[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग>>>>>>> 1️⃣1️⃣1️⃣🌺*
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
रुको माँ ! मेरे पास एक प्रमाण और है ?
इतना कहकर अपनी जटाओं से मुद्रिका निकाली हनुमान नें …………और मेरे हाथों में दिया ………….
ये मुद्रिका ? रामनाम अंकित मुद्रिका ! ये कैसे आई तुम्हारे पास ?
मैने हनुमान से पूछा था ।
हे माँ ! आपको याद है ? आप को जब रावण हरण करके ले जा रहा था तब आपनें एक पर्वत पर पाँच वानरों को बैठे देखा……..उसी समय आपनें अपना उत्तरीय फाड़ कर अपनें कुछ आभूषण उसमें बांध कर फेंक दिया था……..उस समय हम लोग ही वहाँ बैठे थे ।
हनुमान की बातों पर अब मुझे पूर्णविश्वास हो गया था ।
हे माँ ! उस समय मैं , महाराज सुग्रीव , जामबंत, नल नील ….वहाँ हम लोग बैठे थे ……………………….
पर हनुमान ! बात अधूरी रह गयी ………..मेरे प्रभु श्रीराम कहाँ हैं ?
मुझे यहाँ से कैसे ले जायेंगें ?
और मेरे हरण होनें पर ……प्रभु कहाँ कहाँ गए ?
मुझे सुनना था ………..हनुमान को मैने पूछा ।
मारीच को मारकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जब कुटिया में आये तब सूनी कुटी देखकर बिलख उठे थे……….आगे बढ़े तो जटायू मरणासन्न अवस्था में ………स्वयं अपनें हाथों क्रिया की जटायू की प्रभु श्रीराम नें ……..आगे तपश्विनी शबरी के प्रेम सिक्त बेर खाये …….उन्होनें ही बताया कि सुग्रीव से मित्रता कर लो……..।
हनुमान मुझे मेरे श्रीराम नें क्या क्या किया ये सब बता रहे थे ।
वानरेन्द्र सुग्रीव से मित्रता कर ली है प्रभु श्रीराम नें……..माँ ! वानरराज सुग्रीव की सेना चारों दिशाओं में आपको खोज रही है …….
एक वानरों की टुकड़ी जो दक्षिण दिशा की ओर जा रही थी …….उसमें मैं भी था………सम्पाती , माँ ! जटायू का भाई हमें समुद्र किनारे मिल गया उसनें ही हमें आपका पता बताया था ।
माँ ! आप अब चिन्ता न करें ……….सब ठीक हो जाएगा ………अब वानरेंद्र सुग्रीव की सेना लेकर प्रभु आयेंगें और आपको लंका से ले जायेंगें…….हनुमान नें सारी बातें मुझे बता दी थीं ।
हनुमान की बातें सुनकर मुझे आनन्द आया ………..मेरा हृदय भर आया था ………..मेरे श्रीराम मुझे लेनें के लिये आनें वाले हैं !
पर फिर मेरे मन सन्देह !
मैने हनुमान को ऊपर से लेकर नीचे तक देखा ……………..बड़े ध्यान से देखा ………………..
माँ ! क्या हुआ ? हनुमान नें हँसते हुए पूछा था ………
शायद वो समझ भी गया था ।
मैने पूछा …….मेरे श्रीराम के साथ जो सेना है ……..उन सेनाओं में सब वानर तुम्हारे जैसे ही हैं ?
हाँ ………यही उत्तर दिया हनुमान नें ।
मैं उदास हो गयी थी इस उत्तर से ।
हनुमान बहुत बुद्धिमान है………..नही नही बुद्धिमानों में श्रेष्ठ है ।
हनुमान नें हँसते हुये कहा………आप ये सोचकर उदास हो गई हो ना माँ ! कि इतनें छोटे से वानर इन विशालकाय राक्षसों से क्या लड़ पायेंगें ?
मैने हनुमान की ओर देखा …………………….
