[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>1️⃣1️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं
धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यं ।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावत्
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
“भक्तवत्सल श्रीराम की जय”
“शरणागत वत्सल श्रीराम की जय”
“कृपापारावार श्री रघुनाथ जी की जय”
उस दिन पागलों की तरह अशोक वाटिका में हर्षोन्मत्त त्रिजटा उछलती कूदती मेरे श्रीराम की जय जयकार कर रही थी………….।
कोई सुन लेगा त्रिजटा ! ये राक्षस लोग सुन लेंगें, और रावण को बता दिया तो ?
अरे ! कोई नही सुनेगा मेरी रामप्रिया ! सब डरे हुए हैं …….सागर तट में बैठे उन “वानर सेना” ने रावण तक को डरा दिया है ।
इसलिये अब इन लोगों को ये सब सुननें की फुर्सत नही है…..समझीं मेरी रामप्यारी ! ये कहते हुए मेरे कपोल को पकड़ लिया था त्रिजटा नें ।
पर हुआ क्या ? तू बड़ी खुश है ……..मेरे श्रीराम का जयजयकार लगाये जा रही है ……मुझे भी तो बता क्या हुआ ऐसा ?
मैने त्रिजटा से पूछा था ।
मैं रावण की सभा में गयी थी ……( त्रिजटा बुद्धिमान है , इसलिये रावण नें उसको कहीं भी आने जानें की स्वतन्त्रता दे रखी थी )
पर तेरे पिता जी को तो………? मैं पूछ रही थी कि तेरे पिता विभीषण को तो लंका से निकाल दिया ……..उसके बाद भी तू रावण की सभा में गयी ……..और रावण नें कुछ कहा नही ?
मेरी माता मेरा भाई और मैं ……हम रावण से सम्बन्ध रखनें के पक्ष में नही थे अब ……..क्यों की मेरे पिता का अपमान किया ।
पर मन्दोदरी आयीं और हम लोगों को समझाया ………….उसके बाद अपनें भवन में ले गयीं ……तब रावण हम लोगों से बोला था …..विशेष मेरे सिर में हाथ रखते हुए बोला था ………”विभीषण की घटना को तुम लोग पारिवारिक रूप से मत लेना …….ये मेरी राजनीति है ……..और त्रिजटा ! तू सभा में पहले की तरह ही आना ……..और कुछ सलाह देनी हो तो मुझे दे देना ……विभीषण मेरा भाई है ………..पर मैनें उसे बहुत समझाया – वो माना नही…..चलो ! पर तुम लोग निश्चिन्त होकर लंका में रहो “
मुझसे पूछा रावण नें ……………सीता कैसी है ?
ठीक है ।
……मेरे बारे में कुछ कहती है ?
नही ………कुछ नही ……….मैने इतना ही कहा ……और अपनी माता और भाई को लेकर निकल गयी थी ।
रावण की सभा में गयी ………..तो “शुक सारक” नामक दो राक्षसों को रावण नें मेरे पिता विभीषण के पीछे लगा दिए थे …………….वही आये वापस , और रावण को वहाँ की सारी सूचना दी …………मेरे पिता विभीषण को “लंकापति” बना दिया श्रीराम नें ……………..।
शुक सारक बोले थे……….राम नें “लंकेश” कहकर राज्याभिषेक किया विभीषण का ………………….
सभा में बैठे सब लोग हँसे ……..पर हे रामप्रिया ! मेरे नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे थे …….ओह ! श्रीराम इतनें करुणावान हैं ।
सुना ना ! त्रिजटा ! वो रावण के दूत और क्या बता रहे थे …. सागर के तट की बात ? बता ना !
त्रिजटा बतानें लगी थी मुझे ……….
आप लोग शरणागतवत्सल श्रीराम को मेरा ये निवेदन सुना दो !
गगन से मेरे पिता विभीषण नें कहा था …….त्रिजटा नें मुझे बताया ।
सागर के किनारे करोड़ों वानर फैले हुये थे ………मेरे पिता को जैसे ही आकाश मार्ग से वहाँ उतरते हुये देखा तो सब सावधान हो गए ।
वानरराज सुग्रीव आगे आये …..और बोले ………कौन हो तुम ?
शीघ्र बताओ ……..नही तो हम तुम्हे मार देंगें ………..तब मेरे पिता विभीषण नें कहा था …………
समस्त सृष्टि को शरण देनें में समर्थ मेरे श्रीराम को ये मेरा निवेदन सुना दो ……..
