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August 2, 2025 4:11 am

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श्रीसीताराम बनशरणम् मम ( 110-3), श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ कीआत्मकथा-25,] श्री भक्तमाल 125 तथा श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>> 1️⃣1️⃣0️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

फिर उसके बाद ये सब राक्षसियाँ मुझे परेशान करनें लगीं ………

त्रिजटा नें उन राक्षसियों को घूरा ……………………..

फिर सहज होती हुयी त्रिजटा बोली ………….

अब मेरी बात सुनो ………………मेरा सपना !

सपना ? मैने त्रिजटा की बात पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी ।

आप क्या समझती हैं रामप्रिया ! “मेरा सपना सत्य होता है”

ये कहते हुये उसकी आँखों में चमक था ।


मैने देखा श्रीराम अपनें भाई लक्ष्मण के साथ आये हैं लंका में ……..

चारों ओर जयजयकार हो रहे हैं …………….

आप यहाँ अशोक वाटिका से निकल कर अपनें पिया श्रीराम से मिलनेँ जा रही हैं ……….हे रामबल्लभा ! दिव्य पुष्पक विमान है ….वाम भाग में आप विराजमान हैं……दाहिनें और श्रीराघवेंद्र ……पीछे चँवर लिए लक्ष्मण जी ……विमान चल पड़ा है अयोध्या की ओर …….

देवों से आकाश आच्छादित है …..त्रिजटा नें सुन्दरतम स्वप्न सुनाया ।

फिर बोली ……..इतना नही ………………..

आओ ! इधर आओ राक्षसियों ! तुम लोग भी सुनो ………..मेरा सपना सत्य होता है ………………त्रिजटा नें वहाँ खड़ी समस्त राक्षसियों को अपनें पास बुलाया ……..और सबको अपना सपना सुनानें लगी ।

दूसरी ओर ……………….रावण गधे में बैठा है ………….और अन्धकार में चला जा रहा है ………उसके सिर के बाल कटे हुए हैं …………..

लंका में चारों और मरे हुए राक्षसों के शरीर पड़े हुए हैं …………..चील कौवा इत्यादि सब खा रहे हैं …………..मध्य में रावण का शरीर भी पड़ा हुआ है ……..पर वो हँस रहा है ………..फिर उसके शरीर को तैल में रखा जाता है ……………….

त्रिजटा सपना बता रही है ……………….

तभी मैने देखा एक बन्दर आया है कनकमय उसका देह था ……..

उसनें लंका को अस्तव्यस्त कर दिया है ………..राक्षसों नें उसे पकड़ लिया है ……और उसके पूँछ में आग लगा रहे हैं ……………..फिर तो देखते ही देखते वो बन्दर भाग जाता है …………लंका के ऊँचे शिखर में चढ़ जाता है …………और आग लगा देता है …..पूरी लंका जल जाती है ………..कोई कुछ नही कर पाता ………………….।

इतना सुनाकर त्रिजटा चुप हो गयी ………..मुझे आज अच्छा लगा …….कितना अच्छा सपना सुनाया था त्रिजटा नें ।

फिर बोली – मेरा सपना सच होता है …………………….

ये कहते हुए वो नजरें घुमाकर राक्षसियों को देखनें लगी थी …..

मेरा सपना सच होता है …………….

मैनें देखा राक्षसियों के चेहरे में भय व्याप्त हो गया था ।

तुम लोग रावण की बात मान रहे हो !……….राक्षसियों को सम्बोधित करते हुए बोल रही थी त्रिजटा ।

ये रावण तो कल मरनें वाला है ………..और अपनें साथ ये सबको मारेगा …….मेरी बात मानों ये जगदम्बा हैं ……..ये जगजननी हैं ….इनके चरण पकड़ो ……….ये कहकर त्रिजटा शान्त हुयी थी …………।

सब राक्षसियों नें सिर झुका लिया था और मुझे प्रणाम करनें लगी थीं ।

पर कुछ देर में त्रिजटा चली गयी ……उसे आज रात्रि में कुछ काम था ………मैं उस रात्रि में राम ! राम ! राम ! यही जपते हुये बैठी थी …….कि तभी –

शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌷 जय श्री राम 🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-25”

( मधुमंगल की खीर )


मैं मधुमंगल …..

