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April 18, 2025 11:42 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 120(1), “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’की आत्मकथा – 51”, श्री भक्तमाल (152) तथाश्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा –

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
🌺भाग >>>>>>>> 1️⃣2️⃣0️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

श्रीराघवं दशरथात्मजमप्रमेयं,
सीतापतिं रघुकुलान्वयरत्नदीपम् ।
आजानुबाहुमरविन्ददलायताक्षं,
रामं निशाचरविनाशकरं नमामि ॥

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मैं उस दिन अपनी माँ पृथ्वी से प्रार्थना करती रही ………मै रो रो कर प्रार्थना कर रही थी…….मैने अपना मस्तक पृथ्वी में रख दिया था ।

अब आपके हाथों में है आपकी बेटी माँ ! मैं ये कहते हुये पृथ्वी के अंश रज को अपनें माथे से लगा रही थी…..माँ ! मत छोड़ना “अंगद” का पैर …आप उसके पैर को पकड़े रहना । मेरा रोना बन्द नही हो रहा था ।

मुझे त्रिजटा बता गयी थी, जल्दी जल्दी में इतना ही बोली थी कि – श्रीराम नें अपना दूत अंगद भेजा है रावण के पास…….उसके लंका में प्रवेश करते ही …..भगदड़ मच गयी थी ……सबको लग रहा था कि वही पहले वाला वानर आया है …….और रावण के एक पुत्र को भी मार दिया था उस अंगद नें ।

यहाँ तक तो कोई बात नही थी ………मरना मारना तो अब होगा ही ….युद्ध जो छिड़नें वाला है ……..पर आगे जो त्रिजटा नें बताया ……

रामप्रिया ! अंगद नें अपना पैर जमा लिया है रावण की सभा में …..और चुनौती दी है ……….जो मेरे इस पैर को उठा देगा ……….मैं कहता हूँ श्रीराम सीता को छोड़ कर वापस अयोध्या चले जायेंगें ………..।

क्या ! मैं चौंक गयी थी………मैं स्तब्ध हो गयी………ये क्या कह दिया उस अंगद नें ……..ओह !

आप धीरज रखिये रामबल्लभा ! मैं अभी आती हूँ ………….

इतना कहकर त्रिजटा चली गयी थी ।

मैं इस समाचार से विचलित हो गई……….ये क्या बात हुयी ?

अंगद ऐसे कैसे चुनौती दे सकता है …….!

फिर मैं बैठ गयी थी ……और अपनी माँ से प्रार्थना करनी शुरू की मैनें …….माँ ! हे धरती माँ ! आप उस अंगद का पैर मत छोड़ना ।

घड़ी दो घड़ी के बाद त्रिजटा आयी ……उसनें जो मुझे बात बताई थी ………सुनकर मैं ख़ुशी से उछल पड़ी ….और मैने स्वयं आगे बढ़कर त्रिजटा को अपनें हृदय से लगा लिया था ।


लंका के सुबेल पर्वत शिखर पर बैठे श्रीराम आज गम्भीर चिन्तन में थे ।

सुग्रीव !, विभीषण ! जामवन्त ! ……इस लंका को नही बचाया जा सकता ना ? श्रीराम गम्भीर होकर बोले थे ।

श्रीराम का हृदय व्याकुल हो उठा था …………मेरी सीता को तो मैं मिलूँगा ऐसा विश्वास है ……….पर सुग्रीव ! यहाँ के वीर राक्षस मारे जायेंगें ….. तो उनकी पत्नियाँ विधवा हो जायेंगी ना ?

त्रिजटा मुझे ये सब शुरू से ही बता रही थी ……..कि घटना कहाँ से शुरू हुयी …….।

हमारे राक्षस समाज में पुनर्विवाह है देव !

सिर झुकाकर दवे स्वर से विभीषण नें कहा  था  ।

पर नही ….कितनें बच्चे अनाथ हो जायेंगे ना ! मेरे श्रीराम का हृदय आज रो उठा था ।

और देखो ! सुग्रीव ! कितनी सुन्दर ये लंकापुरी है …….इसकी अट्टालिकायें ……….ये सब श्मशान बन जाएगा ?

