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June 15, 2025 4:46 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 115 (1) श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 38″, श्री भक्तमाल (138)तथा श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>1️⃣1️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

रामप्रिया ! ए रामबल्लभा ! सुनो ! सुनो ……..

त्रिजटा पाँच दिन बाद आयी थी ………पर ऐसे ही चिल्लाती हुई …….मैं पहले तो घबडा गयी ………कहीं कुछ अनिष्ट तो नही हुआ ……पर मैने उसके चेहरे को जब ध्यान से देखा था तब समझ गयी ….ये अति प्रसन्न है …………..।

हाँ क्या हुआ ? त्रिजटा ! बता तो क्या हुआ ?

“श्रीराम की वानर सेना समुद्र के उस पास पहुँच गई है”

क्या ! मैं ख़ुशी से उछल पड़ी थी ………सबसे पहले तो मैने त्रिजटा को अपनें गले से लगाया ……..पर तुझे किसनें कहा ?

मैने पूछा ।

अरे रामप्रिया ! मैं रावण के महल में गयी थी …….मेरी माता जी ताई मन्दोदरी के महल में थीं ………..उन्हें बुलानें गई थी ।

वहीं मैने रावण के मुख से ही सुना …………….

कह रहा था रावण कि – तपश्वी श्रीराम अपनी वानरों की सेना लेकर समुद्र के किनारे आगया है ।

रावण से ही मैने सुना ……….कि राम जो युद्ध के लिये सेना लेकर चला है ……….उसका मुहूर्त भी अच्छा है ……इस बात को लेकर वो परेशान हो रहा था ………….रामप्रिया ! रावण कह रहा था कि मंगल षष्टम् और शनि अष्टम में है ……….और शेष ग्रह उच्च के या स्वग्रही अनुकूल स्थानों में है ……..ये “जयद” योग बन रहा है ……..इस योग के कारण श्रीराम को विजय प्राप्त होगी …….ये निश्चित है ।

मैं हँसी …………तू बड़ी ज्योतिष की पण्डिता है त्रिजटा !

रावण से ही सीखी है मैनें ज्योतिष विद्या …..त्रिजटा बोली थी ।

क्या रावण ज्योतिष विद्या भी जानता है ? मेरे इस प्रश्न पर त्रिजटा बहुत हँसी …….ज्योतिष ? रावण की अपनी संहिता है ज्योतिष के ऊपर ……और प्रामाणिक है…….ऋषि भृगु नें भी रावण के ज्योतिष का आदर किया है……..त्रिजटा और भी कुछ बता रही थी …पर मुझे नही सुनना अब रावण के बारे में ……..मैं आज बहुत प्रसन्न थी ………क्यों की मुझे लेनें के लिये मेरे श्रीराम समुद्र के उस पास आचुके थे ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल …..!!!!

✨✨✨ जय श्री राम ✨✨✨

Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा मधुमंगल की आत्मकथा-38”

( “जब उग्यौ नन्दआँगन में मुक्तातरु” – एक प्रसंग )


मैं मधुमंगल ……

एक बार मैंने सुन्यौ कि ब्रह्मा जी अपने पुत्र सनकादि कूँ वेद कौ उपदेश कर रहे हे …..कह रहे कि……”अक्षर ( ब्रह्म ) के ही प्रशासन में सूर्य और चन्द्रमा रहे हैं …नदी और समुद्र रहे हैं …और रहे ही नही , उनकी आज्ञा कौ हूँ पूर्णतः पालन करें हैं । कबहूँ ‘अक्षर’ के मर्यादा कौ अतिक्रमण कोई कर नही सके …काहू की हिम्मत ही नही है ।

निमेष, मुहूर्त, दिन , रात्रि , पक्ष , मास , ऋतु , समवत्सर आदि आदि सब याही अक्षर ब्रह्म के शासन में ही हैं । पर्वत की अनेक शृंखलाएं जिनमें तै नदियाँ निकलें ..अब जिन नदियन कूँ दाहिनी ओर मोड़ दियौ है बु दाहिनी ओर ही बहेगी ….जिनकूँ बायीं ओर मोड़ दियौ ….बु बायीं ओर ही बहेगी । ना , तनिक भी मर्यादा कोई तोड़ नही सके है …..जे प्रभाव है अक्षर कौ …यानि ब्रह्म कौ ।

अब मोकूँ हँसी आवै …..

