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July 31, 2025 8:29 pm

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श्रीसीताराम शरणम् मम &(113-1)) 🌹🌹🌹 “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-32”, श्री भक्तमाल (132) तथाश्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

[21/03, 19:41] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>1️⃣1️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

रामप्रिया ! रामप्रिया !

त्रिजटा बहुत खुश थी …..दूर से ही आज मुझे पुकारती आरही थी ।

त्रिजटा को देखकर मैं भी उठके खड़ी हो गई और उसके पास ही पहुंची ।

मुझे उसे बहुत सारी बातें बतानी थी………और उसे भी मुझे ।

सारी राक्षसियाँ त्रिजटा को देखते ही खड़ी हो गयीं……सम्मान से ।

रामप्रिया ! वो मेरे पास आयी…….और आकर बोली मेरा सपना सच हुआ ना ?…….हाँ त्रिजटा ! तुम्हारा सपना सच हुआ……..वो वानर वाला सपना…….मैं उसे बतानें जा ही रही थी कि……त्रिजटा नें ही मेरा हाथ पकड़ा और वाटिका के ही एक ऊँचें स्थान पर ले गई ।

अरे ! ये क्या है त्रिजटा ? पूरा नगर जल रहा है !

हाँ हाँ पूरी लंका जल रही है ……………..देखो ! रामप्रिया !

पर ये सब किसनें किया ? मैने पूछा ।

उसी वानर नें…..जो तुमसे यहाँ मिलकर गया था…..त्रिजटा नें कहा ।

तो तुम्हे पता है ! मैं अपनें स्थान की और लौटते हुये बोली ।

हे रामप्रिया ! हमें क्या पता नही है !

फिर मेरी ओर देखते हुए त्रिजटा बोली ………….आँखों में बड़ी चमक हैं आज हमारी रामप्यारी के ! मुझे छेड़ते हुए बोली थी त्रिजटा ।

मैं बस मुस्कुराई ……………….

बताओ बताओ ! क्या सन्देशा आगया तुम्हारे पिया का ?

मैने त्रिजटा को अपनी और खींचा और गले लगा लिया था …..

हाँ हाँ त्रिजटा ! सन्देशा आगया ………….और पता है वही वानर जिसको तुमनें सपनें में देखा था …………हनुमान ………बहुत प्यारा है ….बहुत भोला है ………….वही लाया था सन्देशा ।

वो भोला है ? अरे ! उसके जैसा बुद्धिमान रावण भी नही है ?

क्या वो रावण के पास भी गया ? मैने आश्चर्य से पूछा ।

रामप्रिया ! रावण के महाप्रतापी अक्षयकुमार को मार दिया उस वानर नें ! त्रिजटा नें ये जब कहा ……..तब मैं स्तब्ध थी ।

इतना ही नही रावण का दिग्विजयी पुत्र मेघनाद, वो आया फिर ……क्यों की रामप्रिया ! अपनें अक्षय कुमार पुत्र की मृत्यु की खबर सुनते ही मूर्छित होकर गिर गया था रावण…….तब मेघनाद नें गर्जना करते हुये कहा…..मैं जाऊँगा पिता जी और उसे मार कर ही आऊंगा ।

एक तुच्छ वानर की इतनी हिम्मत !

पर रावण नें उसे रोक दिया ………और कहा ……..मारना नही …..बस बाँध कर ले आना ……………..त्रिजटा मुझे सुना रही थी ।

फिर क्या हुआ ?

फिर !

 वो वानर  कैसे बंध जाता  ?   महावीर था  वो तो ........