फिर कुछ देर बाद श्रीराम स्वयं बोले थे………हमको एक प्रयास और करना चाहिये………दशानन शायद समझ सके ।

आप क्या करना चाहते हैं प्रभु ? जामवन्त नें पूछा था ।

रावण को एक मौक़ा और मिलना चाहिये………..श्रीराम बोले ।

सब एक दूसरे का मुँह तांकनें लगे ……..क्या कह रहे हैं प्रभु !

हाँ ………”अंगद को दूत बनाकर एक बार भेजो लंका” ….प्रभु श्रीराम का आदेशात्मक वाक्य प्रकट हुआ ।

अंगद आगे आये और श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके अन्य आदेश की प्रतीक्षा करनें लगे ।

अंगद ! अगर दशानन अधर्म का मार्ग छोड़ दे……तो ये राम , रावण को क्षमा कर देगा…….इतना कहते हुये अंगद के मस्तक में अपनें कोमल कर रख दिए थे मेरे श्री राम नें ।

चार परिक्रमा की अंगद नें श्रीराम की ……और चल पड़े रावण के पास ..श्रीराम दूत बनकर ………..सन्धि के लिये ।


पर रावण की सभा में जाते हुए एक दुर्घटना भी हो गई ।

क्या ? मैने त्रिजटा से पूछा ।

रावण का एक पुत्र “अक्षमाली” खेलता हुआ मिला……वो दौड़ा अंगद को लात मारनें……..तब अंगद नें उसी लात को पकड़ घुमाया और पछाड़ दिया…..वो तड़फ़ भी न सका ….और उसके प्राण पखेरु उड़ गए ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ….!!!!

🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-51”

( दामोदर लीला-भाग 6 )


मैं मधुमंगल……

कल से आगे का प्रसंग –

लेकिन तभी ….मैया ! मैया ! मैया ! रसोई घर ते एक गोपी ने आवाज लगाई ।

मैया यशोदा यहाँ कन्हैया ते बतिया रही हीं । माता और पुत्र में मीठी मीठी बातें है रहीं । तभी …गोपी ने आवाज लगाई ।

मैया, मैया ….

का भयौ ?

मैया ने गोपी ते पूछ्यो ।

मैया ! बहु चहिए । इधर कन्हैया कूँ अपनी ही पड़ी है ।

मैया ! रसोई घर कौ दूध उफन गयौ । गोपी रसोई ते ही बोली ।

मैया यशोदा कूँ पतौ है कि ….कन्हैया दूध पीवे तौ मेरे बाद में सुरभि गैया कौ ही दूध पीवे । या लिए मैया यशोदा दधिमन्थन ते पहले ही हल्के आँच में दूध कूँ धर के आयीं हीं …..लेकिन यहाँ तौ लाला के संग बातन में सब भूल गयीं ….तब गोपी ने देख्यो , और मैया कूँ बुलायौ ।

तब मैया ने कन्हैया कूँ अपनी गोद ते उतार नीचे रख दियौ, और मैया दौडीं रसोई घर की ओर ।


मोकूँ हँसी आय गयी ….मैं कन्हैया माहूँ देखके हँस रो ……कन्हैया ! तेरी मैया तौ तोकूँ छोड़के चली गयी……अब तेरी बहु कहाँ ते आएगी ?

मेरी बातन ते कन्हैया रिसाय गयौ ……”मेरी मैया ने मोकूँ छोड़ कैसे दियौ “।

“दूध उबल गयौ हो , या लिए तेरी मैया गयी है दूध कूँ उतारवे “ ….मैंने कही ।

“दूध प्यारौ है मैया कूँ , जे पूत प्यारौ नही हैं”…..कन्हैया बोलो …और क्रोध में भरके इधर उधर देखवे लग्यो ….वहाँ कछू नही मिल्यो तौ फिर आगे गयौ ….सामने माखन की मटकी धरी हती ….वहाँ रुक गयौ ….फिर इधर उधर देखके पास में पत्थर की लोढी ही ….वाही कूँ उठाय के माखन की मटकी में जोर ते मार दियौ ….ओह ! मटकी तौ फूट गयी । अधचल्यो माखन पूरे आँगन में फैल गयौ …..