हनुमान नें कहा ………….मुझे लंका में प्रवेश करना था इसलिये मैने छोटा रूप धारण किया ……………….
देखो माँ ! ये कहते हुये हनुमान तो बड़ा होंनें लगा ……उसका शरीर विशाल होता जा रहा था ………..वो बढ़ता गया ………….
बस बस बस ……….मैं समझ गयी हनुमान ! मेरा मन आज अतिप्रसन्न हुआ ……हे हनुमान ! तुम धन्य हो ……..तुम महावीर हो …….तुम्हारे समान वीर इस विश्व ब्रह्माण्ड में कोई नही है ………
मैं बोले जा रही थी ………….तभी हनुमान नें अपना शरीर सूक्ष्म किया और मेरे पाँव छू लिए …………………
शेष चरित्र कल …..!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा मधुमंगल की आत्मकथा-28”
( “कन्हैया”- चोरन कौ सरदार )
मैं मधुमंगल……
मैं ब्राह्मण हूँ ..लेकिन मोकूँ वेद के कोई मन्त्र स्मरण नही है …कबहूँ याद ही नाँय कियौ ।
काशी में मेरी माता जी कहतीं कि – वत्स मधुमंगल ! वेद के मन्त्रन कूँ याद कर लो । तौ माता के कहवे ते एक दिना गुरुकुल गयौ हो …..लेकिन कछु पल्ले ही नही पड़े वेद के मन्त्र । तब गुरु जी ने एक मन्त्र पड्यो वेद कौ….”तस्कराणां पतये नमः” वेद हूँ प्रणाम कर रहे हैं …और प्रणाम करते भए कह रहे हैं ….”उन चोरन के सरदार कूँ मेंरौ प्रणाम है” । बस जे मन्त्र मोहे बहुत बढ़िया लग्यौ …मैंने रट लियौ हो । कौन है चोरन कौ सरदार ? मेरौ कन्हैया ।
वैसे – बड़े बड़े धींगरे लोग , बड़ी बड़ी दाढ़ी वारे …हम समय उदास घूमवे वारे कहें हैं – कि भगवान हूँ चोरी करे का ? तब मोकूँ हँसी आवे ..का भगवान मात्र साधुन कौ ही है ? का भगवान सत्य बोलवे वारन कौ ही है ? का भगवान ईमानदार लोगन कौ ही है ? उनकी बुद्धि की बलिहारी जाऊँ । अरे ! भगवान तौ पूर्ण कूँ कहें हैं ना ? फिर जामें मात्र गम्भीरता है और चंचलता नही ….तौ का बाकूँ पूर्ण कहौगे ? जो मात्र सत्य बोलवे वारेन के पक्ष कूँ ही लै कै चल रह्यो है …..तौ बेचारे असत्य बोलवे वारे कहाँ जाएँगे ? भगवान तौ असत्य वारेन कौ हूँ है ना ? देखो जी ! जो सत्य और असत्य के ऊपर स्थिर है …बु भगवान है ।
चोर और सज्जन , जे भेद तौ तुम्हारी और हमारी आँखन में है …चौं कि हमारी आँख भेद कूँ ही देखे है । लेकिन भगवान की आँख तौ अभेद कूँ हीं देखे है । अभेद ही बाकूँ दीखे है । सत्य और असत्य , याते परे है हमारौ । कौन हमारौ ? ( मधुमंगल यहाँ पर हँसते हैं , फिर आगे लिखते हैं )
“हमारौ माखन चोर कन्हाई”
काहे कूँ बदनाम कर रहे हो यार ! या प्रेम-माधुर्यपूर्ण लीला कूँ ?
सबै तौ चोर हैं ….या जग मैं कौन चोर नही है ?
( मधुमंगल लिखते हैं ) या दुनिया में राजा चोर है , रानी चोर है , पूरौ नगर चोर है , और पाँच चोर तौ सबरे मनुष्यन के भीतर ही हैं , वामें का स्त्री और का पुरुष ?