जे वेद की बात बेचारी मैया यशोदा का जानैं ? और का जानैं मैया कि बाकौ लाला ही तौ अक्षर ब्रह्म है …अक्षर …यानि जाकौ कबहूँ “क्षय” नही होय है । लेकिन मैया तौ मैया ही है बु नाँय जानैं काहूँ ब्रह्म कूँ या ब्रह्म के बाप कूँ …..कन्हैया याकौ बस छोरा है ….कलेजे कौ टुकड़ा ।


कन्हैया ने जब कल ‘प्रभा’ गोपी कूँ मोती दिए, तब सब गोपिन की कामना ही कि आहा ! कन्हैया के कर कमलन तै हमें हूँ मोती मिलतौ ! लेकिन सबरौ भाग तौ या प्रभा ने ही पायौ है ।

कन्हैया बड़ौ ही कोमल हृदय कौ है …याते कोई कछु माँग लै तौ जे मना नाँय कर सकै ..अब भाव भरे हृदय ते गोपिन ने कही …कन्हैया ! प्रभा की तरह हमें हूँ मोती दै दै ।हमहूँ मुक्ता माल पहनेंगी ।

तभी ….

“कोई मुक्ता खरीदौ ! कोई मोती खरीदौ ! “। कहतौ भयौ एक व्यापारी आयौ गोकुल गाँव में …इधर उधर भटकनौं बा व्यापारी कूँ व्यर्थ लग्यो …तौ बु सीधे नन्द भवन के द्वार पे पहुँच गयौ । नन्द भवन की चमक दमक देख कै व्यापारी प्रभावित भयौ …फिर द्वार पे ही यानैं आवाज़ लगाई …”कोई मुक्ता खरीदौ …मोती खरीदौ “। बस फिर का !

भीतर – सबते पहले कन्हैया ने ही जे आवाज सुनी तौ कन्हैया द्वार पे दौड़े ….और साँकर खोल दई । व्यापारी भीतर आयौ ।

कन्हैया ने बाते पूछी …..का है ? बृजराज भीतर ते आए …व्यापारी , का लायौ है ?

बस बृजराज के पूछते ही बा व्यापारी ने अपनी रत्नजटित पेटी निकाली और एक सुन्दर सी मोती बा पेटी में तै निकाल के बृजराज बाबा के हाथ में दै दई । अद्भुत चमक ही बा मोती में तौ । बृजराज बाबा के हाथ में तै कन्हैया ने मोती लै लियौ …और बाबा ते बोले …बाबा ! जे मोती मोकूँ चहिए । बृजराज ने मोती की क़ीमत पूछी …और व्यापारी ते कही ….क़ीमत सही लगैयौ ।

व्यापारी बोल्यो ….बृजराज ! आप ही लै सकौ या लिए मैं सीधे आपके भवन में आयौ हूँ ।

क़ीमत बताओ ? बृजराज बाबा ने फिर पूछी ।

एक सहस्र स्वर्ण मुद्रा । व्यापारी बोल्यो ।

पागल है …एक मोती की क़ीमत एक सहस्र स्वर्ण मुद्रा ?

कन्हैया बोले …बाबा ! मोकूँ मोती चहिए ….मैया बोली …लाला ! दूसरी लै लै ….नहीं मैया यही चहिए । बाबा ने लाला के हाथन ते मोती लै कै व्यापारी कूँ लौटाय दियौ । बस फिर का …लाला तौ रोयवे लग्यो …खूब रोनौं शुरू । बृजराज ने सोची …चलौ कोई बात नही । पैसा बालकन के काजे ही तौ है …..ठीक है …दै मोती । बृजराज बाबा ने व्यापारी तै मोती ख़रीद लई ….व्यापारी कूँ सहस्र स्वर्ण मुद्रायें दै दिए । व्यापारी चलौ गयौ …बाबा हूँ अपने खिरक माहूँ चले गये ।

मैया माँग रही है मोती लाला तै …..लेकिन लाला नाँय दै रो मोती ।

अब लाला कन्हैया ने एक लीला करी …..आँगन के एक कोने में मिट्टी खोदी ….लाला ! जे कहा कर रो है ? कन्हैया बोल्यो …मैया ! मोती उगाऊँगौ ।