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌹🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-32”

( विचित्र है नन्द कौ छोरा )


मैं मधुमंगल……

कन्हैया की आयु इन दिनौं “तीन वर्ष और चार मास” की है ….लेकिन कन्हैया जितनौं बड़ौ हेतौ जाय रह्यो है याकी चंचलता और अधिक है रही है…..याकूँ बस अनुकरण करनौं आवै …..पतौ नाँय या अहीर के छोरा कूँ जे आदत कहाँ ते लगी …वैसे बालकन कौ स्वभाव ऐसौ ही होवे ….बालक तुम्हारौ अनुकरण करे ही हैं…..तुम जौ कहोगे बालक बाही बात कूँ दोहरावे है । अब कन्हैया कौ हूँ ऐसौ स्वभाव है …..तुम कहो …कन्हैया, तू झूठ बोले …तौ जे कह देगौ ….सबते बड़ौ झूठौ मैं ही तौ हूँ …संसार में मेरे समान कौन झूठौ है । अब बात तौ सही कह रो है पट्ठा ! या झूठे संसार कौ निर्माता कौन है ? ….यही तौ है …..तौ भयौ ना संसार कौ सबते बड़ौ झूठौ । अब याते कहौ ..तू तौ चोर है …..तौ झट्ट कह देगौ …नही , केवल चोर नही हूँ । चोरन कौ शिरोमणि हूँ …अब बोलो ?

छोड़ो इन बातन कूँ …तुम तौ कहौ …कन्हैया ! तू कृपालु है , तू दयालु है …आहा ! फिर देखौ याकी दयालुता । अरे ! तुम्हारे आगे पीछे डोलैगौ । तुम्हारे सबरे कामन कूँ अपने ऊपर लै लैगो ।

तुम जो कहो ….याकूँ कोई आपत्ति नही है ….तुम कहो ….”तू नही है” , तौ जे कहेगौ ….हाँ मैं नही हूँ …..फिर मत सोचियौं कि जे तुम्हारे पास आवैगौ ….या तुम्हें अपनी ( ईश्वरता ) की अनुभूति करावैगौ । तुम कहो …..मूर्ति झूठी है ….तौ जे कहेगौ …तोड़ दो ….अब तुम मूर्ति कूँ तोड़ दो …जे कन्हैया तौ ताली बजावैगौ । याकूँ कोई आपत्ति नही है …तुम जो कहो ….ये तुम्हारी हर बात कूँ बस दोहरावै है । तुम निराकार कहौ……जे कहैगौ …. हाँ , मेरौ कोई आकार नही है । तुम कहो …कि कन्हैया , तुम साकार हो … जे तुम्हें चूमतौ भयौ तिहारी गोद में बैठ जावैगौ ।

लेकिन कन्हैया ते सावधान ! अब मूल बात सुनौ ……कन्हैया ते कभी मत कहीयौं ….कि “तू निष्ठुर है”…..नही तौ तुम पे जे नन्द कौ छोरा भारी पड़ जावैगौ । या लिए , या मधुमंगल लाल की बात कूँ ध्यान तै सुनियों …और पढियों । तब समझ जाओगे कि कन्हैया कितनौं प्रेमी है ….आहा !


मोकूँ हँसी आय रही है ….अपनौं कन्हैया तौ बड़ौ ही ऊधमी है गयौ है ….और तौ और …चोरी के नए नए दांव पेंचन कूँ हूँ सीख गयौ है …..अरे ! जे गोकुल में सबरी आभीर की छोरीयन कूँ पागल बनातौ ड़ोलै…..और सबरौ गोकुल गाँव या कन्हैया के पीछे पागल है ।

कल की ही तौ बात है …हम सब बाही कदम्ब की वेदी में बैठे हते ….कन्हैया और हम सब सखा ।
अब तौ हमारी सखा मण्डली भी उन्नत है ती जाय रही ….मण्डली मैं नयौ भर्ती आरम्भ है गयौ हो …..गोकुल के बालक सब मण्डली में आय रहे ….और बड़े प्रसन्न हे ।

