[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
🌺भाग >>>>>>>> 1️⃣2️⃣0️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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श्रीराघवं दशरथात्मजमप्रमेयं,
सीतापतिं रघुकुलान्वयरत्नदीपम् ।
आजानुबाहुमरविन्ददलायताक्षं,
रामं निशाचरविनाशकरं नमामि ॥
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
पर रावण की सभा में जाते हुए एक दुर्घटना भी हो गई ।
क्या ? मैने त्रिजटा से पूछा ।
रावण का एक पुत्र “अक्षमाली” खेलता हुआ मिला……वो दौड़ा अंगद को लात मारनें……..तब अंगद नें उसी लात को पकड़ घुमाया और पछाड़ दिया…..वो तड़फ़ भी न सका ….और उसके प्राण पखेरु उड़ गए ।
इस घटना से लंका भयभीत हो उठी…..पर अंगद बढ़ते चले गए …..सभा के द्वार पर खड़े रक्षक नें पूछा भी था – कौन हो तुम ?
तो एक ही उत्तर दिया था – श्रीराम दूत ।
फिर क्या हुआ त्रिजटा ? मुझे सब कुछ जानना था ।
रावण की सभा में रक्षकों नें भी जानें दिया अंगद को ………वैसे भी दूतों को कोई रोकता नही है ..।
हे रामप्रिया ! ये चर्चा आज लंका में बच्चों बच्चों के मुँह में है ।
रावण नें बैठनें के लिये अंगद को आसन नही दिया ……….वैसे भी दूतों को आसन देनें का विधान नही है……..दूत हो तो खड़े खड़े ही सन्देश दो …..जो देंनें आये हो ।
पर अंगद को रावण का ये व्यवहार अच्छा नही लगा…….तब अंगद नें अपनी पूँछ से ही अपना आसन बनाया….और उसमें बैठ गए थे ।
वानर ! कौन है तू ? रावण नें पूछा ।
मैं राम दूत हूँ ।……हे राक्षस ! मेरे पिता से तेरी मित्रता थी इसलिये सोचा कि तुझे समझा आऊँ । अंगद नें रावण को कहा ।
तेरे पिता कौन हैं ?
रावण जानबूझकर अंगद का अपमान कर रहा था ।
वानरराज बाली ……मेरे पिता थे ………तुम तो जानते हो शायद , कभी भेंट हुयी थी बाली से या नही ? व्यंग किया अंगद नें ।
अच्छा ! किष्किन्धा के बाली पुत्र अंगद तुम्ही हो ? अपनें कुल के कलंकित पुत्र तुम्ही हो ना ? फिर हँसता हुआ बोला ……..कहाँ है तुम्हारे पिता बाली ? लज्जा नही आती अंगद तुम्हें ? मैने सुना है राम नें तेरे पिता का वध किया …….उसके बाद भी तू उस राम का नाम “श्री” लगा के ले रहा है……।
रावण ! मेरे पास ज्यादा समय नही है…….इसलिये मुख्य बात मेरी सुन……..मूर्खता करनें से तुझे हानि ही होगी……ये लंका , यहाँ के कितनें निरपराध लोग युद्ध में मारे जायेंगें……इसी करुणा के वशीभूत होकर श्रीराम नें मुझे यहाँ भेजा है । अंगद नें कहा ।
तुम वानर होते तो हो स्वामी के बड़े भक्त ……….रावण हँसनें लगा ।
पर अंगद नें रावण की बातों में ज्यादा ध्यान नही दिया …….और जो कहना था वो कहते रहे ।
अभी भी कुछ नही बिगड़ा है ………..हे लंकेश ! अधर्म का पथ त्याग दो ……माँ सीता को लौटा दो ………शरणागतवत्सल की शरण ले लो ……
मेरी बात मानों रावण ! इन लंका के नर नारियों को इस युद्ध की विभीषिका में मत झोंको ।…..अंगद नें अपनें हाथ भी जोड़ लिए थे ।
देखना तुम्हारा राज्य , तुम्हारा सुख ऐश्वर्य अखण्ड बना रहेगा ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ….!!!!
🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-52”
( दामोदर लीला – भाग 7 )
कल से आगे का प्रसंग-
मैं मधुमंगल……
अब रसोई ते मैया यशोदा बाहर आयीं …..और आयके जब देख्यो कि मटकी तौ फूटी पड़ी है ..और दूध बिखर्यो पड्यो है । ओह ! या मटकी के प्रति मैया कौ विशेष मोह हो ….चौं कि मैया की ददिया सास की मटकी ही ये । लेकिन कन्हैया ने याकूँ फोड़ दियौ है । अब मटकी तौ फूटी कोई बात नही …लेकिन कन्हैया कहाँ है ? जे सोचके मैया थोड़ी दूर गयीं हैं …..
भयौ जे कि ….मेरे सामने जब कन्हैया झूठे अश्रु लगाय के रोयवे लगौ तब मैंने मैया ते कही ….मैया ! लाला रोय रो है । लेकिन मैया ने सुनी नही । तब मैंने ही कन्हैया ते कही …लाला ! अब कछु नहीं हे सके । या लिए तू रोनौं छोड़ । मेरी बात कन्हैया के हूँ समझ में आय गयी …बाने हूँ रोनौं छोड़के …अब इधर उधर देखवे लगो । मैंने कही …कहा देख रो है ?
लाला बोलो ….माखन है ..दही है …दूध है …लेकिन या समय अपने वानर कहाँ हैं ? मैं हँसो ….बोलो ..बाहर देख …तेरी वानर सेवा ठाढी है । सोई कन्हैया आँगन ते थोडौ बाहर निकस्यो …बाहर तौ शताधिक वानर हे….जैसे ही कन्हैया बाहर आयौ …सोई वानरन ने कन्हैया कूँ घेर लियौ ….कन्हैया बोले ….हाँ हाँ ..मैं तुमकूँ माखन खिलाऊँगौ चिन्ता मत करौ । जे कहते भए एक ऊखल में कन्हैया चढ़ गए….और मोते माखन की मटकी मंगाई ……फिर बड़े प्रेम ते कन्हैया वानरन कूँ माखन लुटायवे लगे …….वानर बड़े प्रसन्न हे ।
तभी ……वानर हटवे लगे …..वानर रस्तौ दैवै लगे ……मैंने देखी ….कौन आय रो है जाकूँ वानर रस्तौ देय रहे हैं …….अरे ! मैया आय रही है । मैंने कन्हैया ते कही …लाला ! देख ! कौन आय रो है ? कन्हैया ने जैसे ही देख्यो …सोई ऊखल ते कूद के भगौ । मैया पहले तौ हँसी …लेकिन फिर बाने सोचो …..नही , अति ऊधमी है रह्यो है लाला कन्हैया …या लिए थोड़ी ताड़ना हूँ जरुरी है । जे सोचके मैया ने पहले एक छड़ी उठाई …..मैं जोर ते बोलो …लाला ! मैया छड़ी लै कै आय रही हैं …..मेरी बात सुनके कन्हैया और तेज भगौ …….मैया और पीछे भागीं ……दारिके ! रुक …आज नही छोड़ूँगी …..हाथ में छड़ी है और मुख अब और रोषपूर्ण है गयौ है मैया कौ । पुत्र और माता दोनों भाग रहे हैं …….लेकिन ….लेकिन पाँच बरस कौ कन्हैया जितनौं दौड़ सके ….उतनी पिच्चासी बरस की मैया थोड़े ही दौड़ पावेगी । मैया थक गयी …बैठ गयी ….पसीने आय गए हैं मैया के …हाँफ रही है ।
मैया ! तू ठीक है ना ?
मैंने अपनी प्यारी मैया कूँ थकी जान के पूछ लियौ ।
हाँ , ठीक तौ हूँ लेकिन कन्हैया हाथ में आय जाये …तौ सारी थकान दूर है जाएगी ।
मैंने कही …बस इतनी सी बात मैया ! ले अभी हाथ में आवै तेरौ लाला ।
मधुमंगल ! मैं कहा करूँ ? मैया अब मोते पूछ रहीं ।
तू सौगन्ध दिला अपने छोरा कूँ …..मैंने कही ।
मधुमंगल ! काहे की सौगन्ध ?
