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March 12, 2025 4:00 am

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 श्रीसीताराम शरणम् मम [108-2]“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-17”,श्री भक्तमाल (117) तथा श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏

मैंजनकनंदिनी..1️⃣0️⃣8️⃣
भाग 2

( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

उद्भवस्थिति संहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करी सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।

मैं वैदेही !

पर वो ऋषि मुनि वहाँ से हटेंगे नही….रावण के दूत नें ये भी स्पष्ट कहा ।

अगर वो लोग वहाँ रहना चाहते हैं ….तो “कर” दें ………प्रजा क्या अपनें स्वामी राजा को “कर” नही देती ? रावण के विनाश का समय आगया था ………..त्रिजटा नें मुझे बताया ।

फिर आगे क्या हुआ त्रिजटा ! मुझे उत्सुकता थी ।

पर जिनके पास कौपीन तक नही हैं ……..वो क्या “कर” देंगें लंकेश ?

“रक्त” ऋषियों का रक्त सुना है तपश्वीयों के रक्त में अलग ही स्वाद होता है ।……..नरभक्षी बन चुका था रावण ……….।

और उसके साथ नरभक्षी दैत्य ही रहते थे ……सब हँसे ।

ये हमारे लोग पीएंगें उन ऋषियों का रक्त ………………..

क्यों पीयोगे ना ? रावण नें अपनें राक्षसों की ओर देखा ।

भाले तलवार को हवा में उछालते हुये सब बोले …..हाँ हम पीयेंगे ।

जाओ ! और दण्डकारण्य के समस्त ऋषियों का रक्त इस घड़े में ले आओ ……..रावण नें एक सुन्दर सा घड़ा भी दिया ।


श्रीहरि की मंगलमय कथा का गान कर रहे थे ऋषि अगत्स्य ।

हजारों ऋषि मुनि सब श्रोताओं के रूप में वहाँ उपस्थित थे ।

श्रीहरि के पावन नाम से वह दण्डकारण्य गुंजित था ………..वहाँ की वायु , वहाँ का अणु परमाणु सब प्रेमपूर्ण था ।

ऋषि अगत्स्य !

“सारक” नामक दूत अपनें साथ कुछ राक्षसों को लेकर पहुँच गया था ।

भगवत्कथा चल रही थी……सब ऋषि मुनि उस रस में डूबे हुए थे ….

तब राक्षसों नें विघ्न डाल दिया ।

हे ऋषि अगत्स्य !

हाँ कहिये !

आप लोग कौन हैं ? कथा को रोक दिया ऋषि अगत्स्य नें और उन राक्षसों से पूछा ।

पहले तो हँसे समस्त राक्षस ……फिर बोले …..ऋषि अगत्स्य ! हमारी बात अब ध्यान से सुनो………जिस अरण्य में तुम लोग रह रहे हो …………ये अरण्य अब दशानन को भेंट में “मय दानव” नें दे दिया है ……..इसलिये अब ये दण्डकारण्य रावण का है ।

हे शूर ! हमें क्या फ़र्क पड़ता है कि ये अरण्य किसी का भी हो …..हमें तो अपनी साधना- सत्संग करनी है ……….ऋषि अगत्स्य नें कहा ।

मैं ज्यादा कुछ नही कहूँगा ……….”सारक” बोला …….महाराज दशानन का आदेश है कि आप लोगों को “कर” देना होगा। …………..।

“कर” ? चौंके ऋषि अगत्स्य ………………हम ऋषि तुम लोगों को क्या देंगें ? हमारे पास तो वस्त्र भी नही हैं ……………….

रक्त तो है ? एक राक्षस बोल उठा ………….

ये सुनते ही एक क्षण के लिए क्रोध से आँखें लाल हो गयीं थीं ऋषि अगत्स्य की …….फिर ऊपर की ओर देखा …..आँखें बन्द कीं ……..फिर मुस्कुराये …………हे श्रीहरि ! लीला करना चाह रहे हो ! तो आपकी ये इच्छा भी पूरी हो ………संहार करो इन सब राक्षसों का ………

आँखें खोलीं ऋषि अगत्स्य नें और ……………..