( पाँच चोर – काम, क्रोध, लोभ , मोह , मद )
और सुननी है ….तौ सुनौ……जिन देवतान की तुम पूजा करौ हो …उन देवतान कौ राजा इन्द्र चोर है ….इन्द्र ने राजा पृथु कौ अश्व चुरायौ । तुम्हें जिनने बनायौ है …बो सृष्टा ब्रह्मा चोर है…..वृन्दावन में आय के ग्वाल बाल हमसबन कूँ चुराय कै लै गयौ । और तौ और …भगवान विश्वनाथ चोर हैं ….( यहाँ मधुमंगल खूब हँसते हैं ) अब तुम कहोगे भगवान विश्वनाथ कैसे चोर हैं ? तौ सुनौं सबते बड़े चोर तौ भगवान विश्वनाथ ही हैं …जो “शिव शिव” पूकारता है ..उसके सारे कष्टों को चुरा लेते है ।
अब भैया ! ये सब चोर हैं …इनकूँ तौ तुम कछु नही कहो ….एक बिचारौ मेरौ ‘भोरो श्याम’ माखन की चोरी करे तौ तुम सब बाकूँ चोर चोर कह रहे हो ! तौ सुनौ एक बात …जे जितने चोर मैंने गिनाए हैं ना …चाहे मनुष्य हों या देव या महादेव ….इन सबकौ गुरु , सरदार मेंरौ कन्हैया ही है …..चोरी की विद्या कन्हैया ते ही प्रकट भई है ……या लिए तौ वेद ने कन्हैया कूँ सात टाँग ते दण्डौत करते भए कही ….”तस्कराणां पतये नमः” या चोरन के सरदार कूँ हमारौ प्रणाम है ।
अब बता का बात है ? मैंने कन्हैया ते कही …श्रीदामा बोलो …लाला ! जल्दी बता का करनौं है ? देख तेनैं तौ कल ऐसी बात कह दई ….की चोरी करेंगे । मोकूँ तौ रात भर नींद नही आयी ।
चोरी ? सुबल सखा बोल्यो …चोरी तौ हमारे बाप ने नाँय करी , बाप के बाप ने नाँय करी । भद्र सखा बोलो ….देख लाला ! चोरी करनौं ठीक नही है ….जे काम गंदौ है ..विशाल बोलो ।
अब सुन तौ ल्यो या कन्हैया के मुख ते हूँ कछु …..मैंने सबन्ने चुप करायौ । फिर मैंने स्वयं पूछी ….अच्छा एक बात बता दारिके कन्हैया ! चोरी कहाँ करेगौ ? गोपिन के यहाँ । कन्हैया ने कही । काहे की चोरी ? मैंने ही पूछी । सारे ! तोकूँ माखन खिलायवे के काजे हम चोरी कर रहे हैं ……कन्हैया झुँझलाय के बोल्यो । नाँय रहने दे ….मेरे काजे मत करे चोरी । मैंने हूँ प्रणाम कर दियौ । लेकिन मनसुख ! हमारे गोकुल कौ माखन मथुरा बजार में बिक रह्यो है …और मेरे यार ! तू यहाँ दुबलौ है । मेरे कंधे में हाथ धरके कन्हैया ने जब कही ।
हाँ , बात तौ सही है ……मैं हूँ बोलो ।
लेकिन कन्हैया ! चोरी करते भए पकड़े गये तौ ? दूसरौ सखा तुरंत बोलो ….गोपी मारेगी । मैंने कही – गोपी मारेगी नही ….लट्ठ बजाएगी । नाँय हमें नाँय करनी चोरी । सबने मना कर दियौ ।