मैया ! तू बोल ….कन्हैया हाथ में आय जा, नही तौ तोकूँ सतयुग के भक्तन की सौगन्ध है ।
मैया ने थोड़ी देर तौ सोचो ….कि जे का सौगन्ध है ? लेकिन मेरी बात मान के मैया बोलीं …लाला ! मेरे हाथ आय जा …नही तौ तोकूँ सतयुग के भक्तन की सौगन्ध है ।
जे सुनके कन्हैया गम्भीर है गयौ …..फिर सोचवे लग्यो ..सतयुग में तौ मेरे अनेक भक्त हैं …सतयुग के अधिकतर लोग मेरे भक्त ही होय हैं । या लिए सौगन्ध माननौं आवश्यक नही है ।
मैं नाँय आय रो मैया । कन्हैया ने सिगट्टा दिखाय दियौ मैया कूँ ।
“अब बोल”……मेरी ओर देख के मैया पूछ रही हैं ।
मैया ! अब कह – त्रेतायुग और द्वापर के भक्तन की सौगन्ध है तोकूँ कन्हैया ! आय जा ।
मेरी बात मानके मैया ने जे हु कह दियौ …..लाला ! मेरे पास आजा नही तौ तोकूँ त्रेता और द्वापर युग के भक्तन की सौगन्ध है । लेकिन कन्हैया नही आयौ ।
कन्हैया ने सोची …त्रेता और द्वापर में हूँ मेरे अनन्त भक्त हैं …या लिए इन सौगन्ध कूँ माननौं मोकूँ आवश्यक नही है ।
अब कन्हैया एक टीले से में चढ़ गये …..लेकिन तभी मैंने मैया ते कही …….अब बोल मैया ! “कन्हैया! तोकूँ कलियुग के भक्तन की सौगन्ध है”।
ओह ! जे सुनते ही कन्हैया रुक गयौ …बाने मेरी ओर देखी …बाके नेत्रन ते अश्रु बहवे लग रहे ….
सतयुग में अनन्त भक्त हैं मेरे , त्रेतायुग और द्वापर में हूँ हैं …..लेकिन ..कलियुग में तौ गिने चुने हैं ….उनकूँ मैं कैसे त्याग दऊँ ? कन्हैया कौ हृदय कलियुग के भक्तन के प्रति करुणा ते भर गयौ हो ।
मधुमंगल ! तेरी बात बेकार है ….देख नही आयौ लाला ……..
मैंने कही …मैया ! ठाड़ौ है तेरौ लाला …जा पकड़ लै ……
लेकिन भग जाएगौ ….मैया ने कही …तौ मैं बोल्यो ….नही , नही भगेगौ ……तू जा पकड़ लै ….मैया गयीं …..कन्हैया खड़े हैं ….मैया ने जायके पकड़ लियौ है कन्हैया कूँ …और दो चपत भी लगाय दिए ….कन्हैया रो रह्यो है …..मैंने कही ..मैया ! मत मारे ….मत पीटे अपने लाला कूँ …कोमल है तेरौ लाला । लेकिन मैया ने हूँ मोकूँ स्पष्ट कह दियौ …..मधुमंगल ! तू चुप रहे …..मैं चुप है गयौ ., कहा करतौ ……लेकिन कन्हैया …..रोतौ भयौ कह रो …..