मैं दुर्भाग्य से लंकापति रावण का अनुज विभीषण हूँ ………….जिस रावण नें उनकी भार्या सीता का हरण किया है ………उसी रावण नें गीधराज जटायू को भी मारा है …..और अभी भी लंका में श्रीमैथिली सीता को बन्दिनी बना कर रखा है……..अनीति अत्याचार जिसका कृत्य है……..मैं दुर्भाग्य से उसी राक्षसराज का छोटा भाई हूँ ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!
🌹🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-43”
( मेहरानौ के पण्डित जी )
मैं मधुमंगल ….
मेरी प्यारी मैया , मैया यशोदा । कल की एक बात बताऊँ ? हँसियों मत ….अपनौं कन्हैया है ना …ये बड़ौ ही बदमाश है …..अब कहाँ कहूँ । मैया की सोच के मोकूँ दया हूँ आवै ।
कल बेचारी मैया कितनी खुश ही ….प्रसन्नता में बाके पाम धरती में ही नाँय टिक रहे हे । चौं कि आज आयवे बारे हैं ….कौन ? मेहरानौं के पण्डित जी । अब तुम कहोगे पण्डित मधुमंगल ! जे मेहरानौं कहाँ हैं ? तौ बताय दऊ …जे मेहरानौ है …हमारी प्यारी मैया यशोदा कौ मायकौ ।
हमारी मैया यशोदा कौ जन्म याही गाँव में भयौ …….तौ यही गाँव के पण्डित जी हैं …जौ मैया यशोदा के पिता “सुमुख” नामक गोप के पारिवारिक पुरोहित हैं ।
आज आयवे वारे हैं पण्डित जी । मेहरानौ के पण्डित जी । मैया बता रही ….कि पण्डित जी ने मैया कूँ गोद में खिलायौ ……तौ मैंने हूँ पूछ लई …..फिर तौ आयु बहुत है गयी होयगी पण्डित जी की ? मैया बोलीं …. दो सौ वर्ष के आस पास हैं । किन्तु बड़े ही तेजवान हैं पण्डित जी । अरे ! सबरे शास्त्र कंठाग्र हैं पण्डित जी कूँ ……
मैंने अनुभव कियौ कि …..मातान कूँ अपनौं मायकौ कितनौं प्रिय लगे ….आज हूँ मैया यशोदा अपने मायके कूँ याद करके खोय रहीं हैं ।
आज आय रहे हैं मधुमंगल ! मैया बताय रहीं …लेकिन काहू के हाथन कौ छूवो नही खामें पण्डित जी । फिर ? मैंने पूछी तौ बताय रहीं ….स्वयंपाकी हैं …स्वयं बनामें और पामें । तौ या लिए मधुमंगल तू मेरी सहायता में रहियौ….है ? मैंने कही …मैं तौ यहीं हूँ ….मैया ! जो काम होय बताय दीयों ।
मैया बस अब लग गयीं हैं अपने मायके के पण्डित जी की ख़ातिरदारी में ।
मैया ! तू कहा कर रही है ? लो जी ! कन्हैया हूँ आय गयौ …..
यहाँ नहीं , यहाँ नहीं …….मैया ने भगाय दियौ लाला कूँ ……..
पर मैया ! कौन आय रो है , जो तू गोबर ते अपने ही हाथ धरती लीप रही है ?