आज कन्हैया की बरसगाँठ आयी है । वर्षा ऋतु आरम्भ भई …फिर सावन फिर भादौं । भादौं कृष्ण अष्टमी । बृजराज बाबा ने गोकुल के सबरे बृजवासिन कूँ न्यौतौ दियौ । स्वयं जा जा के बुलाय रहे हैं । ऐसौ अद्भुत व्यवहार बृजराज कौ देखके सब लोग भाव विभोर है रहे हैं ।

इधर नन्दभवन के द्वार पे बंदनवार लगाये गए हैं …..सोने के कलश धराये हैं …..पंच पल्लवन ते नन्द भवन कूँ सजायौ गयौ है । मैया बृजरानी स्वयं सज धज के तैयार बैठी हैं ……उनकी गोद में कन्हैया है ….अभै तौ याने स्नान कियौ है …..फिर घुंघराले केशन में सुगंधित तैल लगाय के ऊपर की चोटी बनाए दई है मैया ने । बा चोटी में मोर कौ एक पंख हूँ खौंस दियौ है । लाला के आँखन में मोटौ काजल लगायौ है । पीले वस्त्र पहनाए हैं लाला कूँ ….नीचे काछनी है ….गले में मोतिन कौ हार है । तभी रोहिणी मैया भी सज धज के आयीं …उनकी गोद में दाऊ भैया है । दाऊ भैया कूँ देखते ही …भैया , भैया कहवे लगे कन्हैया । रोहिणी मैया ने दाऊ कूँ नीचे छोड़ दियौ…दाऊ भैया कूँ नीचे बैठ्यो देखके कन्हैया रोयवे लगे गोद में ते उतरवे के लिए उछलवे लगे । मैया बृजरानी ने हूँ लाला कन्हैया कूँ गोद ते नीचे उतार दियौ । अब तौ दोनों भाई खेलवे लगे हैं ।

तभी …बृजराज बाबा आगये …उनके संग कई बृजवासी गोप हे….लेकिन बृजराज के दाहिनी ओर ब्राह्मण थे …जो सब वेदमन्त्र कौ उच्चारण करते भए चल रहे हे । ब्रजराज ने आते ही सबते पहले विप्रन कौ पूजन कियौ …फिर दान दक्षिणा देवे लगे । जे सब चौं कर रहे हैं बृजराज बाबा ? चौं कि …”मेरौ छोरा उन्नत हो , मेरौ छोरा दिनोंदिन बढ़तौ ही जावे”…..जा लिए बृजराज बाबा दान-पुण्य कर रहे हैं ।

अब का होगौ ? मैंने ही बृजराज बाबा ते पूछी ही ।

चौं ? तू काहे कूँ पूछ रो है मनसुख ! बृजराज बाबा ने हँसते भए मौते पूछी । तौ मैंने हूँ कह दई ….बाबा ! भूख लग रही है ।

अच्छों अच्छों ! हाँ तौ बस मनसुख ! अब ब्राह्मण भोज ही होयगौ । बृजराज बाबा के जे कहते ही मैं तौ प्रसन्न है के कन्हैया के पास गयौ …..कन्हैया मोते पूछ रो …का बात है ? मैंने कही …अब भोजन मिलेगौ । फिर मैंने कही …लाला ! आज कहा बन्यो है रसोई में , मैं देखके तौ आऊँ । जे कहके मैं रसोई में गयौ …..तौ मैंने कहा देखी ….बढ़ियाँ खीर घुट रही ….मैया खीर घोट रही । मैं वहाँ ते प्रसन्नता में बाहर आयौ । लाला मोते पूछ रो …का भयौ ? मैंने कही ..यार ! आज तौ खीर बन रही है । पर मनसुख लाल जी ! तुमकूँ खीर नाँय मिलैगौ ।
चौं न मिलैगौ ? मैं तनगो ।