“मारे मत मैया , वचन भरवाय लै”
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (153)
सुंदर कथा १०० (श्री भक्तमाल – श्री नरवाहन जी ) {भाग -01}
बाबा श्री गणेशदास भक्तमाली जी की भक्तमाल टीका , परमभागवत श्री हितदास जी महाराज एवं श्री हित अम्बरीष जी के भाव पर आधारित चरित्र –
भगवान श्री कृष्ण के वंशी के अवतार श्री हितहरिवंश महाप्रभु जी को देवबंद मे स्वयं श्री राधाजी से निज मंत्र और उपासना पद्धति की प्राप्ति हुई । श्री राधा जी ने एक दिन महाप्रभु जी को स्वप्न मे वृन्दावन वास कीआज्ञा प्रदान की । उस समय श्री महाप्रभु जी की आयु ३२ वर्ष की थी । अपने पुत्रों और पत्नी से चलने के लिए पूछा परंतु उनकी रुचि किंचित संसार मे देखी । श्री महाप्रभु जी अकेले ही श्री वृन्दावन की ओर भजन करने के हेतु से चलने लगे । कुछ बाल्यकाल के संगी मित्र थे, उन्होंने कहा कि हमारी भी साथ चलने की इच्छा है – हम आपके बिना नही राह सकते । श्री महाप्रभु जी ने उनको भी साथ ले लिया । रास्ते मे चलते चलते सहारनपुर के निकट चिडथावल नामक एक गांव में विश्राम किया । स्वप्न में श्री राधारानी ने महाप्रभु जी से कहा – यहाँ आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण देवता विराजते है ।
उनके पास श्री राधावल्लभ लाल जी का बड़ा सुंदर श्रीविग्रह है – उस विग्रह को लेकर आपको श्री वृन्दावन पधारना है, परंतु उन ब्राह्मणदेव का प्रण है कि यह श्रीविग्रह वे उसी को प्रदान करेंगे जो उनकी २ कन्याओं से विवाह करेगा । उनकी कन्याओं से विवाह करने की आज्ञा श्री राधा रानी ने महाप्रभु जी को प्रदान की। महाप्रभु जी संसार छोड कर चले थे भजन करने परंतु श्री राधा जी ने विवाह करने की आज्ञा दी । महाप्रभु जी स्वामिनी जी की आज्ञा का कोई विरोध नही किया – वे सीधे आत्मदेव ब्राह्मण का घर ढूंढकर वहां पहुंचे । श्री राधारानी ने आत्मदेव ब्राह्मण को भी स्वप्न मे उनकी कन्याओं का विवाह श्री महाप्रभु जी से सम्पन्न करा देने की आज्ञा दी । आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह कहा से आया इसपर संतो ने लिखा है –
आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे , आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । उन पूर्वज ने कहा – हमे तो कुछ माँगना आता ही नही , आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही कृपा कर के दीजिये । भगवान शिव ने कहा “तथास्तु “। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी है । कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे ।
भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व है , अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके है सो देना ही पड़ेगा । भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया । उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है । श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये । कार्तिक मास में श्री वृन्दावन में महाप्रभु का पदार्पण हुआ, यमुना जी के किनारे मदन टेर नामक ऊंची ठौर पर एक सुंदर लाता कुंज मे कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को श्री राधावल्लभ जी को सविधि अभिषेक करके विराजमान किया और उनका पाटोत्सव मनाया ।
वृन्दावन में उस समय नरवाहन नाम के क्रूर भील राजा का आधिपत्य था। उसके पास कई सैनिक और डाकुओं की फौज थी, ये यमुना तटपर स्थित भैगाँव के निवासी थे । लोदी वंश का शासन सं १५८३ मे समाप्त हो जाने के बाद दिल्ली के आस पास कुछ समयतक अराजकता (केंद्र मे किसीका पक्का शासन न होना) की स्थिति रही थी । इस काल मे नरवाहन ने अपनी शक्ति बहुत बढा ली थी और सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था । आसपास के नरेश तो इनसे डरने ही लगे थे, दिल्लीपति बादशाह भी उससे भय खाते थे अतः इस क्षेत्र में कोई नही आता था । वृन्दावन उस समय एक घना जंगल था जहां हिंसक पशु रहते थे, जहां सूर्य की किरणें भी पृथ्वी पर नही आती थी।
दर्शन करने वाले भक्त दूर से ही उस वन को प्रणाम करते थे । श्रीचैतन्य महाप्रभु के कृपापात्र कुछ बंगाली सन्त यहाँ बसने की चेष्टा कर रहे थे, किन्तु डाकुओं के आतंक से यहाँ जम नही पा रहे थे । इसी काल मे सं १५९१ मे श्रीहित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभजी के विग्रह एवं अपने परिवार परिकरसहित वृन्दावन पधारे और ब्रजवासियों से भूमि लेकर श्रीवृन्दावन मे निवास करने लगे । नरवाहन के सेनापति ने एक दिन महाप्रभु जी को भगवान की सेवा करते देखा और सोचा कि कोई इस सघन वन में अपने परिवार सहित रहने वाला यह कौन व्यक्ति है ? ऐसे सघन वन मे कोई अपने परिवार सहित भजन करने क्यों आएगा? यहाँ क्या उसे प्राणों का भय नही है ? क्रोध में भरकर सेनापति उनके निकट गया परंतु निकट आने पर सेनापति का क्रोध शांत हो गया, उसने परम शांति का अनुभव किया । सेनापति ने जाकर यह बात नरवाहन को बताई ।