देख लाला ! बड़े ही सिद्ध पण्डित जी आय रहे हैं ……मैंने ही नयन मटकाय के कही लाला ते ……सुन लै , तेरी मैया का कह रही है ………
लेकिन कन्हैया सुन नाँय रो …वहीं घूम रह्यो है ……आस पास ।
मैया मोते अपनी बात बता रहीं ….जब मेरे लाला कौ जन्म भयौ ना ..तब मैंने पण्डित कूँ न्यौतौ भिजवायौ ….लेकिन पण्डित जी नही आ पाये …अब उनकौ जोग बन्यो है ….मैया और बोलती जा रहीं हैं …मायके की खुशी मैया के मुखमंडल में तुम देख सकौ हो ।
आय गए , आय गए …..मैया यशोदा तौ द्वार पे ठाढी ही हैं …..साथ में बृजराज बाबा हूँ हैं ….कन्हैया कूँ पकड़ के रखी है मैया ने …लेकिन जब पण्डित आए तब भग गो दारिकौ ।
मैया ने स्वागत कियौ …..बृजराज बाबा ने चरण वन्दन किए ….फिर सुन्दर सौ आसन दै कै बामें विराजमान कियौ …….पण्डित जी के चरण पूजे …अब ? मुस्कुराके मैया पूछ रही है ……तब पण्डित जी बोले …बेटी यशोदा ! देख अब मैं स्नान करूँगौ …फिर रसोई बनाय के भगवान नारायण कूँ भोग लगाऊँगौ । लेकिन तेरौ लाला कहाँ है ? पण्डित जी ने पूछी।
अरे कहा बताऊँ पण्डित ! बड़ौ ही ऊधमी है ….बड़ौ ही । दिन भर बाहर ही रहे हे …यहीं कहीं होयगौ । मैया इधर उधर देखवे लगीं …एक मणिस्तम्भ के पीछे छिपे हैं कन्हैया । मैया ने देख लियौ …..लाला ! आजा ! देख कौन है ? पण्डित जी ! मैया कह रही है …बुलाय रही है ….पण्डित जी ने देख लियौ ….तौ कन्हैया छिप गये ….पण्डित जी देख रहे हैं ….आहा ! बालक तौ अद्भुत पायौ है यशोदा तेनैं । यशोदा मैया हंसती भई बोलीं ….अरे ! पण्डित जी कहा अद्भुत है ….परेशान कर के रखे । पण्डित जी ने जब देखी उधर कन्हैया झाँक रहे हैं ….फिर छुप रहे हैं …..मुस्कुराते भए पण्डित जी उठे …..और स्नान करने के लिए चले गए ।
अब कन्हैया आए …उधर उधर देखा …फिर पण्डित जी कूँ खोजवे लगे …..पण्डित जी तौ स्नान करके भोजन बना रहे हे ….शुद्धता-पवित्रता के साथ । कन्हैया अब दूर ते देख रहे हैं ।
पूड़ी बनाई , सब्ज़ी बनाई , खीर बनाई ….समय लग्यो लेकिन पण्डित जी ने बनाई …..
कन्हैया देख रहे हैं ।
फिर पण्डित जी ने भोग लगाएवे की तैयारी करी ……भगवान चक्रपाणि नारायण कौ सुन्दर सौ विग्रह है पण्डित जी के पास ……बाही विग्रह के सामने पण्डित जी ने सबरे भोग सामग्री रख दिये ….फिर आँखन कूँ बन्द करके …मन्त्र पढ़वे लगे …..मन्त्र पूरौ भयौ तौ हाथ जोड़के बोले ….हे लक्ष्मी पति ! भोग लगाओ …आओ । हे नारायण ! आओ भोग लगाओ ….कहते भए पण्डित जी के नेत्रन ते अश्रु बह रहे हैं ……भाव में डूब गए हैं पण्डित जी । आओ ना ! भोग लगाओ ना !
तभी …..पण्डित जी ! मैं आय गयौ हूँ …मैं भोग लगाय रह्यो हूँ । कन्हैया ने जैसे ही कही …..पण्डित जी ने अपने नेत्र खोले ….तौ सामने – खीर खाय लियौ हो कन्हैया ने ….खीर खतम …जे देखते ही पण्डित जी चिल्लाए …यशोदा ! ओ नन्द गेहनी ! जैसे ही सुनी मैया ने वो दौड़ीं ……लाला खीर खा रह्यो है थाल कौ । हे भगवान ! मैया ने अपने लाला कूँ दो चपत लगाय पीठ में ….फिर बोलीं …चौं आयौ तू यहाँ ? जूठौ कर दियौ सबरौ । लै गयीं मैया यशोदा लाला कूँ ….लेकिन हाथ जोड़के बोलीं …..पण्डित जी ! रसोई फिर बनाओ ….मैं सब शुद्ध कर दे रही हूँ …..फिर चौका लगाय रही हूँ ।
अब रहन दै यशोदा ! फल दै दै …..फल खायके सो जाऊँगौ । पण्डित जी जब बोले ..तौ मैया बोलीं …ना , थोड़ौ परिश्रम और होयगौ …पण्डित जी ! फिर बनाय लो भोजन । जिद्द करी मैया ने तौ पण्डित जी फिर दुबारा बनायवे लगे भोजन । फिर पूड़ी , सब्ज़ी , खीर बनाई …..बनाय के फिर अपने नारायण भगवान के सामने धर दियौ …..और आँख बन्द ।