अरे सारे , पकड़े नही जाओगे …..कन्हैया ने अब कही ।
चौं रे कन्हैया ! तेरे पास कोई मन्त्र है का ? हम सब पूछवे लगे ।
लेकिन कन्हैया तौ कदम्ब वृक्ष के नीचे जायके खड़ो है गयौ …और मुस्कुरा रह्यो है ।
हम सब बाके पास पहुँच गये …..हाँ , “मेरे पास एक मन्त्र है”….कन्हैया ने कही ।
तौ गुरुदेव ! बा मन्त्र पढ़वे ते कहा होयगौ ? मैंने हँसते भए पूछी…मेरे द्वारा ‘गुरुदेव’ सम्बोधन ते सब हँसवे लगे ..और हाँ …वृक्ष में बन्दर हूँ आय गये …बो भी सुन रहे कन्हैया की बातन कूँ ।
“ऐसौ कोई मन्त्र नही होवे”……श्रीदामा जायवे लग्यो ।
अरे श्रीदामा ! होवे …ऐसे ऐसे मन्त्र होमें ..और विश्वास नही है तौ या ब्राह्मण के छोरा तै पूछ लै ।
कन्हैया ने मेरी ओर श्रीदामा कूँ दिखाय दियौ …..मैं सोई तन गो …..बोल मनसुख ! कन्हैया मोते कह रहे । मैंने कही …हाँ , हाँ होवे ..मन्त्र होमें …अरे ! ऐसे ऐसे मन्त्र होमें की ….आँखन ते काजल हूँ चुराय ल्यो पतौ ही नही चलैगौ । मेरी बात ते सब चुप है गये ….मोरमुकुट धारी अब सबन्ने कहवे लगो ….देखो मेरे पास तौ मन्त्र है ……मैंने जैसे ही सुनी कन्हैया के मुँह ते ……मैंने मन ही मन कही ….वाह रे नन्द के, सबन्ने चेला मूड रो है ।
हम लेंगे मन्त्र ……सबने कही ।
बता ……मैंने कही ।
बता नही , कान फूकूँगौ …कन्हैया बोलो ।
मैंने कही …कन्हैया ! हमारे कान तौ फुके फुकाए हैं ….तू इनके कान फूँक । मैंने हूँ कह दियौ ।
कन्हैया बोले …मधुमंगल ! पहले तौ तू ही मन्त्र लैगौ ……और कन्हैया ने मोकूँ पकड़ के …….
हट्ट दारिके ! ऐसौ कोई मन्त्र नही होवे । कन्हैया कौ मन्त्र जब मेरे कान में गयौ …..तौ कन्हैया खूब हस्यौ …..मैंने कही ….दारिके ! ऐसौ कोई मन्त्र नही होवे है ।
कन्हैया बोलो …..है ।
अब मेरे कहवे तै कहा होयगौ …..सबने मन्त्र दीक्षा लै लई ।
अब ? सब सखा बोले ।
किन्तु मैंने कही ….लाला ! पहली चोरी तौ तू अपने घर में कर ……”घर मैं पक्कौ होयके, बाहर चौरौं जाय” मैंने कही …तौ कन्हैया कछु सोचके बोलो …आज ही अपने घर में मैं चोरी करूँगौ ।
कन्हैया ! कन्हैया ! लो मैया बृजरानी बुलाय रही हैं , बहुत देर है गयी ना !
कन्हैया भी चिल्लाय के बोले -आय रो हूँ मैया….कहते भए कन्हैया अपने नन्द भवन में चले गए हे ।
बाकी के सखा भी भीतर चले आए…..और मैं तौं हूँ हीं ।
क्रमशः…..