आज एक गोपी ….जामें अकड़ कछु अधिक ही है ….बु गोपी कहती जाय रही अन्य गोपिन ते …..अरे ! माखन की चोरी करे कन्हैया ….मेरे घर में आए तौ बताऊँ ….मेरे यहाँ नही आय सकै है । और जे बात कहती जाय रही कदम्ब वृक्ष के पास में । कन्हैया और हमारी मण्डली कूँ सुनायवे कूँ ही कह रही । कन्हैया उठ गये …सखा भी उठ गये …..गोपी ने हूँ देख लियौ कन्हैया उठ गयौ है और मेरी बातन कूँ ही सुन रह्यो है । तो गोपी और जोर ते चिल्लाय के बोली …..”मेरे यहाँ आये तौ, मैं बताऊँ “। बस …कन्हैया अपने सखान की ओर देखवे लगे …..सखा संकेत में पूछ रहे हैं…..क्या करना है ? कन्हैया धीरे ते मेरे कान में बोले …”आज कौ कार्यक्रम यही गोपी के यहाँ रखौ, कछु अधिक ही बोल रही है” । गोपी तौ सुनाय के चली गयी …लेकिन कन्हैया मोते पूछवे लगे …….चौं रे ! या गोपी कौ घर कहाँ है ? मैंने हूँ बताय दियौ ……पाँच घर छोड़के ….दाहिनी ओर । बस …हमारी सारी मण्डली उस ओर चल दी थी ।


गली तै है के जाय रहे ……सामने गोपी बैठी है …दूसरे के घर के बाहर बैठी है ….यहाँ भी बातन्ने बनाय रही है ……कन्हैया बाही के पास तै गये और …..भाभी ! राम राम ! कहते भए निकले । गोपी हँसी …..दूसरी ते बोली …मोते सब डरें ….ना जी , मेरे घर में चोरी कर ही नाँय सकै है …गोपी फिर बोली । अन्य गोपियाँ बोलीं …चली जा , कहीं तेरे घर में ना घुस जायें । गोपी कूँ लग्यो कि हाँ , जे हे सकै ….गोपी उठ गयी वहाँ ते और अपने घर के पास जैसे ही गयी …..जे क्या है ? सबरे ग्वार बाल और कन्हैया याही के घर में घुस रहे हैं । पहले तौ याने सोची …सबन कूँ जाय के पकड़ूँ ….लेकिन फिर सोचवे लगी ….नही ..प्रमाण के साथ पकडूँगी …हाँ ….जब मेरे घर ते चोरी करके निकसेगौ ना …तब पकडूँगी । बस …गोपी तौ बाहर बैठ गयी …..और भीतर …कोई माखन खाय रो है …कोई मटकी फोड़ रो है …कोई तौ छाँछ तै नहा रह्यो है …..सब सुन रही है गोपी ….एक घड़ी पूरी है गयी …..अब भीतर कौ शोर कछु थम्यौ ।

अब गोपी सोच रही है कन्हैया बाहर निकलेगौ ….लेकिन पहले तौ हम सब निकले और भागे ….सब सखा भाग गये ….अब बारी ही बाहर आयवे की , कन्हैया की । कन्हैया आये ….हाथ में बाके नवनीत है …मुखन में नवनीत लग्यो है ….वस्त्रन में नवनीत । अब जैसे ही बाहर आयौ कन्हैया ….सोई गोपी ने कन्हैया कौ हाथ पकड़ लियौ । और चिल्लायवे लगी …मैंने चोर पकड़ लियौ , मैंने पकड़ लियौ ….चोर कूँ पकड़ लियौ । तब कन्हैया धीरे ते बोले ….गोपी ! चोर मत कह …ब्याह नही होयगौ । गोपी बोली …तेरौ कहाँ ते ब्याह होयगौ ?

ओह , आह , ……कन्हैया एकाएक बोल पड़े ।

का भयौ ? गोपी पूछ रही ।

तेरे हाथ कितने कठोर हैं और मेरी कलाई ! कन्हैया के मुख ते जे सुनते ही गोपी ने कन्हैया कौ हाथ छोड़ दियौ ….आहा ! दया ते भर गयी गोपी । कितनौं कोमल है जे कन्हैया …अब बो कन्हैया के अंगन कूँ देख रही है । तू चोरी चौं करे ? अब बड़े प्रेम ते पूछ रही है ।

