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June 15, 2025 4:28 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 116(1) श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 40″, श्री भक्तमाल (140)तथा श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>1️⃣1️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं,
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।
भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं,
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

त्रिजटा उस दिन उदास थी ……..क्यों की रावण की सभा में स्वयं रावण नें ही अपनें छोटे भाई विभीषण का अपमान किया था ……….

बड़े दुःखी मन से त्रिजटा मुझे सभा में घटी घटना सुना रही थी ।

रामप्रिया ! जब कुम्भकर्ण चला गया शयन करनें ……तब उस सभा में मेरे पिता विभीषण ही रह गए थे …………….

तात रावण ! आपका ये भाई विभीषण आपसे हाथ जोड़कर कह रहा है ……………..सीता को लौटा दो ………….हे राक्षसेन्द्र !

आपको मैं समझाऊँ ये शोभा नही देता …….आप तो विद्वान हैं भैया !

परायी स्त्री का अपहरण करनें से आयु और यश का नाश होता है ….।

हे राक्षस राज ! आप इनकी बात पर ध्यान न दें ……….आप स्वयं ईश्वर हैं……..आप बस आज्ञा दें और चुटकी में ही हम लोग उन वानरों को समुद्र में सदा सदा के लिए सुला देंगें ।

“प्रहस्त” नामक रावण का एक चाटुकार मन्त्री विभीषण की बातों को काटते हुए रावण से बोला था ।

ये आपके चाटुकार ! आपकी लंका और राक्षस समाज का कभी हित नही चाहेंगें…….भैया रावण ! मेरी बात मानिये……..इनके कहनें पर मत चलिये ……..ये उन राम की सेना के करोड़ों वानरों को मृत्यु की नींद सुलानें की बात करते हैं ……..पर ये लोग तब कहाँ थे जब एक वानर पूरी की पूरी लंका जला गया ……..तब ये क्यों मौन साधे रहे ।

विभीषण जी आज स्पष्ट बोल रहे थे, निडर होकर ।

हम मानवों से नही डरते……….बल्कि मानव तो हमारे आहार हैं ।

रावण का मन्त्री “प्रहस्त” फिर बोला ।

यहाँ क्या तुम्हे किसी भोगों की कमी है ?

विभीषण नें “प्रहस्त” के बातों की उपेक्षा कर दी ।

फिर रावण की और देखते हुये विभीषण बोले…….तात रावण ! आपको घेरे हुए ये लोग आपके मित्र नही हैं …….यही आपके शत्रु हैं ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ….!!!!

🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-40”

( “हरि ने दधि कौ स्वाद न जान्यौ”- गोपी प्रेम )


मैं मधुमंगल …..

मेरौ तौ प्राण सखा है कन्हैया …प्राण ही है ….कन्हैया में सख्यभाव के अलावा और कछु भाव मेरे मन में आवै ही नही …..हाँ , कभी माता जी या ऋषि शांडिल्य के पास जाऊँ तौ ये बस …कन्हैया कूँ ब्रह्म सिद्ध करवे में ही लगे रहें । कन्हैया ब्रह्म है …नही नही ब्रह्म कौ बाप है कन्हैया ….लेकिन मेरौ तौ सखा है , यार है कन्हैया ।

अब कल मैं अपनी माता जी की कुटिया में गयौ ….वहाँ तौ सत्संग चल रो …बड़े बड़े दाढ़ी वाले सत्यलोक के ऋषि मेरी माता जी के चरणन में बैठे है ….और सत्संग सुन रहे …..मैं हूँ बैठ गयौ ………

“भगवान कौ स्वभाव कितनौं कोमल है”…..मेरी माता जी बताय रहीं …उदाहरण दै रहीं पुराणन के ….कह रहीं …देखौ …..भगवान का कह रहे हैं अपने भक्तन के काजे …..”भक्तन के अधीन हूँ मैं तौ ….भक्त मोकूँ बिना मोल के ही ख़रीद लैं हैं । मैं बिक जाऊँ । ना , ज्ञानी के हाथन में नही आऊँ …..योगी ते हूँ मैं दूर हूँ ….लेकिन मैं भक्तन ते बडौ ही प्यार करूँ । भक्तन कूँ छोड़के मैं कहूँ नही जाऊँ”….कहते भए मेरी माता जी के नेत्रन ते भाव के अश्रु बह रहे हे ।