मैया, तू बस देख अब …कछु कहौगी …तौ रोयेगौ …गोपियाँ बोलीं । कन्हैया ने अपने कोमल नन्हे करन ते मिट्टी खोदी ….फिर बामें ……मैया चिल्लाई …अरे ! पागल है का ! एक सहस्र स्वर्ण मुद्रा की एक मोती है । लेकिन कन्हैया तौ जिद्दी है …बाने मिट्टी खोदी और मोती डाल दई ….मैया माथों पकड़ के बैठी है …..अन्य सब गोपियाँ हूँ देख रही हैं …..धीरे धीरे भीर जुरवे लगी है ।

अब लाला ने जैसे ही मोती के ऊपर पानी ड़ाल्यो …सोई …एक मोती ते अंकुर फूट पड्यो ….पानी के पड़ते ही …अंकुर ऊपर आयौ …लाला ताली बजाय रो है …और अपनी मैया ते कह रह्यो है ….मैया ! देख मोती लगेंगे अब या नन्हे से वृक्ष में ।

मैंने तुमकूँ बताई ना , वेद में लिख्यो है …अक्षर ( ब्रह्म ) के प्रशासन में ही , सूर्य चन्द्र प्रकृति आदि सब कछु है ….यही तौ है ब्रह्म ।

अब तौ देखते ही देखते ….नन्हे से वृक्ष में अनेक मोती उग आए और वैसे ही चमकदार , अद्भुत मोती …ग़ोपियन कूँ अब कन्हैया बुलायवे लगे …गोपियाँ आयीं तौ कन्हैया बोले ….आँचल आगे करौ …आँचल आगे कियौ , गोपिन कूँ कन्हैया मुट्ठी भर भरके मोती देने लगे । हल्ला है गयौ पूरे गाँव में कि कन्हैया मोती बाँट रो है ….अब तौ भीर लगी आँगन में …मैया तौ मूड पकड़ के बैठ गयी है , बाके कछु समझ में नाँय आ रो । कन्हैया आनन्द ते मोती बाँट रहे हैं । जब सबकूँ मोती मिल गयौ …तब अपने आप बु चमत्कारी “मुक्तातरु” अंतर्ध्यान है गयौ । ये क्या हुआ ? किसी के समझ में नही आया …मैया यशोदा कूँ तौ चमत्कार ही लग रह्यो हो ।

लेकिन मैं बताऊँ एक रहस्य – सुनौं …….”कुबेर हो बु व्यापारी । कन्हैया के संकेत तै आयौ हो । कहें …जाते जाते बा कुबेर ने एक कुण्ड की रचना हूँ कर दई …बा कुण्ड में मोती ही मोती हे….या लिए कुण्ड कौ नाम ….मोतीझील कुण्ड ..अब जे कुण्ड श्रीधामवृन्दावन में हूँ है और नन्दगाँव में हूँ ।

क्रमशः….

Hari sharan


[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (138)


सुंदर कथा ९१ (श्री भक्तमाल – श्री गोस्वामी विट्ठालेशसुत जी )

गुसाईं श्री विट्ठलनाथ जी के पुत्रों को सर्वभूत सुहृद साक्षात श्री गिवर्धनधारी श्रीकृष्ण जानकर उनका ध्यान करना चाहिए । उनके नाम है –

१. श्री गिरिधर जी, जो बड़े रसिक एवं अत्यंत सुंदर शील स्वभाव वाले थे । २. श्री गोविन्दजी का स्वभाव भी वैसा ही था। ३. श्री बालकृष्णजी महायशस्वी हुए । ४. श्री गोकुलदास जी बडे धीर महापुरुष हुए । ५. श्री रघुनाथ जी महाराज एवं ६. श्री यदुनाथ जी महाराज अपने समगुणों से भजने योग्य हुए । ७. श्री घनश्याम जी सदा-सर्वदा प्रभुप्रेम मे पगे रहते थे, बड़े अनुरागी थे, हृदय मे हमेशा प्रभुक्री स्मृति सँजोये रहते थे । इनका भजन करना चाहिए ये सातों प्रत्यक्ष भगवादविभूति थे, भगवद्भजन मे परम प्रवीण एवं समर्थ थे तथा श्री कृष्ण की ही भाँति ये भी संसार का उद्धार करनेवाले थे । भक्तमाल में श्री नाभादास जी स्पष्ट कहते है कि इन सातों महापुरुषों का यशोगान करना चाहिये , नित्य स्मरण करना चाहिए ।