Hari shara
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (128)
सुंदर कथा ८१ (श्री भक्तमाल – श्री सेवादास जी )
पूज्यपाद श्री चंद्रशेखर दास जी , श्री गिरिधर बाबा और उनकी शिष्या के आशीर्वचन और निजी अनुभव ।
श्री वृंदावन में एक विरक्त संत रहते थे जिनका नाम था पूज्य श्री सेवादास जी महाराज । श्री सेवादास जी महाराज ने अपने जीवन मे किसी भी वस्तु का संग्रह नही किया । एक लंगोटी , कमंडल , माला और श्री शालिग्राम जी इतना ही साथ रखते थे । एक छोटी से कुटिया बना रखी थी जिसमे एक बाद सा सुंदर संदूक रखा हुआ था । संत जी बहुत कम ही कुटिया के भीतर बैठकर भजन करते थे , अपना अधिकतम समय वृक्ष के नीचे भजन मे व्यतीत करते थे । यदि कोई संत आ जाये तो कुटिया के भीतर उनका आसान लागा देते थे । एक समय वहां एक बदमाश व्यक्ति आय और उसकी दृष्टि कुटिया के भीतर रखी उस सुंदर संदुक पर पडी । उसने सोचा कि अवश्य ही महात्मा को कोई खजाना प्राप्त हुआ होगा जिसे यहां छुपा रखा है । महात्मा को धन का क्या काम ?मौका पाते ही इसे चुरा लूंगा ।
एक दिन बाबाजी कुटिया के पीछे भजन कर रहे थे । अवसर पाकर उस चोर ने कुटिया के भीतर प्रवेश किया और संदुक को तोड़ मरोड़ कर खोला । उस संदुक के भीतर एक और छोटी संदुक रखी थी । चोर ने उस संदुक को भी खोल तब देखा कि उसके भीतर भी एक और छोटी संदुक रखी है । ऐसा करते करते उसे कई संदुक प्राप्त हुई और अंत मे एक छोटी संदुक उसे प्राप्त हुई । उसने वह संदुक खोली और देखकर बडा दुखी हो गया । उसमे केवल मिट्टी रखी थी । अत्यंत दुख में भरकर वह कुटिया के बाहर निकल ही रहा था की उस समय श्री सेवादास जी वहां पर आ गए । श्री सेवादास जी ने चोर से कहा – तुम इतने दुखी क्यो हो ? चोर ने कहा – इनती सुंदर संदुक मे कोई क्या मिट्टी भरकर रखता है ? बड़े अजीब महात्मा हो।
श्री सेवादास जी बोले – अत्यंत श्रेष्ठ मुल्यवान वस्तु को संदुक मे ही रखना तो उचित है । चोर बोला – ये मिट्टी कौनसी मूल्यवान वस्तु है ? बाबा बोले – ये कोई साधारण मिट्टी नही है , यह तो पवित्र श्री वृंदावन रज है । यहां की रज के प्रताप से अनेक संतो ने भगवान् श्री कृष्ण को प्राप्त किया है । यह रज प्राप्त करने के लिए देवता भी ललचाते है । यहां की रज को श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त है । श्रीकृष्ण ने तो इस रज को अपनी श्रीमुख मे रखा है । चोर को बाबा की बात कुछ अधिक समझ नही आयी और वह कुटिया से बहार जाने लगा । बाबा ने कहा – सुनो ! इतना कष्ट करके खाली हाथ जा रहे हो , मेहनत का फल भी तो तुम्हे मिलना चाहिए । चोर ने कहा – क्यों हँसी मजाक करते है , आप के पास देने के लिए है भी क्या ?