हे लक्ष्मी पति ! भोग लगाओ …हे नारायण ! भोग लगाओ । भाव ते बोल रहे हैं …पण्डित जी घण्टी भी बजाय रहे हैं ….अब जैसे ही सुनी कन्हैया ने …..तौ मन में कही …लो , जे पण्डित जी तौ फिर बुलाय रहे है ….कन्हैया गए ….उधर पण्डित जी कौ ध्यान …इधर कन्हैया कौ भोग आरोगनौं ।
पण्डित जी की प्रार्थना पूरी भई ….और इधर कन्हैया कौ भोजन पूरौ भयौ ।
यशोदा ! ओ नन्दरानी ! पण्डित जी फिर जोर ते चिल्लाए ….मैया भागीं …हे भगवान ! कन्हैया फिर गयौ दीखे पण्डित जी के पास । मैया जब आयीं तौ ….दारिके ! तू फिर आयगौ ! मैया ने दो चपत लगाये पीठ में ही …..फिर पण्डित जी ते बोलीं …मैंने कही ना …बहुत ऊधमी है छोरा …का करूँ …परेशान कर दियौ है ……यशोदा ! फल दे दे ….पण्डित जी ने मैया की पूरी बात नाँय सुनी ….और फल माँग रहे …..चौं कि पण्डित जी के पेट में चूहा कूद रहे ….नही नही ..कूद नाँय रहे अब तौ मर ही गए होंगे । ( मधुमंगल यहाँ बहुत हंसते हैं )
नही पण्डित जी ! मैया बोलीं । तौ पण्डित जी बोले …अब नही पाक बनायौ जाएगौ यशोदा ! थक गयौ हूँ ना ! लेकिन मैया हूँ बोलीं …पण्डित जी ! खीर बनाय ल्यो । पण्डित जी ने लम्बी साँस लई …फिर कन्हैया की ओर देखके बोले …या बार याकूँ पकड़ के रखियो यशोदा ।
हाँ , हाँ ….मैया बोलीं ….और रोहिणी मैया कूँ बुलाय के कही …लाला कूँ सम्भालियौ रोहिणी ! पकड़ के रखियो….मैं पण्डित जी के चौके में चौका लगाय दऊ ।
मैया चौका लगायवे लगीं ….रोहिणी मैया ने कन्हैया कूँ अपने पास रख्यो है ।
अब पण्डित जी ने खीर बनाई ….मात्र खीर । और खीर कूँ बड़े ही प्रेम ते एक थाल में डाल दियौ ताकि शीघ्र ही ठण्डी है जाये …..फिर ……
हे नारायण ! भोग लगाओ …हे लक्ष्मी पति ! भोग लगाओ ।
कन्हैया ने देख्यो – रोहिणी मैया रसोई में गयीं हैं …और उधर पण्डित जी बुला रहे हैं …कन्हैया भागे पण्डित जी के पास ……लेकिन आज पण्डित जी आँखन कूँ खोल खोल के देख रहे हैं …कन्हैया गए और झट जाकर खीर में हाथ डाल दियौ ….अब तौ पण्डित जी ने जैसे ही देखो …….उधर ते मैया दौड़ी …रोहिणी जी भी भागीं । कन्हैया कूँ पकड़ लियौ मैया ने …और दो चपत या बार कपोल में लगाती भई बोलीं …..चौं रे ! चौं परेशान करे पण्डित कूँ ?
मैंने कहाँ परेशान करौ ? कन्हैया बोले ।
तू चौं जुठौ करे भोजन कूँ ? मैया पूछ रही है ।
मैया ! इन पण्डित जी ते कह ….जे मोकूँ काहे बुलामें ?
मैया ! ये कहें ….हे नारायण आओ ! तौ तू का नारायण है ? मैया बोलीं ।
मैया ! इन पण्डित जी ते पूछ …..का मैं नारायण नही ?
मैया ने पण्डित जी की ओर देख्यो …पण्डित जी तौ चकित भाव ते कन्हैया कूँ देख रहे हैं …हाथ जोड़ रहे हैं ……हाँ हाँ , यही है यशोदा ! मेरा नारायण ।
पण्डित जी कन्हैया के आगे साष्टांग लेट गए हैं ……
कन्हैया कह रह्यो है अपनी मैया ते …मैया ! मैं नारायण हूँ …मैया ! मैं ही लक्ष्मी पति हूँ …मैया ! लक्ष्मी मेरी पत्नी है …तबहीं मैं आय गो ….मैंने कही …मैया ! तू लक्ष्मी की सास है । मैया बोली …तुम दोनन कूँ अभी बताऊँ …हम भागे वहाँ ते …लेकिन पण्डित जी तौ अब कन्हैया के बाही जूठे खीर कूँ खाय रहे हैं …..कन्हैया ही नारायण है जे बात पण्डित जी के समझ में आय गयी है …..लेकिन मैया के समझ में नही आय रही ..आनौं भी नही चहिए ।
फिर लीला बनेगी नही ना ।
क्रमशः…..