चोरी कहाँ ? गोपी ! साँची बता ! जे घर का मेरौ नही है ? …हमारे कन्हैया कूँ जादू आवे …काहूँ कूँ हूँ मोहित कर लेय है जे । ‘है’…..गोपी बोली । तेरे घर कौ माखन मेरौ नही है ? ‘है’……गोपी बस यही कह रही है । अब एक बात बता …नेत्र बन्द है गए हैं गोपी के …कन्हैया धीरे ते कान में बोले ….भाभी ! तू मेरी नही है ? उफ़! जे सुनते ही कन्हैया कूँ गोपी ने अपने हृदय ते लगाय लियौ और बोली …चलौ भीतर । कन्हैया बोले- भाभी ! मैं तेरे भीतर ही तौ हूँ । इतनौं कहके कन्हैया अब भागे …..लेकिन गोपी ने अपने नेत्र नही खोले हैं ….बाबरी है गयी है गोपी …कह रही है …”हाँ कन्हैया ! तू मेरे भीतर ही है” गोपी यही कह रही है ।

कहें ……बाकौ खसम आयौ …फिर सास आयी ..ससुर आयौ …लेकिन गोपी ने अपने नेत्रन कूँ नही खोलो ……कन्हैया ने ही आय के दो मास पश्चात् गोपी कूँ अपने हृदय ते लगायौ तब याने अपने नेत्रन कूँ खोल्यौ हो ।

विचित्र है ना जे नन्द कौ छोरा ?

क्रमशः…..

Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (132)


सुंदर कथा ८५ (श्री भक्तमाल – श्री सेन जी )

भीष्म: सेनाभिधो नाम तुलायां रविवासरे ।
द्वादश्यां माधवे कृष्णे पूर्वाभाद्रपदे शुभे ।
तदीयाराधने सक्तो ब्रह्मयोगे जनिष्यति ।।

श्री भीष्म जी ही स्वयं भक्त सेन के रूप में अवतरीत हुए। वघेलखण्ड मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ मे सेनभक्त का प्राकट्य हुआ । आपका जन्म विक्रम संवत १३५७ में वैशाख कृष्ण द्वादशी, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, तुला लग्न , शुभ योग रविवार को हुआ । आपने स्वामी श्री रामानंदाचार्य जी की आज्ञा से भक्तों की सेवा को प्रधानता दी । कुछ विद्वान मानते है कि इनका जन्म स्थान ग्राम सोहल थाठीयन जिला अमृतसर साहिब में १३९० ईस्वी में हुआ था । परंतु भक्तमाल, अगस्त्य संहिता और महाराज श्री रघुराजसिंह जी द्वारा रचित श्री राम रसिकावली से इनका जन्म बांधवगढ़ ही निश्चित होता है । इनके पिता का नाम श्री मुकन्द राय जी, माता का नाम जीवनी जी एवं पत्नि का नाम श्रीमती सुलखनी जी था । इनके दो पुत्र और एक पुत्री थे ।

श्री भक्तमाल में वर्णन है कि बघेलखण्ड का बांधवगढ़ नगर अत्यन्त समृद्ध था । महाराज वीरसिंह वहाँ के राजा थे । इसी नगर मे एक परम सन्तोषी, उदार, विनयशील व्यक्ति रहते थे; उनका नाम था श्री सेन जी। यतिराज श्री स्वामी रामानंदाचार्य के द्वादश शिष्यो मे श्री सेन जी का नाम अत्यंत आदरपूर्वक लिया जाता है ।