“चौं कि …भक्त मेरे लिए सब कुछ त्याग के चले है”……जे भगवान की वाणी है । माता जी कह रही हैं ….शायद काहूँ पुराण कौ नाम हूँ माता जी ने लियौ हो ।

पत्नी, पति, बालक, भाई, माता, पिता घर …सब कछु त्याग के चले हे मेरौ भक्त …मेरे में ही बाकौ मन , बुद्धि , अहंकार चित्त …सब कछु लगौ रहे । मेरे भक्त के लिए अपनौं कहवे कूँ कोई नही है ….बाकौ जो भी है , मैं ही हूँ …बस मैं ही ।

मेरे भी नेत्रन ते अश्रु बह चले हे ….आहा ! मेरौ कन्हैया ऐसौ ही है ….लेकिन मैया बृजरानी नही समझे हैं….जे कन्हैया कौ स्वभाव है …जो कन्हैया ते प्रेम करैगौ …कन्हैया बाही के यहाँ जावैगौ ।

सत्संग पूरौ भयौ ….आकाश मार्ग ते जो जो ऋषि आए हे सब चले गये …..समय देख के मैं भी जब जावै लगो तौ माता बोलीं ….वत्स मधुमंगल ! श्रीकृष्ण कैसे हैं ? मोकूँ हँसी आवै ….कितने आदर ते बोलें बा नन्द में छोरा ते मेरी माता । मैंने हँसते भये कही …..ठीक है ।

आएवै की सोचूँ वत्स ! नन्द भवन में …..लेकिन श्रीकृष्ण के स्मरण ते ही ध्यान लग जावै …..कल आऊँगी , कह दियौ नन्द रानी ते । मैंने कही …ठीक है माता ! और मैं प्रणाम करके चल दियौ ….तौ मार्ग में ही मोकूँ मिल गयौ कन्हैया ….मोकूँ ही खोजतौ भयौ आय रो ….संग में बाके साथी हे । सारे ! कहा हो तू ? मोते मिलते ही झगरौ करवे लग्यो । मैंने कही …कन्हैया ! माता के पास आयौ हो …..अब चल ! मैंने कही …कहाँ ? मथुरा जा रह्यो है माखन …चल लूट लैं ….कन्हैया बोलो …..अब मैं कहा कहतौ ….मेरी बात माने थोड़े ही जे नन्द कौ छोरा …चल भैया….मैं हूँ चल दियौ ।


दस गोपिन कौ झुण्ड है ….सब के सिर में माखन की मटकी है ….और सब जा रही हैं मथुरा के बजार में माखन बेचवे ।

लो जी ! आय गयौ कन्हैया ….हाथ में लकुट है , कारी कमरिया काँधे में है …..मोर मुकुट धारण कियौ भयौ ।

आड़े ते लगाय दियौ लकुट और बड़े प्रेम ते बोलो …..गोपी ! माखन दै ।

मैं देख रह्यो हूँ ….गोपी के नेत्रन में आनन्द छाय गयौ …..बु प्रतीक्षा ही कर रहीं …कि कन्हैया आवे और हमारौ माखन भोग लगावै । इनकी यही तौ पूजा है , इनकौ ध्यान यही तौ है …कि कन्हैया ….कन्हैया आय रह्यो है ….या लिए माखन निकाल रही हैं ….कन्हैया खाएगौ माखन ….तौ बड़े प्रेम ते बिलोय रही हैं । इनके नयनन में साँवरौ बस गयौ है …..या लिए इन्हें और कछु नही दीखे …न सूझे । अजी ! कौन सौ बाबा जी चौबीस घण्टा ध्यान करे है ? जे गोपियाँ करें …जागृत में तौ करें हीं ..सोते में हूँ …सपनौं याही कन्हैया कौ देखें । मैं सोच रो …आज माता जी जो पौराणिक चर्चा कर रहीं और कह रहीं ….कि भगवान भक्त के वश में हैं ….और भक्तन के पीछे पीछे भगवान डोलें …..तौ इन ग़ोपिन ते बड़ौ भक्त और कौन होयगौ ? सब कछु तौ इनन्हे कन्हैया कूँ ही समर्पित कर दियौ है ………..

अरे ! कन्हैया ने मटकी फोड़ दई ….माखन फैल गयौ …..गोपी अब रिसाय गयी है ….