Hari shara
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (143)
सुंदर कथा ९५ (श्री भक्तमाल – श्री पूर्ण परमानंदाचार्य जी ) भाग 01
(श्री श्री पूर्णवैराठी रामेश्वर दास जी महाराज का कृपाप्रसाद से प्राप्त चरित )
श्री पूर्णजी (परमानंदाचार्य )की महिमा अपार है, कोई भी उसका वर्णन नहीं कर सकता है । आप उदयाचल और अस्ताचल – इन दो ऊँचे पर्वतो के बीच बहनेवाली सबसे बडी ( श्रेष्ठ ) नदी के समीप पहाड़ की गुफामे रहते थे । योग की युक्तियों का आश्रय लेकर और प्रभु मे दृढ विस्वास करके समाधि लगाते थे । व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक पशु वहीं समीप मे खड़े गरजते रहते थे, परंतु आप उनसे जरा भी नही डरते थे । समाधि के समय आप अपान वायु को प्राणवायु के साथ ब्रह्माण्ड को ले जाते थे, फिर उसे नीचे की और नहीं आने देते थे । आपने उपदेशार्थ साक्षियों की, मोक्षपद प्रदान करनेवाले पदों की रचना क्री । इस प्रकार मोक्षपद को प्राप्त श्री पूर्णजी की महिमा प्रकट थी ।
१. श्री पूर्ण जी भगवत्कृपा प्राप्त श्री रामभक्त सन्त थे । एक बार आपका शरीर अस्वस्थ हो गया । आपको औषधि के लिये औंगरा ( एक जडी ) की आवश्यकता थी । आस पास उस समय कोई नही था जिससे जडी लाने कहा जाये । इनके मन की बात जानकर भगवान् श्री रामचन्द्रजी ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और औंगरा लाकर दिया । जिससे ये स्वस्थ हो गये । भगवत्कृपाका अनुभव करके आप प्रेम-विभोर हो गये । आप पूर्णतया अकाम और सभी प्रकार की आसक्तियोंसे रहित थे ।
२. एक बार एक यवन-बादशाह ने आपके इन्द्रिय -संयम की परीक्षा लेनी चाही, किंतु पूर्ण जी उसमें पूर्ण सफल रहे । वह प्रसंग इस प्रकार है – आश्रम से कुछ दूरपर नगर था, वहाँ यवन बादशाह रहता था । उसकी कन्या ने श्री पूर्णजी का दर्शन , सत्संग किया तो वह अत्यन्त ही प्रभावित हो गयी । उसने अपने पितासे कहा कि मै दूसरे किसी के साथ व्याह न करूँगी । संसारी सुखों की मुझे बिल्कुल इच्छा नही है । आप मुझे श्री पूर्णजी की सेवामें रख दीजिये । बादशाह ने श्री पूर्णजी के पास आना-जाना प्रारम्भ किया और अपनी दीनता से उन्हें प्रसन्न कर लिया । किसी दिन श्री पुर्नजी ने उस बादशाह से कहा कि चाहो सो माँग लो । तब उसने यही वरदान माँगा कि मेरी कन्या को आप अपनी सेवा में रख लीजिये । यह अन्यत्र नहीं जाना चाहती है । आपने कहा कि हम विरक्त साधु हैं, अपना धर्म छोडकर उसे संसारी सुख नही दे सकते है । वह मेरे निकट रहकर भजन साधन कर सकती है । यवन-कन्या की भी यही इच्छा थी, अत: वह आपके पास रही । आप पूर्ण अकाम थे, अत: इस परीक्षा मे उत्तीर्ण हुए । कुछ काल बाद यवन-कन्या सत्संग-लाभ लेकर सद्गति को प्राप्त ही गयी ।
३. श्री पूर्ण जी का नाम श्री अग्रदेव जी के शिष्यों मे आया है । एक बार आप स्वर्णरेखा नदी के तट पर स्थित पीपल की छाया मे विराजे थे । भगवत्स्मरण करते हुए शान्त एकान्त मे आपको निद्रा आ गयी । वृक्ष की खडखडाहट से आपकी नींद खुली तो आपने एक अद्भुत विशाल वानर को पीपलपर इधर उधर कूदते देखा । यह सोच में पड़ गए कि यह अद्भुत वानर कौन है ? उसी समय वानर के मुख से – “दासोऽहं राघवेन्द्रस्य ” (मै श्री राघवेंद्र प्रभु का दास हूं )यह स्पष्ट सुनायी पडा । साक्षात् श्री हनुमान जी है, यह जानकर आपने साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और हनुमदाज्ञा से उसे पवित्र स्थल जानकर आपने वहीं अपना निवासस्थान बनाया और वहां श्री हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की । भगवन्नाम जप के प्रभाव से आपमे सर्वसिद्धियाँ आ गयी । सुख शान्ति के निमित्त आनेवाले जनसमुदाय के मनोरथ पूर्ण होने लगे । आपकी प्रसिद्धि हो गयी ।