राजपरिवार से उनका नित्य का सम्पर्क था; भगवान की कृपा से दिनभर की मेहनत मजदूरी से जो कुछ भी मिल जाता था, उसीसे परिवारका भरण पोषण और सन्त सेवा करके वे निश्चिन्त हो जाते थे । वे नित्य प्रात:काल स्नान, ध्यान और भगवान के स्मरणपूजन और भजन के बाद ही राजसेवा के लिये घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे । जातिके नाई थे । राजाका बाल बनाना, तेल लगाकर स्नान कराना आदि ही उनका दैनिक काम था । एक दिन वे घर से निकले ही थे कि उन्होंने देखा एक भक्तमण्डली मधुर-मधुर ध्वनि से भगवान के नामका संकीर्तन करती उन्हींके घर की ओर चली आ रही है । सेन ने प्रेमपूर्वक सन्तो को घर लाकर उनकी यथाशक्ति सेवा-पूजा की और सत्संग किया । सेन जी संतो की सेवा करते करते यह भूल गए कि राजसेवा में पहुंचना है ।

उधर महाराज वीरसिंह को प्रतीक्षा करते-करते अधिक समय बीत गया । इतने मे सेन नाई के रूप मे स्वयं लीलाबिहारी रघुनाथ जी राजमहल मे पहुँच गये । सदा की भाँति उनके कंधेपर छुरे, कैंची तथा अन्य उपयोगी सामान तथा दर्पण आदि की छोटी-सी पेटी लटक रही थी । उन्होने राजाके सिर मे तेल लगाया, शरीर मे मालिश की, दर्पण दिखाया । जिनके दर्शन मात्र से बड़े बड़े महात्मा मोहित हो जाते है, जिनके दर्शन मात्र से महात्माओ की समाधि लग जाती है, उन रघुनाथ जी के कोमल हाथो के स्पर्श से राजा को आज जितना सुख मिला, उतना और पहले कभी अनुभव मे नही आया था । सेन नाई राजा की पूरी-पूरी परिचर्या और सेवा करके चले गये ।

उधर जब भक्तमण्डली चली गयी तो थोडी देर के बाद भक्त सेन को स्मरण हुआ कि मुझे तो राजा की सेवा में भी जाना है । उन्होंने आवश्यक सामान लिया और डरते-डरते राजपथपर पैर रखा । वे चिन्ताग्रस्त थे, राजा के बिगड़ने की बात सोचकर वे डर रहे थे । एक साधारण राजसैनिक ने उनको देखते ही टोक दिया – सेन जी कही आप कुछ भूल तो नहीं आये ? सेन जी ने कहा – नहीं तो, अभी तो राजमहल ही नहीं जा सका । सेन आश्चर्यचकित थे ।

सैनिक ने कहा – सेन जी ,आपको कुछ हो तो नहीं गया है ? मस्तिष्क ठीक -ठिकाने तो है न ? भगवान के भक्त कितने सीधे-सादे होते है , इसका पता तो आज ही चल सका । सैनिक कहता गया – आज तो राजा आपकी सेवा से इतने अधिक प्रसन्न है कि इसकी चर्चा सारे नगर मे फैल रही है । सैनिक आगे कुछ न बोल सका । सेन ने सोचा कि यह मजाक उड़ा रहा होगा , अवश्य ही महाराज बड़े क्रोधित होंगे । न जाने आज महाराज क्या दंड देंगे । लगता है आज सेवा से ही निलम्बित कर देंगे ।

सेन जी डरते डरते राजमहल के अंदर पहुंचे । राजा वीरसिंह सिंहासन पर विराजमान थे और उन्हीं का नाम लेकर कोई स्तुति हो रही थी । उतने में ही सेन पर राजा की दृष्टि पड़ी । राजा सिंहासन छोड़कर दौड़कर सेन के पास आए । सेन ! अभी तो तुम इतनी सुंदर सेवा करके गए थे । क्या कोई आवश्यक कार्य पड़ गया की पुनः यहां आना पड़ा ?