अब तौ डरवे लग्यो कन्हैया ….मैया ते डर लगरौ है याकूँ ।

मैं और बोल दियौ ….लाला ! अब तौ मैया तोकूँ पीटेगी । कन्हैया के आँखन में भय छाय गयौ है ….मोकूँ आनन्द आय रो ….मृत्यु जाते भयभीत है जावे …वो कन्हैया , एक मैया ते डर रह्यो है ।

मैंने कही ….लाला ! झूठे आँसू लगाय लै …तेरी मैया तोकूँ पहले ही रोते देखेगी …तौ पीटेगी नाँय …..मेरी बात मान के ….कन्हैया ने अपने मुख ते लै कै …आँखन में लगाय लिए …अजी ! झूठे आँसू लगाय लिए और रोयवे कौ स्वाँग करवे लग्यो । मोते कन्हैया बोल रो …मधुमंगल ! मैया कूँ बता …का बताऊँ ? कि रोय रो है तेरौ लाला …जे बता । जे कहके कन्हैया फिर झूठे आँसू लगा लगा के रोयवे लग्यो …..

क्रमशः….
Hari sharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (152)


सुंदर कथा ९९ (श्री भक्तमाल – श्री पीपा जी ) (भाग -05)

पूज्य श्री नारायणदास भक्तमाली मामाजी, श्री राजेंद्रदासाचार्य जी , बाबा गणेशदास जी द्वारा श्री रामानंद पुस्तकालय की भक्तमाल और गीता प्रेस भक्तमाल से श्री पीपानंदचार्य जी का चरित्र :

१२. दुराचारी भगवद्विमुखो पर कृपा

अब जब राजा का अन्त: करण पवित्र हो गया, तब श्री पीपाजी ने उसे अनन्य भक्ति का उपदेश दिया । एक दिन एक साघुरूपधारी दुराचारी श्री पीपा जी के पास आकर बोला – आप अपनी स्त्री को मुझे एक रात के लिये दे दें । आपने कहा – ले जाओ । उसने सीता सहचरी जी से कहा – आप मेरे संग दौड़कर चलो । आज्ञा के अनुसार ये उसके साथ दौडती हुई चलने लगी । परंतु दौडते-दौडते सारी रात बीत गयी फिर भी उसका घर नही आया । प्रात:काल हो गया । ये बैठ गयी और बोली कि अब मै आपके साथ एक पग भी नहीं चल सकती हूँ क्योंकि मेरे स्वामीजी की यह आज्ञा थी कि इनके साथ एक रात रहना । सो वह रात बीत गयी । उसने सोचा कि थक गयी है, अत: पालकी या गाडी ले आऊँ, उसमे बिठाकर ले चलूँ । वह गाँव मे पालकी डोहने वाले को ढूंढने के लिए घर मे पुछने गया तो घर-घर मे श्रीसीता सहचरी के दर्शन हुए । तब उसकी आँखें खुली । वही आकर बोला- माताजी ! चलो, आपको स्वामीजी के पास पहुँचा आवे । आश्रम मे आकर वह श्री पीपाजी के और श्रीसीता सहचरीजी के पैरों मे गिर पडा, उसके मनसे कामवासना दूर हो गयी और सन्तभगवन्त की भक्ति मे दृढ़भाव हो गया ।