गुसाई श्री विट्ठलनाथ जी का श्री ठाकुर जी के प्रति वही भाव था, जो नन्दरायजी और यशोदारानी का बालकृष्ण के प्रति था । श्री ठाकुर जी ने भी इनके वात्सल्यभाव को स्वीकार किया था और उनके साथ छोटे बालक-जैसी ही लीला किया करते थे । वे कभी दूध पीने मे आना कानी करते, कभी सोने मे तो कभी बन्दर से डरकर उनकी की गोद मे छिप जाते । श्री गुसाँई जी उनकी इस लीला से आनन्दविभोर हो जाया करते थे । उनके वात्सल्य भावपर रीझकर एकबार श्री ठाकुर जी प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा । तब आपने यह वर माँगा कि आपने द्वापर मे श्री नन्दराय जी को जैसी बाललीला का सुख दिया एवं उनका आपमे जैसा वात्सल्य-स्नेह था, वैसा ही सुख एवं वैसा ही स्नेह आप कृपा करके हमको भी प्रदान करें।

तब श्री ठाकुर जी ने कहा-पिता के रूप मे तो मुझे आप पितृसुख दे देंगे, पर बिना माता के मेरी बाललीला का पूर्ण विकास कैसे होगा ? अत: पहले आप मेरे रिक्त मातृपद की पूर्ति करें , फिर आपको परम प्रभावशाली सात पुत्रों की प्राप्ति होगी । उन सभी पुत्रों मे पाँच-पाँच वर्षतक मेरा आवेश रहेगा । इस प्रकार अगप को दीर्घकाल तक मेरा वात्सल्य सुख प्राप्त होता रहेगा । कालान्तर मे प्रभुकृपा से आपको सात पुत्रों की प्राप्ति हुई और आप दीर्घकालतक वात्सल्य रससिन्धु मे अवगाहन करते रहे । आपने अपने सातों पुत्रों के लिये सात गद्दीयों की स्थापना की, जिससे वैष्णव धर्म और भगवद्भभक्ति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । लीला संवरणकाल मे आपने अपने सभी पुत्रों को श्री ठाकुर जी का एक-एक सेवा -विग्रह प्रदान किया था, जिनकी आज भी परम्परागत रूप से सेवा – पूजा हो रही है ।
[

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.63
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इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || ६३ ||

इति – इस प्रकार; ते – तुमको; आख्यातम् – वर्णन किया गया; गुह्यात् – गुह्य से; गुह्य-तरम् – अधिक गुह्य; मया – मेरे द्वारा; विमृश्य – मनन करके; एतत् – इस; अशेषेण – पूर्णतया; यथा – जैसे; इच्छसि – इच्छा हो; तथा – वैसा ही; कुरु – करो |

भावार्थ
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इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्यतर ज्ञान बतला दिया | इस पर पूरी तरह से मनन करो और तब जो चाहे सो करो |

तात्पर्य
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भगवान् ने पहले ही अर्जुन को ब्रहभूत ज्ञान बतला दिया है | जो इस ब्रहभूत अवस्था में होता है, वह प्रसन्न रहता है,न तो वह शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है | ऐसा गुह्यज्ञान के कारण होता है | कृष्ण परमात्मा का ज्ञान भी प्रकट करते हैं | यह ब्रह्मज्ञान भी है, लेकिन यह उससे श्रेष्ठ है |

यहाँ पर यथेच्छसि तथा कुरु – जैसे इच्छा हो वैसा करो – यह सूचित करता है कि ईश्र्वर जीव की यत्किंचित स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करता | भगवद्गीता में भगवान् ने सभी प्रकार से यह बतलाया है कि कोई अपनी जीवन दशा को किस प्रकार अच्छी बना सकता है | अर्जुन को उनका सर्वश्रेष्ठ उपदेश यह है कि हृदय में आसीन परमात्मा की शरणागत हुआ जाए | सही विवेक से मनुष्यको परमात्मा के आदेशानुसार कर्म करने के लिए तैयार होना चाहिए | इससे मनुष्य निरन्तर कृष्णभावनामृत में स्थित हो सकेगा,जो मानव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है | अर्जुन को भगवान् प्रत्यक्षतः युद्ध करने का आदेश दे रहे हैं | शरणागत होने के पूर्व जहाँ तक बुद्धि काम करे मनुष्य को इस विषय पर मनन करने की छूट मिली है और भगवान् के आदेश को स्वीकार करने की यहीसर्वोत्तम विधि है | ऐसा आदेश कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधिस्वरूप गुरु के माध्यम से भी प्राप्त होता है |

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