श्री सेवादास जी कहने लगे -मेरे पास तो देने के लिए कुछ है नही परंतु इस ब्रज रज मे सब कुछ प्रदान करने की सामर्थ्य है । चोर बोला – मिट्टी किसीको भला क्या दे सकती है ? विश्वास हो तो यह रज स्वयं प्रभु से मिला सकती है ।चोरी करना तो तुम्हारा काम धंदा है और महात्मा के यहां से खाली हाथ जाएगा तो यह भी ठीक नही । जाते जाते यह प्रसाद लेकर जा । इतना कहकर श्री सेवादास जी ने थोड़ी से ब्रज रज लेकर उसे चोर के माथे पर लगा दिया । माथे पर रज का स्पर्श होते ही वह चोर भाव मे भरकर भगवान् के पवित्र नामो का उच्चारण करने लगा – श्री कृष्ण ,केशव , गोविंद गोविंद । उसका हृदय निर्मल हो गया और वह महात्मा के चरणों मे गिर गया । महात्मा ने उसे हरिनाम जप और संत सेवा का उपदेश दिया देकर उसका जीवन कृष्णमय बना दिया ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.51 -53
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बुद्ध्या विश्रुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च |
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च || ५१ ||
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः || १२ ||
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते || ५३ ||
बुद्ध्या – बुद्धि से; विशुद्धया – नितान्त शुद्ध; युक्तः – रत; धृत्या – धैर्य से; आत्मानम् – स्व को; नियम्य – वश में करके; च – भी; शब्द-आदीन् – शब्द आदि; विषयान् – इन्द्रिय विषयों को; त्यक्त्वा – त्यागकर; राग – आसक्ति;द्वेषौ – तथा घृणा को; व्युदस्य – एक तरफ रख कर; च – भी; विविक्त-सेवी – एकान्त स्थान में रहते हुए; लघु-आशी – अल्प भोजन करने वाला; यत – वश में करके; वाक् – वाणी; काय – शरीर; मानसः – तथा मन को; ध्यान-योगपरः – समाधि में लीन; नित्यम् – चौबीसों घण्टे; वैराग्यम् – वैराग्य का; समुपाश्रितः – आश्रय लेकर; अहङ्कारम् – मिथ्या अहंकार को; बलम् – झूठे बल को; दर्पम् – झूठे घमंड को; कामम् – काम को; क्रोधम् – क्रोध को; परिग्रहम् – तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह को; विमुच्य – त्याग कर; निर्ममः – स्वामित्व की भावना से रहित; शान्तः – शांत;ब्रह्म-भूयाय – आत्म-साक्षात्कार के लिए; कल्पते – योग्य हो जाता है |
भावार्थ
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अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश मे करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है और पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है |
तात्पर्य
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जो मनुष्य बुद्धि द्वारा शुद्ध हो जाता है, वह अपने आपको सत्त्व गुण मे अधिष्ठित कर लेता है | इस प्रकार वह मन को वश मे करके सदैव समाधि मे रहता है | वह इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता और अपने कार्यों मे राग तथा द्वेष से मुक्त होता है | ऐसा विरक्त व्यक्ति स्वभावतः एकान्त स्थान में रहना पसन्द करता है, वह आवश्यकता से अधिक खाता नहीं और अपने शरीर तथा मन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है | वह मिथ्या अहंकार से रहित होता है क्योंकि वह अपने को शरीर नहीं समझता | न ही वह अनेक भौतिक वस्तुएँ स्वीकार करके शरीर को स्थूल तथा बलवान बनाने की इच्छा करता है | चूँकि वह देहात्मबुद्धि से रहित होता है अतेव वह मिथ्या गर्व नहीं करता | भगवत्कृपा से उसे जितना कुछ प्राप्त हो जाता है, उसी से वह संतुष्ट रहता है और इन्द्रियतृप्ति न होने पर भी क्रूद्ध नहीं होता | न ही वह इन्द्रियविषयों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है | इस प्रकार जब वह मिथ्या अहंकार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तो वह समस्त भौतिक वस्तुओं से विरक्त बन जाता है और यही ब्रह्म की आत्म-साक्षात्कार अवस्था है | यह ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है | जब मनुष्य देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है, तो वह शान्त हो जाता है और उसे उत्तेजित नहीं किया जा सकता इसका वर्णन भगवद्गीता मे (२.७०) इस प्रकार हुआ है –
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी || ७० ||
‘जो मनुष्य इच्छाओं के अनवरत प्रवाह से विचलित नहीं होता, जिस प्रकार नदियों के जल के निरन्तर प्रवेश करते रहने और सदा भरते रहने पर भी समुद्र शांत रहता है, उसी तरह वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरन्तर उद्योग करता रहता है |’


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