सेनापति ने कहा – महाराज ! एक सद्गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार ,धन संपत्ति और भगवान का श्रीविग्रह लेकर ऊंची ठौर पर बसने आया है । नरवाहन ने कहा – क्या तुम बुद्धिहीन हो, की तुम्हे इतना भी नही पता की ऐसे सघन वन मे कोई धन संपत्ति लेकर क्यो आएगा जहां हमारे सैनिको द्वारा उसके धन को छीना जा सकता है ? जिस वैन में हमको भी सशस्त्र जाना पड़ता है, उस वन मे क्या कोई भजन करने आएगा? वो कोई संत नही है , वो तो दिल्लीपति बादशाह का कोई गुप्तचर (जासूस) होगा । हमारे बल की थाह पाने आया होगा। तुमने उसे यहां से बाहर निकाला क्यो नही ? सेनापति ने कहा – मै सशस्त्र क्रोध मे भर कर गया तो था परंतु वह इतना सुंदर है कि उसके निकट जाते ही मेरा क्रोध चला गया , मै कुछ कहने सुनने की स्तिथि में नही रह पाया । नरवाहन क्रोध में भरकर सशस्त्र सैनिको के साथ मदन टेर पर पहुंचे , उस समय महाप्रभु जी मुख्य द्वार की ओर पीठ करके बैठे हुए थे और अपने परिकर के साथ दिव्य वृन्दावन के स्वरूप की चर्चा कर रहे थे ।
नरवाहन ने अभी महाप्रभु जी के मुख का दर्शन भी नही किया था, केवल महाप्रभु जी पीठ का दर्शन करते ही सम्मोहन से हो गया । हाथ से तलवार छूट गयी और उस दिव्य चर्चा को सुनता ही रह गया । आंखों से झरझर अश्रुओं की धार बह रही थी ।
महाप्रभु जी ने घूम कर नरवाहन को देखा और उस समय नरवाहन को ऐसा लग रहा था कि वे किसी घोर निद्रा से धीरेधीरे जाग रहे है और उनके चारो ओर एक अद्भुत प्रकाश फैलता जा रहा है, जौ अत्यन्त सुहावना और शक्तिदायक है । इनके हृदय मे निर्वेद का भाव उठने लगा और इनको आपने पिछले हिंसापूर्ण कृत्योंपर पश्चात्ताप होने लगा । महाप्रभु जी ने कहा – मूर्ख ! निरंतर कुत्सित क्रूर कर्म करने से तेरी बुद्धि पर आवरण पड़ा है । ये देख , वृन्दावन के राजा रानी तो यहाँ बैठे है । एक बार इस रूप सुधा का पान तो कर । श्री हिताचार्य ने इनकी ओर करुणार्द्र दृष्टि से देखा और महाप्रभु जी की कृपा से श्री राधा कृष्ण और दिव्य वृन्दावन के साक्षात दर्शन हो गए । इन्होने अपना मस्तक महाप्रभु जी के चरणों मे रख दिया ।
नरवाहन ने श्री हिताचार्यं से अपनी शरण मे लेने की प्रार्थना की । महाप्रभु ने इनको दीक्षा दे दो और भविष्य मे सम्पूर्ण क्रूर-कर्मो को छोड़कर वैष्णवजनोचित आचरण करने के आज्ञा दी । इसके बाद इनको उपासना का स्वरूप बताया और गुरु, इष्टधाम की महिमा समझायी । नरवाहनजी ने अपनी गढी मे वापस पहुँचकर वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण बदल दिया और सेवा मे अपना सारा समय लगाने लगे । लूट-पाट बन्द कर देने से अब इनके तथा इनके आश्रित कर्मचारियों की जीविका का साधन खेती और कर वसूली ही रह गया था । उस समय यमुना जी के मार्ग से व्यापार होता था । वृंदावन क्षेत्र से गुजरने वाले जो मालवाहक नौका होते थे, ये लोग उनसे थोड़ा सा कर (टैक्स) लेकर जाने देते थे । लूटपाट बंद हो गयी थी । इनके आचरण-परिवर्तन कि सूचना चारों ओर फैल गयी थी ।
कुछ ही दिन बाद, एक जैन व्यापारी कई नावों मे बहुमूल्य सामान लादे हुए यमुनाजी मे दिल्ली से आगरा की ओर यात्रा कर रहा था । व्यापारी ने कई बजरों (बडी नावों ) में अपने साथ बन्दूकों से सुसज्जित सैनिक तैनात कर रखे थे जिस कारण किसी को कर ना देना पड़े । नरवाहन जी के कर्मचारियों को ऐसे लडाकू व्यापारी के आने की पूर्व सूचना मिल चुकी थी और उन्होंने भी अपने सैनिक बुला लिये थे । कर मांगने पर व्यापारी ने मना किया, नरवाहन जी के सैनिकों ने बहुत समझाया पर वह व्यापारी समझा नही और अंत मे व्यापारी ने बन्दूकों से लडाई छेड़ दी । इधर से भी बन्दूके चलने लगी और उसके सशस्त्र बज़रे डुबा दिये गये ।उसके नीच व्यवहार के कारण नरवाहन जी के सैनिकों ने नावों का माल लूटना पड़ा और व्यापारी को बन्दी बना लिया । इस युद्ध मे दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गये और यमुना जी का जल रक्त-रंजित हो गया ।
शेष कल की कड़ी (154) में जारी
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.78
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यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||
यत्र– जहाँ; योग-ईश्र्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण;यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्र्वर्य; विजयः– जीत;भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिः मम– मेरा मत |
भावार्थ
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जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
तात्पर्य
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भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ | वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था | उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी | लेकिन युद्धक्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा “आप अपनी विजय की बात सोच रहें हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन उपस्थित हैं, वहीँ सम्पूर्ण श्री होगी |” उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए | विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक ऐश्र्वर्य का प्रदर्शन था | कृष्ण समस्त ऐश्र्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है | ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण हैं, क्योंकि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्र्वर हैं |