एक बार चार कामी-कुटिल दुष्टों ने सुन्दर माला तिलक आदि धारण कर लिया और श्री पीपाजी के निकट आकर बडी नम्रता से बोले – आप सच्चे सन्तसेवी है, आप अपनी स्त्री हमे दे दीजिये । श्री पीपाजी ने उन्हे कामभाव से व्याकुल होकर प्रतीक्षा करते देखा तो कहा – आपलोग कोठे के अंदर जाइये वहां सीता सहचरी श्रृंगार करके बैठी है । जैसे ही ये लोग कोठे के द्वारपर गये, वैसे ही एक सिंहनी इन सबके ऊपर इन्हे फाड़ डालने के लिये झपटी । परंतु उसने साधुवेष जानकर फाड़ा नही । वे चारो भयभीत होकर भागे और श्री पीपाजी से नाराज होकर बोलने लगे कि तुमने तो वहीपर हमलोगों को मरवाने के लिये सिंहनी बैठा रखी है, तुम साधु नही दुष्ट मालूम पड़ते हो । हँसकर आपने कहा – आपलोग अपने हृदय की कुत्सित भावनाओं को देखिये । अनधिकार भोगभावना ही सिंहनी है । सद्भाव से पुन: जाकर देखिये । उन लोगों ने फिर जाकर देखा तो सीता सहचरी जी विराजमान है । वे सब चरणों मे पड़कर रोने एवं अपराध क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे । श्री पीपाजी की ने उन्हें धर्म के मार्गपर चलने का उपदेश दिया , पीपा जी बात को सत्य मानकर (बात पर विश्वास रखकर) वे सब उनके शिष्य बन गये ।

१३. ग्वालिन को शिष्या बनाना

श्री पीपाजी के यहाँ विराजमान साधु सन्तो ने एक दिन दही पाने की इच्छा प्रकट की कि आज तो श्री रघुनाथजी का दहीभोग आरोगने का मन है । उसी समय एक ग्वालिन दही बेचती हुई उधर आयी । इससे यह जाना गया कि भगवान् अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते है । श्री पीपाजी ने दहीका मूल्य पूछा तो उस ग्वालिनने तीन आना बताया । परंतु उस समय श्री पीपाजी के पास एक भी पैसा नही था । उन्होंने उससे कहा – तू दही दे दे, पैसे अभी नही है, आज जो भी कुछ भेट मे आ जायगा, वही तुझको मिल जायगा । यदि कुछ न आया तो तुम्हारा दही ही भेंट समझा जायगा। ग्वालिन ने स्वीकार कर लिया । दही का भोग लगा, साधुओं ने शक्कर (मिश्री) मिलाकर भोग लगाया और बड़े प्रेम से दही पिया । उसी समय श्री पीपाजी का एक शिष्य आया और उसने एक मोतीमाला के समेत बहुत-सा धन भेंट किया । इन्होंने मोती माला और सम्पूर्ण धन ग्वालिन को दे दिया । उस ग्वालन का दही संतो के पेट को संतुष्ट कर जाने के कारण और संत पीपा जी के द्वारा मीले हुए शुद्ध धन से उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी । वह उस धनको घर लायी, उसके मन मे संत सेवा के निमित्त धन दान का संकल्प उठा । उसने उस धन मे से बहुत थोड़ा परिवार खर्च के लिए अपने पास रखा, शेष को भक्त भगवंत – सेवा में खर्च करके श्री पीपा जी की शिष्या बन गयी ।

१४. श्री रंगदास जी को भक्ति का मर्म समझाना

एक बार श्री पीपाजी श्रीअनन्तानन्द स्वामी (पीपा जी के गुरु भाई ) के शिष्य श्री रंगजी के यहाँ पहुँचे, उस समय वे भगवान का मानसी पूजन कर रहे थे । श्री पीपाजी उनकी पौरपर (घर के बाहार बैठने का स्थान) बैठे रहे । श्री रंगजी मानसी पूजा में भगवान का श्रृंगार कर रहे थे । पहले मुकुट धारण कराकर तब फूलों की माला पहना रहे थे । वह किंचित छोटो होनेसे मुकुट मे अटक रही थी । उनकी समझ मे नहीं आ रहा था कि कैसे पहनाऊँ ? श्री पीपाजी का मानसी-सेवा मे प्रवेश था, अत: बाहर से ही कहा कि माँठ खोलकर धारण करा दीजिये । श्री रंगजी ने ऐसा ही किया । फिर तुरंत ही विस्मित होकर आँख खोलकर इधर-उधर देखने लगे कि किसने इतनी गुप्त भावना को प्रत्यक्ष देखकर मुझे उपाय बताया है । जब वहाँ कोई नहीं दिखायी पडा तो उत्सुकतावश बाहर आये ।

