ही भगवान का नित्य निवास – स्थान बताया गया है । कितने ही प्रेमी भक्त यहाँ भगवानके दिव्य विमान एवं दिव्य चतुर्भुज स्वरुपका सुदुर्लभ दर्शन पाकर कृतार्थ हो चुके हैं । श्रद्धालु पुरुष सम्पूर्ण पर्वतको ही भगवत्स्वरुप मानते हैं ।
पूर्वकालमें वेंकटाचलपर एक निषाद रहता था । उसका नाम था वसु । वह भगवानका बड़ा भक्त था । प्रतिदिन स्वामि पुष्करिणी में स्नान करके श्री निवास की पूजा करता और श्यामाक ( सावाँ ) के भात में मधु मिलाकर वही श्री भूदेवियोंसहित उन्हें भोगके लिये निवेदन करता था । भगवान के उस प्रसाद को ही वह पत्नी के साथ स्वयं पाता था । यही उसका नित्यका नियम था । भगवान् श्रीनिवास उसे प्रत्यक्ष दर्शन देते और उससे वार्तालाप करते थे । उसके और भगवानके बीचमें योगमायाका पर्दा नहीं रह गया था । उस पर्वतके एक भागमें सावाँका जंगल था । वसु उसकी सदा रखवाली किया करता था, इसलिये कि उसीका चावल उसके प्राणाधार प्रभुके भोगमें काम आता था । वसुकी पत्नीका नाम था चित्रवती । वह बड़ी पतिव्रता थी ।
दोनों भगवानकी आराधना मे संलग्न रहकर उनके सान्निध्य का दिव्य सुख लूट रहे थे । कुछ कालके बाद चित्रवती के गर्भसे एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ । वसु ने उसका नाम ‘वीर’ रखा। वीर यथानाम – तथागुणः था । उसके मनपर शैशवकाल से ही माता – पिता दोनों के भगवच्चिन्तन का गहरा प्रभाव पड़ने लगा । जब वह कुछ बड़ा हुआ, तब प्रत्येक कार्यमें पिताका हाथ बँटाने लगा । उसके अन्त: करण में भगवानके प्रति अनन्य भक्ति का भाव भी जग चुका था । भगवान् बड़े कौतुकी हैं । वे भक्तोंके साथ भाँति – भाँति के खेल खेलते और उनके प्रेम एवं निष्ठाकी परीक्षा भी लेते रहते हैं । एक दिन वसुको ज्ञात हुआ कि घरमें मधु नहीं हैं । भगवानके भोगके लिये भात बन चुका था ।
वसुने सोचा की मधु के बिना मेरे प्रभु अच्छी तरह भोजन नही कर सकेंगे । अतः वह वीरको सावाँके जंगल और घरकी रखवालीका काम सौंपकर पत्नीके साथ मधुकी खोजमें चल दिया । बहुत विलम्ब के बाद दूरके जंगल में मधु का छत्ता दिखायी दिया । वसु बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने युक्ति से मधु निकाला और घरकी और प्रस्थान किया । इधर निषाद – कुमार वीरने यह सोचकर कि भगवान के भोग में विलम्ब हो रहा है ,तैयार किये हुए भातको एक पात्रमें निकाला । उसमें से कुछ अग्निमें डाल दिया और शेष सब भात वृक्षकी जड़ में स्थापित करके भगवानका आवाहन किया । भगवानने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उसका दिया हुआ भोग स्वीकार किया । तत्पश्चात् प्रभुका प्रसाद पाकर बालक वीर माता – पिताके आनेकी बाट देखने लगा । वसु अपनी पत्नीके साथ जब घर पहुँचा, तब देखता है, वीरने भातमेंसे कुछ अंश निकालकर खा लिया है । इससे उसे बड़ा दुःख हुआ ।
प्रभु के लिये जो भोग तैयार किया गया था , उसे इस नादान बालक ने उच्छिष्ट कर दिया ! यह इसका अक्षभ्य अपराध है । यह सोचकर वसु कुपित हो उठा । उसने तलवार खींच ली और वीरका मस्तक काटनेके लिये हाथ ऊँचा किया । इतनेमें ही किसीने पीछेसे आकर वसु का हाथ पकड़ लिया । वसुने पीछे वृक्षकी ओर घूमकर देखा तो भक्तवत्सल भगवान् स्वयं उसका हाथ पकड़े खड़े हैं । उनका आधा अङ्ग वृक्षके सहारे टीका हुआ है । हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा सुशोभित हैं । मस्तकपर किरीट, कानोंमें मकराकृति कुण्डल, अधरोंपर मन्द मन्द मुसकान और गलेमें कौस्तुभमणिकी छटा छा रही है । चारों ओर दिव्य प्रकाशका पारावार – सा उमड़ पड़ा है ।
वसु तलवार फेंककर भगवान के चरणों में गिर पड़ा और बोला – देवदेवेश्वर ! आप क्यों मुझे रोक रहे हैं ? वीर ने अक्षम्य अपराध किया है । भगवान् अपनी मधुर वाणी से कानों मे अमृत उड़ेलते हुए बोले – वसु ! तुम उतावली न करो ! तुम्हारा पुत्र मेरा अनन्य भक्त है । यह मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है । इसीलिये मैंने इसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया है । इसकी दृष्टि मे मैं सर्वत्र हूँ, किंतु तुम्हारी दृष्टि मे केवल स्वामि पुष्करणी के तटपर ही मेरा निवास हैं ।( संतो द्वारा सर्वत्र भगवत्दर्शन यही सबसे ऊँची अवस्था है । नामदेव जी को भी गुरु प्राप्ति के बाद ही सर्वत्र भगवान् के दर्शन होने लगे – प्रेतों में ,कुत्ते में । )भगवान का यह वचन सुनकर वसु बड़ा प्रसन्न हुआ । वीर और चित्रवती भी प्रभु के चरणो मे लोट गये । उनका दुर्लभ कृपा – प्रसाद पाकर यह निषाद – परिवार धन्य – धन्य हो गया !
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.16
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तत्रैवं सति कर्तारमात्मनं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः || १६ ||
तत्र – वहाँ; एवम् – इस प्रकार; सति – होकर; कर्तारम् – कर्ता; आत्मानम् – स्वयं का; केवलम् – केवल; तु – लेकिन;यः – जो; पश्यति – देखता है; अकृत-बुद्धित्वात् – कुबुद्धि के कारण; न – कभी नहीं; सः – वह; पश्यति – देखता है; दुर्मतिः – मुर्ख ।
भावार्थ
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अतएव जो इन पाँच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देखता ।
तात्पर्य
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मुर्ख व्यक्ति यह नहीं समझता कि परमात्मा उसके अन्तर में मित्र रूप में बैठा है और उसके कर्मों का संचालन कर रहा है । यद्यपि स्थान, कर्ता, चेष्टा तथा इन्द्रियाँ भौतिक कारण हैं, लेकिन अन्तिम (मुख्य) कारण तो स्वयं भगवान् हैं । अतएव मनुष्य को चाहिए कि केवल चार भौतिक कारणों को ही न देखे, अपितु परम सक्षम कारण को भी देखे । जो परमेश्र्वर को नहीं देखता, वह अपने आपको ही कर्ता मानता है ।