आख़िर अहीर ही है तू ……गोपी रिस में बोली ।

कितने प्रेम ते मैंने माखन निकाल्यो …..लेकिन तू ….अरे ! लूटनौं ज़रूरी है का ? सच कहूँ कन्हैया ! प्रेम कौ स्वाद तू नही जानैं हे ।

मैं सुन रह्यो हूँ ….और चकित हूँ ….गोपी ब्रह्म ते कह रही हैं ….तू प्रेम नही जानैं हे । अरे ! मेरे पास आओ. …बैठौ ….बतियाओ….मुस्कुराओ …मेरे हाथ ते माखन खाओ ….लेकिन ….प्रेम कूँ तू समझे ही नही है ……..लूट ते माखन कौ स्वाद नही आवै लाला ! लूट ते प्रेम कौ रस नही मिले । कन्हैया ! प्रेम कौ रस मिलेगौ …समर्पण ते ….अपने आपकूँ सौंप दो हमारे हाथन में ….तब तुमकूँ समझ में आवैगी ….कि हम गोपिन के माखन में कितनौं स्वाद है । गोपियाँ कह रही हैं ….और कन्हैया उनकी बातन कूँ सुन रहे हैं ……धन्य हैं , धन्य हैं ये गोपियाँ ।

हट्ट ! “या हरि ने दधि कौ स्वाद न जान्यौ”…..कहती भई गोपियाँ वापस अपने घर की ओर चल दी हैं । कन्हैया उनके पीछे …मना रहे हैं ..रिसाय गयीं हैं गोपियाँ ।

जय हो ! इन गोपिन के समान कौन है भक्त । नही नही ये तौ भक्तन की शिरमौर हैं ।

क्रमशः….

Hari sharan


Niru Ashra: श्री भक्तमाल (140)


सुंदर कथा ९२ (श्री भक्तमाल – श्री कृष्णदास जी ) भाग 02

कड़ी संख्या 139 का शेष

पूरे मार्ग में श्रीकृष्ण दास जी की बहुत अधिक निंदा होने लगी । लोगो ने कृष्णदास जी से कहा कि आप जैसे आचार्य यह कैसा आचरण कर रहे है ? आचार्य जैसा करता है, समाज भी उसी का अनुसरण करता है । अनेको प्रकार से कृष्णदास जी की निंदा हुई परंतु उनके मन मे तो यही भावना थी कि किसी तरह यह स्त्री मेरे लालजी की सेवा मे पहुंच जाए । संत को क्या सम्मान और क्या अपमान ?

जीव का स्वभाव ऐसा है कि कोई उसके लिए जीवन भर हजारो सहयोग करने वाले सत्कर्म करे परंतु एक बार अपराध बन जाये तो वह उस अपराध को याद रखता है , हजारो सहयोगों यो याद नही रखता । परंतु प्रभु का स्वभाव ऐसा है कि राई के दाने के बराबर ( थोड़ा)भी कोई उनका भजन करे तो प्रभु उस जीव को अपना मानकर मेरु समान (बहुत अधिक मानते है ) और समुद्र के समान किये गए अवगुणों की ओर ध्यान नही देते । संतो ने वाणी में कहा है –

अवगुण करे समुद्र सम गिनत ना अपनो जान ।
राई के सम भजन को मानत मेरू समान ।।

संत अकारण कृपालु होते है – वो कब किसपर क्यों कृपा करते है यह समझना अत्यंत कठिन है । जिसको संत अपना मान लेते है, उसे भगवान को अपनाना ही पड़ता है भले ही वह जीव कैसा भी हो। श्री कृष्णदास जी उस वेश्या को अंपने संग श्री श्रीनाथजी के मंदिर मे लिवा लाये और बोले – आजतक तुमने संसारी लोगों को रिझाया है, अब हमरे श्री लालजी को रिझाओ । देखो, ये कैसे रिझवार है । जैसे ही मंदिर के पट खुले और वेश्या ने श्री श्रीनाथजी का दिव्य दर्शन किया वैसे ही प्रभु थोड़ा सा मुसकरा दिए – उस वेश्या के हृदय मे तत्काल प्रेम प्रकट हो गया । वह प्रेममत वाली हो गयी और स्वर साधकर उसने आलाप किया । श्री कृष्णदास जी ने पूछा – क्या तुमने मेरे लालजी को अच्छी प्रकार देखा ? उस वेश्या ने कहा – हाँ, मैने देखा, दर्शन मात्र से ही हृदय को अत्यन्त अच्छे लग रहे है ।