सेन जी ने कहाँ – महाराज ! मेरे घर पर संत भगवान पधारे थे उन की सेवा और सत्संग में भूल गया । आप अपराध क्षमा करे। महाराज बोले – सेन ! तुम क्या कह रहे हो ? अभी तो तुम स्नान तेल मालिश इत्यादि करके गए हो। सेन जी को विश्वास हो गया कि मेरी प्रसन्नता और सन्तोष के लिये भगवान को मेरी अनुपस्थिति मे नाई का रूप धारण करना पडा । वे अपने आपको धिक्कार ने लगे कि एक तुच्छ-सी सेवपूर्ती के लिये शोभा निकेतन श्री राघवेन्द्र सरकार को बहुरूपिया बनना पडा । प्रभु को इतना कष्ट उठाना पड़ा । उन्होंने भगवान के चरण-कमल का ध्यान किया, मन-ही -मन प्रभुसे क्षमा माँगी ।

सेन जी रोने लगे और महाराज से कहा – वह मै नही था, मै तो घर पर संतो की सेवा में व्यस्त था । आप बड़े पुण्यात्मा है ,आज जिसने नाई के रूप में आपकी तेल मालिश और स्नान आदि किया है वह त्रिभुवन के स्वामी भगवान श्रीराम ही थे । राजा ने अपना मुकुट उतारकर भक्तराज सेन जी के चरणों मे रख दिया और सेन जी चरण पकड़ लिये । वीरसिंह ने कहा – राजपरिवार जन्म-जन्म तक आपका और आपके वंशजो का आभार मानता रहेगा । भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिये अपना मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अन्त किया है ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.57
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चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः |

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव || ५७ ||

चेतसा– बुद्धि से; सर्व-कर्माणि– समस्त प्रकार के कार्य; मयि– मुझ से; संन्यस्य– त्यागकर; मत्-परः– मेरे संरक्षण में; बुद्धि-योगम्– भक्ति के कार्यों की; अपाश्रित्य– शरण लेकर; मत्-चित्तः– मेरी चेतना में; सततम्– चैबिसों घंटे; भव– होओ |

भावार्थ
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सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो | ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो |

तात्पर्य
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जब मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करता है, तो वह संसार के स्वामी के रूप में कर्म नहीं करता | उसे चाहिए कि वह सेवक की भाँति परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कर्म करे | सेवक को स्वतंत्रता नहीं रहती | वह केवल अपने स्वामी के आदेश पर कार्य करता है, उस पर लाभ-हानि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता | वह भगवान् के आदेशानुसार अपने कर्तव्य का सच्चे दिल से पालन करता है | अब कोई यह तर्क दे सकता है कि अर्जुन कृष्ण के व्यक्तिगत निर्देशानुसार कार्य कर रहा थे, लेकिन जब कृष्ण उपस्थित न हों तो कोई किस तरह कार्य करें? यदि कोई इस पुस्तक में दिए गये कृष्ण के निर्देश के अनुसार तथा कृष्ण के प्रतिनिधि के मार्गदर्शन में कार्य करता है, तो उसका फल वैसा ही होगा | इस श्लोक में मत्परः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | यह सूचित करता है कि मनुष्य जीवन में कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए कृष्णभावनाभावित होकर कार्य करने के अतिरिक्त अन्य कोई लक्ष्य नहीं होता | जब वह इस प्रकार कार्य कर रहा हो तो उसे केवल कृष्ण का ही चिन्तन इस प्रकार से करना चाहिए – “कृष्ण ने मुझे इस विशेष कार्य को पूरा करने के लिए नियुक्त किया है |” और इस तरह कार्य करते हुए उसे स्वाभाविक रूप से कृष्ण का चिन्तन हो आता है | यही पूर्ण कृष्णभावनामृत है | किन्तु यह ध्यान रहे कि मनमाना कर्म करके उसका फल परमेश्र्वर को अर्पित न किया जाय | इस प्रकार का कार्य कृष्णभावनामृत की भक्ति में नहीं आता | मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के आदेशानुसार कर्म करे | यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है | कृष्ण का यह आदेश गुरु-परम्परा द्वारा प्रमाणिक गुरु से प्राप्त होता है | अतएव गुरु के आदेश को जीवन का मूल कर्तव्य समझना चाहिए | यदि किसी को प्रमाणिक गुरु प्राप्त हो जाता है और वह निर्देशानुसार कार्य करता है, तो कृष्णभावनामाय जीवन की सिद्धि सुनिश्र्चित है |

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