परम तेजोमय दिव्य भव्य, प्रसन्न मुख श्री पीपाजी को देखकर श्री रंगनाथ जी ने पूछा -आप कौन है, कृपा करके अपना नाम बताइये । श्री पीपाजी ने मुसकराकर कहा- सन्तो से इस प्रकार कुछ पूछने की विधि नहीं है । यह सुनकर श्रीरंगजी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि यह कोई परम ज्ञानवान सिद्ध पुरुष है । अत: गीतोक्त विधिसे पुन: परिचय पूछा । जब श्री पीपाजी ने अपना नाम, ग्राम बताया तो सुनते ही वह इनके श्रीचरण-कमलों मे लोट पोट हो गये । इसके बाद वे हाथ जोड़कर बडी विनम्रता पूर्वक बोले -प्रभो ! मेरा मन तो यह था कि जब आप आयेंगे तो मै गाजे बाजे केसाथ चलकर आपकी अगवानी करूँगा । परंतु आप तो बिना किसी पूर्व सूचना के एकदम द्वारपर ही आ गये ।

आप कृपा करके बाग मे पधारें, मै आपकी अगबानी करने चलूँगा । श्रीपीपाजीने कहा-अरे भाई ! अब तो हम घरपर आ ही गये, अब अगवानी की क्या जरूरत रह गयी ? उन्होंने कहा – फिर तो महाराज, मेरी अभिलाषा अपूर्ण ही रह जायगी । अन्त मे उनके प्रेमसे हारकर श्री पीपाजी घर से एक क्रोस दूर बाग मे जाकर विराजे । श्री रंगजी खूब बाजे बज़चाते हुए मुहरे लुटाते हुए, प्रेम में मग्न होकर नृत्यगान करते हुए पालकी लेकर श्री पीपा जी को लाने चले । श्री पीपाजी ने कहा कि पालकीपर तो हमारे श्री सद्गुरुदेव जी (श्री स्वामी रामानन्दाचार्य जी )चलते है, भला मै पालकीपर कैसे चल सकता हूं । यदि आपका ऐसा हो भाव है तो श्री रामानंद स्वामीजी की छवि को पालकीपर पधराकर ले चलें, मै पैदल चलूँगा । ऐसा ही हुआ । श्रीपीपाजी उनके प्रेम को देखकर एक महीने तक उनके घर रहे । श्रीपीपाजीके सत्संगसे सम्पूर्ण गांव श्रीरामरंग मे रंग गया ।

इसी प्रकार आपने दो सस्त्रियों को भक्ति का चेत कराया, ब्राहाण कन्या का विवाह कराया, इत्यादि विविध चरित्रों को प्रदर्शित कर श्री पीपाजी ने भक्ति का विस्तार किया । उनके उदात्त चरित्र का महान् विस्तार है ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.77
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तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: |

विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः || ७७ ||
तत्– उस; च– भी; संसृत्य– स्मरण करके; संसृत्य– स्मरण करके; रूपम्– स्वरूप को; अति– अत्यधिक; अद्भुतम्– अद्भुत; हरेः– भगवान् कृष्ण के; विस्मयः– आश्चर्य; मे– मेरा; महान– महान; राजन्– हे राजा; हृष्यामि– हर्षित हो रहा हूँ; च– भी; पुनःपुनः– फिर-फिर, बारम्बार |

भावार्थ
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हे राजन्! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनःपुनः हर्षित होता हूँ |

तात्पर्य
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ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास की कृपा से संजय ने भी अर्जुन को दिखाये गये कृष्ण के विराट रूप को देखा था | निस्सन्देह यह कहा जाता है कि इसके पूर्व भगवान् कृष्ण ने कभी ऐसा रूप प्रकट नहीं किया था | यह केवल अर्जुन को दिखाया गया था, लेकिन उस समय कुछ महान भक्त भी उसे देख सके तथा व्यास उनमें से एक थे | वे भगवान् के परम भक्तों में से हैं और कृष्ण के शक्त्यावेश अवतार माने जाते हैं | व्यास ने इसे अपने शिष्य संजय के समक्ष प्रकट किया जिन्होंने अर्जुन को प्रदर्शित किये गये कृष्ण के उस अद्भुत रूप को स्मरण रखा और वे बारम्बार उसका आनन्द उठा रहे थे |

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