राक्षस एक घड़ा लाये थे ………सामनें एक काँटेदार वृक्ष था ऋषि स्वयं गए और एक काँटा तोड़कर ले आये …….अपनें बाहु में उस काँटे को चुभाया ……….रक्त बह चला ।

क्रमशः….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-17”

( पूतना मौसी मर गयी…)


मैं मधुमंगल….

मोकूँ हँसी आय रही है …मैंने ही बा राक्षसी कूँ ‘मौसी’ कही ही । बाद मैं जब कन्हैया बड़ौ भयो…तबहूँ मैं कहतौ …चौं रे कन्हैया ! तैंने तो पूतना ‘मौसी’ कूँ चूस के ही मार डाल्यो । तब अन्य सखा कहते …मनसुख ! मौसी चौं कहे बा राक्षसी ते ? तब मैं कहतौ ….या सारे कन्हैया ते पूछले …चौं रे तेरी मौसी ना ही का बु राक्षसी ? कन्हैया कुछ नाँय कहतौ तौ मैं ही सबन्ने बतातौ …याके मामा की बहन है ….याकौ मामा हूँ राक्षस है ….मैं हँसते भये कहतौ ….तो उलझ जातौ मोते कन्हैया …लड़ पड़तौ …कहतौ …दारीके ! तेरौ मामा होयगो राक्षस , मेरौ मामा तौ राजा है ….तब मैं बाते कहतौ ….मौसी तो तेरी ही ही ….और तैनैं ही बाकूँ मार दियौ ।

मौसी कूँ चौं मार्यो ? मैं पूछतौ तो बू चुप ही है जातौ ।


बृजराज तो चले गए मथुरा ….लेकिन गोकुल में पूतना मौसी कौ पदार्पण भयौ । जा सम्मानित शब्द कौ प्रयोग मैंने जा लिए करी कि ….कन्हैया की मौसी है …कोई साधारण नही ।

बा दिना सब नाच रहे गा रहे ….धूम मची हती …..धन,अन्न, वस्त्र मैया बृजरानी सबन्ने बाँट रहीं …सब बधाई ले ले के उमंग में चले जा रहे ….लेकिन मेरौ ध्यान गयौ बाही समय आकाश में …..जे का है ? मेरे कछु समझ में नही आय रह्यो हो । एक काली परछाँईं …उड़के गोकुल के आकाश में स्थिर है गयी ही । मैंने जब ध्यान ते देख्यो तो मोकूँ लग्यो …..गोकुल कूँ कोई देख रह्यो है । बहुत देर तक मैं देखतौ रह्यो ….एक बार मोकूँ लगी कि मैं सबन्ने कह दऊँ ….कि देखो …कोई अलाय बलाय आयी है …संभल जाओ । लेकिन बृज के लोग बहुत सीधे हैं ….वैसे वीर हैं …लेकिन कन्हैया कूँ लेके बड़े भयभीत रहे हैं ….जे इनकौ स्नेह है नन्द लाल के प्रति ।

तो मैंने काहूँ ते कछु नाँय कही ।

लेकिन अचम्भों मोकूँ तब भयौ ….जब बू परछाँईं ….पृथ्वी में उतरके आयी और एक अतिसुन्दरी कौ रूप बाने धर लियौ । अरे वाह ! जे तो अप्सरा है …मैं अकेले ही ताली बजायवे लग्यो ….तो बू मायावी मेरे पास आयी …और मटकते भए बोली …’बृजराज भवन’ कहाँ है ? मैं तो कछु नाँय बोल्यो ….बस संकेत कर दियौ कि …वहाँ जाओ । बु गयी । दुपहरी कौ समय है गयो हो ….भोजन आदि के लिए सब इधर उधर जाय रहे ……मैया बृजरानी लाला कन्हैया कूँ दूध पिवायवे वारी ही …कि मायावी पहुँच गयी । अरे ! मैया तौ देखती रह गयी ….कितनी सुन्दर है ….मानों सुन्दरता की देवी है ।