युद्ध तो वास्तव में दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के बीच था | अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा था | चूँकि कृष्ण तथा अर्जुन युधिष्ठिर की ओर थे अतएव युधिष्ठिर की विजय ध्रुव थी | युद्ध को यह निर्णय करना था कि संसार पर शासन कौन करेगा | संजय ने भविष्यवाणी की कि सत्ता युधिष्ठिर के हाथ में चली जाएगी | यहाँ पर इसकी भी भविष्यवाणी हुई है कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर उत्तरोत्तर समृद्धि करेंगे, क्योंकि वे न केवल पुण्यात्मा तथा पवित्रात्मा थे, अपितु वे कठोर नीतिवादी थे | उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं किया था |
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्थल में दो मित्रों की वार्ता के रूप में ग्रहण करते हैं | लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता | कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया, जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है | यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में है – मन्मना भव मद्भक्तः| मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है – कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज) | भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है | अन्य सारी विधियाँ भले ही शुद्ध करने वाली तथा इस विधि तक ले जाने वाली हों, लेकिन गीता का अन्तिम सन्देश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है – कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो | यह अठारहवें अध्याय का मत है |
भगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है, लेकिन कृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है | यह भगवद्गीता के उपदेशों का सार है | वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अनुष्ठानों (कर्मकाण्ड) का मार्ग, ज्ञान का गुह्य मार्ग हो सकता है | लेकिन धर्म के अनुष्ठान के गुह्य होने पर भी ध्यान तथा ज्ञान गुह्यतर हैं तथा पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति में कृष्ण की शरणागति गुह्यतम उपदेश है | यही अठारहवें अध्याय का सार है |
भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान् कृष्ण हैं | परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है – निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् श्रीकृष्ण | परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान | यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं | कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं | जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं – नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त | ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं | भौतिक शक्ति २४ प्रकार से प्रकट होती है | सृष्टि शाश्र्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है | यह दृश्य जगत पुनःपुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है |
भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है – भगवान्, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्र्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म | सब कुछ भगवान् कृष्ण पर आश्रित है | परमसत्यत की सभी धारणाएँ – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ – भगवान् के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं | यद्यपि ऊपर से भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है | लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है | भगवान् चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद” | यह दर्शन पद्धति परमसत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है |
जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है | वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है | इस प्रकार भगवान् कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से | चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है | दूसरे शब्दों में, जीव भगवान् की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है | इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है | इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय “उपसंहार-संन्यास की सिद्धि” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |


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