वेश्या ने अपने नृत्य, गान, तान, भावभरी मुसकान और नेत्रों की चितवन से श्री नाथजी को एकदम रिझा लिया । उसने एकदम तदाकार होकर नृत्य गान किया । प्रेमाधिक्य के कारण मंदिर में ही उसका शरीर छूट गया । श्री ठाकुरजी ने उसके जीवात्मा को अंगीकार कर लिया । वेश्या ने अपने हृदय मे प्रेमभाव भर रखा था और भगवान् भी प्रेम के भूखे है, अत: उसकी जाति भक्ति या कर्मपर दृष्टि न देकर उसके हृदय के प्रेम को ही अपने हृदय मे धारणकर अपना लिया । एक घड़ी के सत्संग के प्रभाव से उस वेश्या का शरीर श्रीनाथ जी के निज मंदिर में संतो की उपस्थिति मे छूट गया । बाबा श्री तुलसीदास कहते है –

एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की , हरे कोटि अपराध।।

३. श्री सूरदास जी एवं श्री कृष्णदास जी –

एक बार श्री कृष्णदास जी श्री सूरदास जी से मिलने आये । पद-रचना के प्रसंग मे श्री सूरदास जी ने विनोद मे कहा कि आप तो कविता करने मे बड़े प्रवीण है, अत: कोई ऐसा पद बनाकर गाइये, जिसमे मेरे पदों की छाया न हो । श्री कृष्णदास जी ने पाँच-सात पद गाये । श्री सूरदास जी उन पदों को सुनकर मुसकराने लगे तथा पूछनेपर बताया कि आपके इस पद मे हमारे इस पद की छाया है । श्री कृष्णदास जी बडे संकुचित हुए । श्री सूरदासजी ने कहा कि अच्छा, कोई बात नही है, कल प्रात: काल कोई नया पद बनाकर आकर मुझे सुनाना । अपने निवास-स्थानपर आकर श्री कृष्णदास जी को भारी सोच हुआ क्योंकि कोई भी भाव श्री सूरदास जी से अछूता नही मिल रहा था ।

श्री कृष्णदास जी की सोच का निवारण करने के लिये प्रभुने स्वयं एक अत्यन्त सुन्दर पद बनाकर श्री कृष्णदास जी की शय्यापर रख दिया । जब चिन्ता मे निमग्न श्री कृष्णदास जी शय्यापर पौढ़ने गये तो सिरहाने श्री प्रभु के करकमल से लिखा हुआ पद पाया । फिर क्या था, प्रात:काल होते ही श्री कृष्णदास जी पुन: श्री सूरदास जी के पास आये और उस पद को सुनाया । सुनकर श्री सूरदास जी बडे सुखी हुए, साथ ही यह जानकर कि यह पद श्री कृष्णदास जी द्वारा रचित नही हो सकता है , इसे तो श्री श्रीनाथजी ने बनाया है ,श्री सूरदास जी ने इसे श्री ठाकुर जी का पक्षपात बताया । श्री ठाकुर जी के इस पक्षपातपर श्री सूरदास जी रूठ गये । उन्होंने मंदिर मे कीर्तन की सेवा बन्द कर दी, तब श्री ठाकुर जी ने उन्हें मनाया । फिर तो भक्त और भगवान के हृदय मे परस्पर प्रेम रंग छा गया ।

४. श्री गोलोक धाम गमन लीला –

अन्त समय मे श्री कृष्णदास जी फिसलकर कुएं मे गिर गये और उसी मे इनका शरीर छूट गया । यद्यपि भजन के प्रताप से आपको तत्काल दिव्य देह की प्राप्ति हो गयी, परंतु लोगों के मन मे अकाल मृत्यु की आशंका थी । इस आशंका से रसिकजनों के मन मे दुख हुआ । सुजान शिरोमणि श्री श्रीनाथ जी ने भक्तों के हार्दिक दु:ख को जानकर उसे दूर करने के लिये तथा लोगों की आशंका का निवारण करने के लिये श्री कृष्णदास जी का परम सुखदायी ग्वाल स्वरूप लोगों को प्रत्यक्ष दिखला दिया । शरीर छूटने के अगले दिन ही श्री गोवर्धन जी की तलहटी मे कुछ व्रजवासियों को दिव्यदेह धारी श्री कृष्णदास जी का दर्शन हुआ ।