कहो ! कहाँ ते आयी हो ? मुस्कुराते भए बृजरानी पूछ रही हैं ।

मथुरा ते आयी हूँ …ब्राह्मणी हूँ ….बस मैंने सुन्यौ कि तुम्हारे यहाँ एक लाला कौ जन्म भयौ है जा लिए आयी हूँ । मायावी के मुख ते जे सुनते ही मैया बृजरानी खड़ी हैं गयीं ….ब्राह्मण के नाम ते मैया ने अपनौ सर हूँ बाके सामने झुकाय लियो । जे है मेरौ लाला ! अपनी गोद ते ही मैया मायावी कूँ अपनौ लाला दिखाय रही हैं । लेकिन मायावी तौ …”मेरी गोद में दे दो”…..मायावी की बोली में हूँ जादू है ….मैं दूर ते कहनौं चाह रह्यो हूँ ….कि मैया काहू के हूँ हाथन में मत दे लाला कूँ ….नज़र लग जाएगी । लेकिन मैं हूँ बोल्यो नही । अब बा मायावी की गोद में है लाला ।

कछु खाओगी ? मैया पूछ रही है ।

जल , प्यास लगी है ….जल पिला दो । मायावी कूँ जल पीनौ है ।

मैया भोली भाली , चली गयीं भीतर जल लायवे कूँ ।

इधर मायावी ने कन्हैया कूँ देख्यो ….फिर इधर उधर देखके ….अपने दाहिने स्तन कूँ बाहर निकाल्यो…..और कन्हैया के मुख में दे दियौ । लेकिन मुख में देते समय …..कछु बाने अपने स्तन में लगायौ हो । विष …हलाहल विष । हाँ ….अब मैं समझ गयो ….विष लगाय के कन्हैया कूँ मारनौं चाह रही है …कछु नाँय होयगौ ….लाला ! तू चिंता मत कर …मैंने मन ही मन प्रार्थना करी …कौन की प्रार्थना ? अरे , भगवान विश्वनाथ की प्रार्थना …विष कूँ वही तो पीमेंगें ।

लेकिन …चीख उठी मायावी तो । मोकूँ हँसी आयी ….चूस लियौ कन्हैया ने । हाँ , स्तन चूसते भए कन्हैया ने मायावी के प्राणन कूँ हूँ चूस लियौ हो । अब मायावी अपने रूप में आय गयी …बाकी छाती ते चिपक गयौ अपनौं कन्हैया । बु तौ भागी …अरे राम ! इतनौं विशाल बाकौ रूप …कारौ कज्जल सौ रूप । हाथी से पांम …अरे राम ! मैं तौ दौड़ पड्यो बाही के पीछे । बु मायावी चिल्ला रही …बु मायावी, “छोड़ो,छोड़ो” कहती भई भाग रही । गोकुल के लोग अब समझ गए कि ये कोई राक्षसी है …ग्वाले वीर हैं ….अहीर वीर जातियों में गिनी जाती है । मोते पूछवे लगे ….मधुमंगल ! कहा भयौ ? मैंने कह दियौ …राक्षसी कौ आक्रमण हे गयौ है गोकुल में….मेरी बात सुनते ही सब अपने अपने घरन ते लट्ठ ..बल्लम ..फरसा ले लेके आए गये ….और राक्षसी के पीछे भागवे लगे …राक्षसी चीख रही … चिल्लाय रही …भागते भये ग्वाले मोते पूछ रहे ……जे चीख चौं रही है ? मैंने कही ….अपने लाला कन्हैया ने बाकी छाती काट दई है ……काहे ते ? मैंने कही ….अपने मोहडे ते ।

तभी आगे जाय के धड़ाम ते राक्षसी गिरी ……मैं हूँ तेज दौड़तौ भयौ जाय रो …पूतना गिरी तौ बाही के ऊपर मैं हूँ गिर गयौ …मेरे पीछे ग्वाल बाल जो भग के आरहे बु हूँ गिर गये । लाला कन्हैया हमें देखके हँसवे लग्यो ….लेकिन सारे ने दूध नही छोड़ो ……कोई बात नही …मौसी है तेरी, पी ले लाला दूध …….तौ कन्हैया हँसवे लग्यो …….नीचे भीड़ है ….सब ग्वाल बाल पूछ रहे …का भयौ ? मैंने उठते भये कही ……”पूतना मौसी मर गयी”। मेरी बात सुनते ही लाला फिर खिलखिलाय के हँस दियो हो …….

क्रमशः…..

Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (117)


सुंदर कथा ७४ (श्री भक्तमाल – श्री प्रयागदास जी ) (भाग 01)

पूज्यपाद श्री विन्दुजी ब्रह्मचारी ,भगवती मंजुकेशी देवी ,श्री पंचरसचार्य रामहर्षण दास जी महाराज , बाबा बालकृष्ण दास जी महाराज के कृपाप्रसाद एवं लेखो से प्रस्तुत भाव ।

जनकपुर में एक ब्राह्मण दम्पत्ति वास करते थे । ब्राह्मण परम विद्वान् और प्रेमी थे । ब्राह्मण बड़े बड़े लोगो के यहां आया जाया करते थे , बड़े बड़े विद्वान् उनके साथ चलते थे । धन ,सम्पत्ति की भी कोई कमी न थी परंतु उनके घर बहुत समय से कोई संतान उत्पन्न नहीं हो रही थी और इसी कारण से वे दोनों पति- पत्नी बहुत दुखी रहते थे । एक दिन उनके घर में एक संत जी पधारे । ब्राह्मण पति -पत्नी ने संत जी की बड़ी उचित प्रकार से सेवा की और सत्कार किया । ब्राह्मण संत से प्रार्थना करते हुए बोले – हे संत भगवान् ! विवाह होकर बहुत वर्ष बीत गए परंतु हमारे कोई संतान नहीं है ,आप कृपा करे ।

संत जी बोले – यदि तुम भावपूर्ण निरंतर संतो की सेवा में लगे रहो तो तुम्हे पुत्र प्राप्त होगा । संत के कहे अनुसार ब्राह्मण दंपत्ति निरंतर संत सेवा में रत रहने लगे । उन दिनों प्रयाग में कुम्भ पड़ा , ब्राह्मण पति पत्नी दोनों कुम्भ में पधारे और वहाँ सभी संतो की बहुत प्रेम से सेवा करी । वापस जनकपुर लौट आनेपर कुछ ही समय बाद पत्नी गर्भवती हो गयी । भगवान् बड़े विचित्र लीला विहारी है ,उनकी लीला कोई नहीं समझ सकता । जैसे जैसे गर्भ बढ़ता जा रहा था वैसे वैसे ब्राह्मण बीमार होते गए और जैसे ही बालक प्रकट हुआ तो ब्राह्मण जी परलोक सिधार गए ।अब वह ब्राह्मणी माता अकेले ही बालक का पालन पोषण करने लगी । प्रयाग में संत सेवा करने के कारण यह बालक उत्पन्न हुआ था अतः इसका नाम प्रयागदत्त रख दिया ।

प्रयागदत्त अर्थात प्रयाग द्वारा प्रदत्त । बालक थोडा बड़ा हुआ तो एक दिन घर में आग लग गयी , सब जल कर राख हो गया । ब्राह्मण के प्रभाव के कारण घर में बड़े बड़े लोगो का ,यजमानो का आना जाना लगा रहता था । वह लोग धन दे जाते थे परंतु बालक पैदा होने पर सब लोग कहने लगे – बालक के घर में आते ही पिता की मृत्यु हो गयी और कुछ ही समय बाद घर में आग भी लग गयी ,अवश्य ही यह बालक बड़ा अनिष्टकारी है । ब्राह्मणी आस पास के घरों से अन्न मांग लाती और किसी तरह बालक को खिलाती । जब बालक लगभग आठ वर्ष का था तब खेलने कूदने की इच्छा से आस पास के लड़को से खलने के लिए चला जाता परंतु उन बालको के घरवाले कह देते की यह प्रयगदत्त बड़ा अनिष्ठ बालक है ,उसके साथ रहोगे तो हानि ही होगी ।