अब दान दक्षिणा आदि कौ काम हूँ पूर्ण भयौ …तौ अब बृजराज बोले …अब सब ब्राह्मण देवता आसन ग्रहण करें । सब ब्राह्मण बैठ गये …मोकूँ मैया यशोदा ने संकेत में कही …तू भी बैठ …अब मैं हूँ बैठ गयौ …भूख लग रही । पहले पूड़ी आयी , साग आयी , फिर लड्डू , फिर कचौड़ी …..फिर …मन्त्र पढ़ो गयौ ….लेकिन खीर नही आयी । मैं देख रो ….कि भीतर जो घुट रही खीर, बु नही आयी । अब सब पूड़ी साग लड्डू और कचौड़ी खा रहे हे । लेकिन मैं नही …मोकूँ तौ खीर चहिए । अब कन्हैया के हाथन में दक्षिणा दई और बृजराज बाबा कन्हैया कूँ लै कै दक्षिणा दिलवा रहे ब्राह्मणन कूँ । मेरे पास हूँ आयौ कन्हैया …और हँसतौ भयौ बोलो …मनसुख ! दक्षिणा ले । मैंने जोर ते चिल्लाके कही …मोकूँ खीर चहिए । बृजराज बाबा धीरे ते मेरे पास में आयके बोले ….खीर तुम्हें नही मिलेगी । चौं ? मैं बहुत दुखी है गयो । खीर नही मिलेगी ?

बृजराज बाबा फिर धीरे ते बोले ..देख , मनसुख ! खीर कच्चे में आवे …और तू ब्राह्मण है ….हम अहीरन के हाथ कौ कच्चो भोजन तू कैसे करेगौ ? या लिए हमने तुम्हारे लिए पूड़ी कचौड़ी लड्डू ये सब बनवाये हैं । लेकिन मैं तौ खीर खाऊँगौ …मैं हूँ अड़ गयौ ।

अब मेरी बात कूँ सुनके कन्हैया भीतर ते एक सकोरा में खीर लै आयौ …लेकिन मैया बृजरानी भीतर ते दौड़ीं और कन्हैया के हाथ ते खीर लै कै चली गयीं । मेरौ मन फिर उदास है गयौ । मोकूँ उदास देख के लाला हू उदास है गयौ ।

का भयौ ? बृजराज ने आय के फिर पूछी ।

मैं कछु नही बोलो ….तौ बाबा मोकूँ समझाते भए बोले …समझ मनसुख ! हम खीर तोकुँ नाँय दै सकैं ….चौं कि तू ब्राह्मण है ..और हम अहीर जात के हैं । पर बाबा ! मैं तौ खीर ही माँग रो हूँ …मैंने हूँ कह दियौ । हाँ , हाँ …लेकिन खीर कच्चे भोजन में आवे …या लिए हम तोकुँ नही दै सकें । बृजराज बाबा फिर वही बात दोहरायवे लगे हे । मोकूँ ग़ुस्सा आयी …मैंने कही बाबा ! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ । मेरी बात सुनके..बृजराज बाबा हँसे …बाकी सब भी हँसवे लगे हैं । अब तौ दै खीर …मैंने कही ।
बृजरानी मैया हंसती भई बोलीं भीतर ते …जनेऊ तौ तेरी दीख रही है ….तू ब्राह्मण ही है । मैंने हूँ मैया तै कह दई ….”मैया ! जो जनेऊ , कन्हैया के घर की खीर खायवे में बाधा पहुँचावे …बा जनेऊ कूँ तौ धिक्कार है”। जे कहते भए मैंने जैसे ही जनेऊ कूँ तोड़नौं चाह्यो …तभी …मैया और बाबा चिल्लाते भए बोले …अरे ! मनसुख ! जेनेऊ कूँ मत तोड़ ….लै खीर खा । फिर कन्हैया ने हँसते भए सकोरा में लायके खीर दियौ ……आहा ! जा खीर के काजे तौ हजारन जन्म कै ब्राह्मणपने कूँ हूँ न्यौछावर है । मैं अब लाला के बरस गाँठ की खीर खाय रो । लपटा लैकै खीर खाय रो ।

क्रमशः …..

Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (125)


सुंदर कथा ७९ (श्री भक्तमाल – श्री रामअवध दास जी ) भाग -02

डाकू घर में घुसे ही थे की उसी क्षण सचमुन एक विशाल वानर कूदता -फाँदता आ रहा है; डाकू उसकी ओर लाठी तान ही रहे थे कि उसने आकर दो तीन डाकुओं को तो ऐसी चपत लगायी कि वे गिर पड़े । डाकुओ का सरदार आगे आया तो उसे गिराकर उसकी दाढी पकडकर इतनी जोस्से खींची कि वह चीख मारकर बेहोश हो गया । डाकुओं की लाठियां तनी ही गिर पडी । वानर को एक भी लाठी नहीं लगी । मारपीट की शोरगुल से आसपड़ोस के लोग आने लगे और लोगो से पीटने के भय से कुछ डाकू भागे । सरदार बेहोश था, उसे तीन-चार डाकुओं ने कंधेपर उठाया और आग निकले ।

बालक रामलगन जी और उसकी माँ बडे आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे । डाकुओं के भागनेपर वह वानर भी लापता हो गया । बालक हंसकर कह रहा था -देखा नहीं माँ ! हनुमान जी मेरी आवाज़ सुनते ही आ गये और बदमाशो को मार भगाया । माँ के भी आश्चर्य और हर्ष का पार नहीं था । गाँव वालो में यह घटना सुनी तो सब-के-सब आश्चर्य में डूब गये ।रामलगन की माँ ने बताया कि इतना बडा और बलवान वानर उसने जीवन में कभी नहीं देखा था ।

दो-तीन दिन बाद पण्डित सत्यनारायण जी घर लौटे ।उन्होंने जब यह बात सूनी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । डाकू घर से चले गये , यह आनंद तो था ही; सबसे बडा आनंद तो इस बात से हुआ कि स्वयं श्री हनुमान जी ने पधरकर घर को पवित्र किया और` ब्राह्मणी तथा बालक को बचा लिया । वे भगवान् में श्रद्धा तो रखते ही थे, अब उनकी भक्ति और भी बढ़ गयी । उन्होंने यजमानों के यहां आना-जाना प्राय: बंद कर दिया था । दिनभर भजन-साधन मे रहने लगे । बालक रामलगन को व्याकरण उर कर्मकाण्ड पढ़ाने का काम उन्ही के गाँव के पंडित श्री विनायक जी के जिम्मे था ।

प्रात:काल तीन-चार घंटे पढ़ते । बाकी समय माता-पिता के साथ वे भी भगवान् का भजन करते । भजन में इनका चित्त रमने लगा । जब इनकी उम्र बारह वर्ष की हुई तब तो ये घंटो भगवान् श्री रामचंद्र जी के ध्यान मे बेठने लगे । उस समय इनकी समाधि-सी लग जाती । नेत्रो से अश्रुओ की धारा बहती । बह्यज्ञान नहीं रहता । समाधि टूटनेपर ये माता-पिता को बतलाते कि भगवान् श्री रामचंद्र जी श्री जनक नंदिनी जी तथा लखन लाल जी के साथ यहाँ बहुमूल्य राजसिंहासनपर विराज रहे थे । बालक की इस स्थिति से भाग्यवान माता-पिता को बड़ा सुख होता । वे अपने को बडा सौभाग्यशाली समझते । असल मे वे ही माता पिता धन्य है, जिनकी सन्तान भगवद्भक्त हो और जो अपनी संतान को भगवान् की सेवा में समर्पण कर सके।