४. वह अकबर का शासन-काल था । दुष्ट यवन हिन्दू धर्म मे अनेक प्रकार से बाधा करते थे । साधु का सुयश न सह सकने वाले यवन अधिकारियों ने आदेश दिया कि शंख -घंटा नाद मत करो । आपने सुनी – अनसुनी कर दी । सायंकाल को आपने जैसे ही शंखध्वनि की, कई सिपाहियोंके साथ मुस्लिम थानेदार इनायत खाँ पकडने आ गया, पर पकड़ न सका, क्योंकि मंदिर के चारों ओर बड़े-बड़े बन्दरों की भीड़ ने सेना का रास्ता रोक लिया । ऐसे विशाल वानर उन यवनों ने कभी नही देखे थे। वे भय से पीछे हो गए और सब निराश लौट गये । दूसरे दिन शंख बजते ही वे लोग और बड़ी सेना लेकर पुन: पकड़ने आये तो उनके आश्वर्य का ठिकाना न रहा ।उन्हें वहां श्री पूर्ण जी का छिन्न-भिन्न मृत शरीर पड़ा मिला, कही हाथ, कही पैर, कही मस्तक। वे खुश हुए की साधू मर गया और लौट चले । अभी वे चौकीपर पहुँचे भी न थे कि पुन: शंख ध्वनि होने लगी । वापस आकर देखा तो फिर वही दृश्य देखा और डर कर भागा । इनायत खाँ समझ गया कि यह हिंदु फ़क़ीर सिद्ध है । इनायत खां ने इनकी सिद्धियों का चमत्कार अकबर को लिख भेजा ।
शेष भाग कड़ी संख्या 144 में देखें
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.68
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य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः || ६८ ||
यः – जो; इदम् – इस; परमम् – अत्यन्त; गुह्यम् – रहस्य को; मत् – मेरे; भक्तेषु – भक्तों में से; अभिधास्यति – कहता है; भक्तिम् – भक्ति को; मयि – मुझको; पराम् – दिव्य; कृत्वा – करके; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; एष्यति – प्राप्त होता है;असंशय – इसमें कोई सन्देह नहीं |
भावार्थ
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जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास वापस आएगा |
तात्पर्य
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सामान्यतः यह उपदेश दिया जाता है कि केवल भक्तों के बीच में भगवद्गीता की विवेचना की जाय, क्योंकि जो लोग भक्त नहीं हैं, वे न तो कृष्ण को समझेंगे, न ही भगवद्गीता को | जो लोग कृष्ण को तथा भगवद्गीता को यथारूप में स्वीकार नहीं करते,उन्हें मनमाने ढंग से भगवद्गीता की व्याख्या करने का प्रयत्न करने का अपराध मोल नहीं लेना चाहिए | भगवद्गीता की विवेचना उन्हीं से की जाय, जो कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हों | यह एकमात्र भक्तों का विषय है, दार्शनिक चिन्तकों का नहीं, लेकिन जो कोई भगवद्गीता को यथारूप में प्रस्तुत करने का सच्चे मन से प्रयास करता है, वह भक्ति के कार्यकलापों में प्रगति करता है और शुद्ध भक्तिमय जीवन को प्राप्त होता है | ऐसी शुद्धभक्ति के फलस्वरूप उसका भगवद्धाम जानाध्रुव है |


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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877