श्री कृष्णदास जी ने व्रजवासियों से कहा कि आप लोग चिंता मत करो, मुझे लेने स्वयं श्री बलदाऊ जी आये है और आगे श्री बलदाऊ जी गये है, उन्ही के साथ पीछे पीछे मै भी जा गोलोक धाम को रहा हूँ । आपलोग श्री गुसाई विट्ठलनाथ जी से मेरा प्रणाम कह देना । तदुपरान्त श्री कृष्णदास जी ने पृथ्वी मे गडे हुए धन का पता बताया, जो इन्होंने पूर्व शरीर से सुरक्षार्थ पृथ्वी गाड़ रखा था । व्रज वासियों ने आकर श्री कृष्णदास जी का वृत्तांत गुसाई श्री विट्ठलनाथ जी से निवेदन किया, पुन: निर्दिष्ट स्थान खोदा गया तो वहां धन भी मिला जो गुसाई जी ने प्रभु और संतो की सेवा में लगा दिया । इस घटना से सब को विश्वास हो गया कि निश्चय ही इन व्रजवासियों को श्री कृष्णदास जी मिले थे तथा दूसरी बात यह कि श्री कृष्णदास जी की अधोगति नही हुई, वे भगवान की नित्यलीला मे सम्मिलित हो गये ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.65
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मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||

मत्-मनाः – मेरे विषय में सोचते हुए; भव – होओ; मत्-भक्तः – मेरा भक्त; मत्-याजी – मेरा पूजक;माम् – मुझको; नमस्कुरु – नमस्कार करो;माम् – मेरे पास; एव – ही; एष्यसि – आओगे; सत्यम् – सच-सच; ते – तुमसे; प्रतिजाने – वायदा या प्रतिज्ञा करता हूँ; प्रियः – प्रिय;असि – हो; मे – मुझको |

भावार्थ
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सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |

तात्पर्य
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ज्ञान का गुह्यतम अंश है कि मनुष्य कृष्ण का शुद्ध भक्त बने, सदैव उन्हीं का चिन्तन करे और उन्हीं के लिए कर्म करे | व्यावसायिक ध्यानी बनना कठिन नहीं | जीवन को इस प्रकार ढालना चाहिए कि कृष्ण का चिन्तन करने का सदा अवसर प्राप्त हो | मनुष्य इस प्रकार कर्म करे कि उसके सारे नित्य कर्म कृष्ण के लिए हों | वह अपने जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित करे कि चौबीसों घण्टे कृष्ण का ही चिन्तन करता रहे और भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो इस प्रकार कृष्णभावनामाय होगा, वह निश्चित रूप से कृष्णधाम को जाएगा जहाँ वह साक्षात् कृष्ण के सान्निध्य में रहेगा | यह गुह्यतम ज्ञान अर्जुन को इसीलिए बताया गया, क्योंकि वह कृष्ण का प्रिय मित्र (सखा) है | जो कोई भी अर्जुन के पथ का अनुसरण करता है, वह कृष्ण का प्रिय सखा बनकर अर्जुन जैसी ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है |

ये शब्द इस बात पर बल देते हैं कि मनुष्य को अपना मन उस कृष्ण पर एकाग्र करना चाहिए जो दोनों हाथों में वंशीधारण किये, सुन्दर मुखवाले तथा अपने बालों में मोर पंख धारण किये हुए साँवले बालक के रूप में हैं | कृष्ण का वर्णन ब्रह्मसंहिता तथा अन्य ग्रथों में पाया जाता है | मनुष्य को परम ईश्र्वर के आदि रूप कृष्ण पर अपने मन को एकाग्र करना चाहिए | उसे अपने मन को भगवान् के अन्य रूपों की ओर नहीं मोड़ना चाहिए | भगवान् के नाना रूप हैं, यथा विष्णु, नारायण,राम, वराह आदि | किन्तु भक्त को चाहिए कि अपने मन को उस एक रूप पर केन्द्रित करे जो अर्जुन के समक्ष था | कृष्ण के रूप पर मन की यह एकाग्रता ज्ञान का गुह्यतम अंश है जिसका प्रकटीकरण अर्जुन के लिए किया गया, क्योंकि वह कृष्ण का अत्यन्त प्रिय सखा है |

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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