रामलगन जी के माता- पिता सच्चे पुत्रस्नेही थे, वे अपने बालक को नर्क में न जाने देकर भगवान् के परमधाम का यात्री बनाने मे ही अपना सच्चा कर्तव्य पालन समझते थे; इसलिये उन्हाने पुत्र की भक्ति देखकर सुख माना तथा उसे और भी उत्साह दिलाया । गाँव के तथा सम्बन्ध के लोग जब रामलगन के विवाह के लिये कहते, तब माता पिता उन्हें डराकर उत्तर देते – यह रामलगन हमारा पुत्र नहीं है, यह तो प्रभु श्री रामचन्द्र जी का है; विवाह करना न करना उन्ही के अधिकार में है । हम कुछ नहीं जानते ! उनकी ऐसी बाते सुनकर कुछ लोग चिढते , कुछ प्रसन्न होते और कुछ उनक्री मूर्खता समझते । जैसी जिसकी भावना होती, वह वैसी ही आलोचना करता ।

रामलगन जी की उम्र ज्यो ज्यो बढने लगी, त्यों-ही-त्यों उनका भगवत्प्रेम भी बढने लगा । एक बार रामनवमी के मेले पर रामलगन जी ने श्री अयोध्या जी जानेकी इच्छा प्रकट की । पंडित सत्यनारायण जी और उनकी पत्नी ने सोचा – अब श्री अयोध्या जी में ही रहा जाय तो सब तरह से अच्छा है । शेष जीवन वही बीते । रामलगन भी वहीं पास रहे । इससे इसकी भी भक्ति बढ़ेगी और हमलोगो का भी जीवन सुधरेगा । ऐसा निश्चय करके पत्नी की सलाह से पण्डित सत्यनारायण जी ने घर का सारा सामान तथा अधिकांश खेत-जमीन वगैरह दान कर दिया । इतनी-सी जमीन रखी, जिससे अन्न वस्त्र का काम चलता रहे ।

एक कास्तकार को खेत दे दिया और हर साल उससे अमुक हिस्सेका अन्न लेने की शर्त करके सब लोग श्री अयोध्या जी चले गये । इस समय रामलगन जी की उम्र साढ़े पंद्रह वर्ष की यही । माता , पिता और पुत्र तीनो अवध वासी बनकर भगवान् श्रीसीताराम जी का अनन्य भजन करने लगे । पुरे चार वर्ष के बाद पिता माता का देहान्त हो गया । दोनो का एक ही दिन ठीक रामनवमी के दिन शरीर छुटा । दोनों ही अन्तसमयतक सचेत थे और भजन मे निरत थे । शरीर छूटने के कुछ ही समय दोनों को भगचान् श्री रामचन्द्र जी का ने साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ किया । श्री रामलगन जी की उम्र उस समय साढे उन्नीस साल की थी । माता पिता की श्रद्धा क्रिया भलीभाँति सम्पन्न करने के बाद इन्होंने अवध के एक भजनानन्दी संत से दीक्षा ले ली। तबसे इनका नाम स्वामी रामअवधदास हुआ ।

स्वामी जी मे उत्कट वैराग्य था । ये अपने पास कुछ भी संग्रह नहीं रखते थे । योगक्षेम का निर्वाह श्रीसीताराम जी अपने आप करते थे । इन्होंने न कोई कुटिया बनवायी, न चेला बनाया और न किसी अन्य आडम्बर मे रहे । दिन रात कीर्तन करना और भगवान् के ध्यानइ मस्त रहते, यही इनका एकमात्र कार्य था । इन्हे जीवन मे बहुत बार श्री हनुमान जी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे । भगवान् श्री रामचन्द्र जी के भी इनको सात बार दर्शन हुए । अन्तकाल में श्री रामचंद्र जी की गोद में सिर रखकर इन्होने शरीर छोडा । लोगो को विश्वास था कि ये बहुत उच्च श्रेणी के संत है । ये बहुत ही गृप्त रूप से रहा करते थे और बहुत गुप्त रूप से भजन भी किया करते थे।
[

] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.48
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सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः || ४८ ||

सहजम्– एकसाथ उत्पन्न; कर्म– कर्म; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; स-दोषम्– दोषयुक्त; अपि– यद्यपि; न– कभी नहीं; त्यजेत्– त्यागना चाहिए; सर्व-आरम्भाः– सारे उद्योग; हि– निश्चय ही; दोषेण– दोष से; धूमेन– धुएँ से; अग्निः– अग्नि; इव– सदृश; आवृताः– ढके हुए |

भावार्थ
🌹🌹🌹

प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएँ से आवृत रहती है | अतएव हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं |

तात्पर्य
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बद्ध जीवन में सारा कर्म भौतिक गुणों से दूषित रहता है | यहाँ तक कि ब्राह्मण तक को ऐसे यज्ञ करने पड़ते हैं, जिनमें पशुहत्या अनिवार्य है | इसी प्रकार क्षत्रिय चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, उसे शत्रुओं से युद्ध करना पड़ता है | वह इससे बच नहीं सकता | इसी प्रकार एक व्यापारी को चाहे वह कितना ही पवित्र क्यों न हो, अपने व्यापार में बने रहने के लिए कभी-कभी लाभ को छिपाना पड़ता है, या कभी-कभी कालाबाजार चलाना पड़ता है | ये बातें आवश्यक हैं, इनसे बचा नहीं जा सकता | इसी प्रकार यदि शुद्र होकर बुरे स्वामी की सेवा करनी पड़े, तो उसे स्वामी की आज्ञा का पालन करना होता है, भले ही ऐसा नहीं होना चाहिए | इन सब दोषों के होते हुए भी, मनुष्य को अपने निर्दिष्ट कर्तव्य करते रहना चाहिए, क्योंकि वे स्वभावगत हैं

यहाँ पर एक अत्यन्त सुन्दर उदहारण दिया जाता है | यद्यपि अग्नि शुद्ध होती है, तो भी उसमें धुआँ रहता है | लेकिन इतने पर भी अग्नि अशुद्ध नहीं होती | अग्नि में धुआँ होने पर भी अग्नि समस्त तत्त्वों में शुद्धतम मानी जाती है | यदि कोई क्षत्रिय की वृत्ति त्याग कर ब्राह्मण की वृत्ति ग्रहण करना पसन्द करता है, तो उसको इसकी कोई निश्चितता नहीं है कि ब्राह्मण वृत्ति में कोई अरुचिकर कार्य नहीं होंगें | अतएव कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि संसार में प्रकृति के कल्मष से कोई भी पूर्णतः मुक्त नहीं है | इस प्रसंग में अग्नि तथा धुएँ का उदाहरण उपयुक्त है | यदि जाड़े के दिनों में कोई अग्नि से कोयला निकालता है, तो कभी-कभी धुएँ से आँखें तथा शरीर के अन्य भाग दुखते हैं, लेकिन इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी अग्नि को तापा जाता है | इसी प्रकार किसी को अपनी सहज वृत्ति इसलिए नहीं त्याग देनी चाहिए कि कुछ बाधक तत्त्व आ गये हैं | अपितु मनुष्य को चाहिए कि कृष्णभावनामृत में रहकर अपने वृत्तिपरक कार्य से परमेश्र्वर की सेवा करने का संकल्प ले | यही सिद्धि अवस्था है | जब कोई भी वृत्तिपरक कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है, तो उस कार्य के सारे दोष शुद्ध हो जाते हैं | जब भक्ति से सम्बन्धित कर्मफल शुद्ध हो जाते हैं, तो मनुष्य अपने अन्तर का दर्शन कर सकता है और यही आत्म-साक्षात्कार है |

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