बड़े बड़े संत महात्मा भ्रमण करते करते प्रगयदत्त का दर्शन करने आते । आस पास के लोग समझ नहीं पाते थे की इस अनिष्ट प्रयागदत्त को देखने संत महात्मा क्यों आते है ? उन्हें यह ज्ञात नहीं था की यह बालक अनिष्टकारी नहीं अपितु परम संत है । एक दिन राखी पौर्णिमा (रक्षाबंधन ) का त्यौहार आया । प्रयागदत्त पास ही के एक घर में देख रहे थे की सब भाई बहन बड़े आनंद से त्यौहार मानाने लगे । बहने अपने भाइयो का पूजन करके राखी बाँधती । मिठाई पवाती , दुलार करती और भाई के मंगल की प्रार्थना करती । प्रयाग दत्त ने घर आकर अपनी माता से पूछा -माँ! क्या मेरे और कोई नहीं है ?राखी बाँधने के लिए क्या मेरी कोई बहन नहीं? माता ने बच्चे के सन्तोषार्थ कह दिया -हाँ बेटा ! तुम्हारे है क्यों नहीं कोई । तुम्हारी एक बहन हैं । बालक बोला – कहा है मेरी दीदी ? उनका नाम क्या है ?वो मुझे कभी दिखी क्यों नहीं ? माँ बोली -बेटा तुम्हारे बहनोई (जीजा ) बहुत बड़े राजा है ,वे बहुत दूर अयोध्या नगर में रहते है और दीदी उनकी सेवा में व्यस्त रहती है ।

तुम्हारी दीदी का नाम जानकी है और उनका विवाह अयोध्या में चक्रवर्ती राजाधिराज महाराज दशरथ के बेटे श्री रामचंद्र से हुआ है । अयोध्या उनकी राजधानी है और तुम्हारे बहनोई श्रीरामचंद्र जी वहाँ के राजा है । मिथिला की माताएँ स्वभावत: श्री जानकी जी के प्रति पुत्री या भगिनी भाव रखती है । बच्चे ने कहा -तो माँ! मैं उनके पास जाऊंगा । माता बोली- अच्छा, कुछ और बड़े हो तब जाना । इस प्रकार टाल दिया । लेकिन बालक के हृदय में बहनोई बस गये । उसको सुरति बहनोई में लग गयी । किसी तरह कुछ दिन बीते । फिर एक दिन प्रयागदत्त ने माता से कहा – माँ ! अब तो मैं सयाना हो गया । अब मुझे बहनोई के पास जाने दो । माता ने समझाया पर ब्लाक नहीं माना । वह कहने लगा – अपने दीदी और जीजा जी को देखे बिन ,मुझे खाना पीना कुछ अच्छा नहीं लग रहा ।

माता सोचने लगी की जानकी जी क्या अपने इस अबोध भाई की उपेक्षा कर सकती है ? माता ने उत्तर दिया – ठीक है तुम जाओ परंतु सोचने लगी की बेटी के घर खाली हाथ जाना भी अच्छा नहीं लगता । माता ने कहा – बेटा ! तुम ठहरो, मैं तैयारी कर दूँ, बहिन के लिये कुछ लेते जाओ । उस समय जनकपुर से कुछ लोग अयोध्या ओर जा रहे थे । माता ने सोचा की प्रयागदत्त को इनके साथ भेजकर कनक बिहारिणी बिहारी (सीताराम) जी के दर्शन कराकर लौटा लायेंगे । माता ने आस पास से मांगकर चावला के कुछ कण इकट्ठे किये थे । आज भगवत्कृपा से माता को अच्छे चावल मिल गए । उन्हें पीसकर और मीठा मिलाकर कुछ मोदक बनाये, जिन्हें मिथिला में ‘कसार’ कहते हैं । माता ने कहा – यह मोदक तुम्हारे जीजा जी और दीदी के लिए है । उन कसारों की पोटली प्रयागदत्त को देकर विदा किया और कुछ सत्तू (भूने हुए जौ और चने को पीस कर बनाया जाने वाला व्यंजन ) उनके खाने के लिये भी दे दिया ।

अगला भाग –02 कड़ी संख्या (118) में देखें


] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.40
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न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणै: || ४० ||

न– नहीं; तत्– वह; अस्ति– है; पृथिव्याम्– पृथ्वी पर; वा– अथवा;दिवि– उच्चतर लोकों में; देवेषु– देवताओं में; वा– अथवा; पुनः– फिर; सत्त्वम्– अस्तित्व; प्रकृति-जैः– प्रकृति से उत्पन्न; मुक्तम्– मुक्त; यत्– जो; एभिः–इनके प्रभाव से; स्वात्– हो; त्रिभिः– तीन; गुणैः– गुणों से |

भावार्थ
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इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसाव्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो |

तात्पर्य
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भगवान् इस श्लोक में समग्र ब्रह्माण्ड में प्रकृति के तीनगुणों के प्रभाव का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं |

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