[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
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मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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श्रीराघवं दशरथात्मजमप्रमेयं,
सीतापतिं रघुकुलान्वयरत्नदीपम् ।
आजानुबाहुमरविन्ददलायताक्षं,
रामं निशाचरविनाशकरं नमामि ॥
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
अभी भी कुछ नही बिगड़ा है ………..हे लंकेश ! अधर्म का पथ त्याग दो ……माँ सीता को लौटा दो ………शरणागतवत्सल की शरण ले लो ……
मेरी बात मानों रावण ! इन लंका के नर नारियों को इस युद्ध की विभीषिका में मत झोंको ।…..अंगद नें अपनें हाथ भी जोड़ लिए थे ।
देखना तुम्हारा राज्य , तुम्हारा सुख ऐश्वर्य अखण्ड बना रहेगा ।
हे अंगद ! तुम मेरे मित्र के पुत्र हो ………इसलिये मैं कह रहा हूँ ……….किसके साथ लगे हो तुम अंगद ! एक ऐसे तपश्वी के साथ जो राजकुमार था और उसके पिता नें उसे अपनें देश से निर्वासित कर दिया ……उस राम के साथ तुम हो ! रावण की कुटिलता देख ……अंगद चिल्लाये……….दुष्ट रावण ! तू ये सब किसके लिए कह रहा है …….उन श्रीराम के लिये, जिन्होनें करुणा करके सत्यपथ का मार्ग तुझ जैसे दुष्ट को दिखानें मुझे भेजा है….अंगद क्रोध में आगये थे ।
डर गया है राम ! ये कहते हुए ठहाका लगाकर रावण हँसा ।
सेना में कौन है ? मैं सबको जानता हूँ ………वो सुग्रीव ? वो तो डरपोक है अंगद ! तेरे पिता बाली से डरकर वो किष्किन्धा नही जाता था …..और रही जामवन्त की बात, तो वो बुढा हो गया है अब ।
हनुमान का नाम सुना है रावण ! अंगद व्यंग करनें लगे थे ।
रावण का चेहरा उतर गया ये नाम सुनते ही ।
दशानन ! स्वयं ही विचार करो …………एक वानर आकर तुम्हारी लंका को जला गया ……….ऐसे वानर तो कई हैं हमारे प्रभु श्रीराम की सेना में ………..दशकन्धर ! एक वानर नें त्राहि त्राहि मचा दी तो विचार कर अगर लाखों वानर ……………….
ये ज्यादा बोलता है मारो इसे…….रावण बीच में ही चिल्ला उठा ।
अंगद को क्रोध आया……..और क्रोध में भरकर अपनी मुट्ठी भींचके जैसे ही पृथ्वी में मारा……..पृथ्वी हिल गयी……..रावण का सिंहासन हिल गया…….उसके मुकुट गिर गए………।
हे रामबल्लभा ! उसी समय रावण का मुकुट लेकर अंगद नें बाहर फेंक दिया था ……. त्रिजटा नें मुझे बताया था ।
रावण !
चिल्लाया अंगद ।
और अपना दाहिना पैर धरती पर पटका …………”तेरी लंका का कोई भी शूर अगर मेरे इस पैर को उठा देगा ………तो मैं उनकी तरफ से कहता हूँ …….श्रीराम माँ सीता को छोड़ कर वापस चले जायेंगे”
फिर क्या हुआ त्रिजटे ! बोल आगे क्या हुआ ?
मैने त्रिजटा से पूछा ।
हे रामबल्लभा ! ऐसा सुनकर रावण आवेश में आगया ……
“इस वानर का पैर पकड़कर समुद्र में फेंक दो “
अंगद हँसे ……..तू स्वयं क्यों नही उठता रावण ! तू भी अपनी शक्ति लगा ले ……………………..।
प्रहस्त ! रावण नें सबसे पहले प्रहस्त को ही उठाया ………..।
पर पसीनें से लथपथ प्रहस्त वापस बैठ गया ।
ऐसे कई राक्षस आगे आये …….पर थक हार कर बैठ गए वापस ।
रामप्रिया ! मैं देख रही थी ……..मेघनाद भी उठा था …….हम सबको लग रहा था कि ये तो उठा ही देगा …….पर नही ।
त्रिजटा मुझ से बोली….रामप्रिया ! मुझे तो ऐसा लग रहा था कि पृथ्वी ही अंगद के पैर को पकड़े हुए थी…वही नही छोड़ रही थी अंगद के पैर ।
मैने मन ही मन कहा ……..”माँ, अपनी बेटी की लाज कैसे जानें देती” ।
त्रिजटा मुझे बताती रही…………अंतिम में रावण आया ……..
फिर ? फिर क्या हुआ त्रिजटा ?
रावण जैसे ही झुका अंगद के पैरों में, पैर उठानें के लिये …………
तभी अंगद नें अपनें पैर हटा लिये ………और हँसता हुआ बोला ….
रावण ! मेरे पैर पकड़नें से क्या होगा ………….पकड़ना ही है तो श्रीराम के पकड़ ……….कल्याण हो जाएगा तेरा …………..
इतना कहते हुये अंगद जोर से जयकारा लगानें लगा……..
असीम पराक्रम श्रीराम की ……जय
असह्य तेजा लक्ष्मण लाल की ……जय
इतना कहकर अंगद वहाँ से उछलते कूदते हुए चल दिए ……किसी की हिम्मत नही हुयी रामप्रिया ! कि कोई अंगद को रोक भी देता ।
इतना सुनते ही मैं ख़ुशी से झूम उठी थी…………मैने अपना माथा पृथ्वी में रख दिया था ………….ये क्या है रामप्रिया ! मुस्कुराते हुये त्रिजटा नें मुझ से पूछा …………….
कुछ नही त्रिजटा ! मैने त्रिजटा को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
शेष चरित्र कल ….!!!!
🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹l
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-53”
( दामोदर लीला – भाग 8 )
कल से आगे का प्रसंग –
मैं मधुमंगल………
कन्हैया के कान पकड़…छड़ी दिखाय रही हैं मैया यशोदा ।
“आज तौ तैनैं अती ही कर दीनी लाला , तोकूँ आज छोड़ूँगी नही “।
मैया कौ ऐसौ रूप आज तक कन्हैया ने देखो नही हो …घर लै कै आय रही हैं मैया यशोदा , कन्हैया कूँ पकड़ के । जब लै कै आय रहीं तौ कन्हैया रोय रो ….रोयवे की आवाज़ कन्हैया की ग़ोपियन ने सुनी तौ सब बाहर आयीं ….मैया पकड़ के लै जा रही है ।
अरे ! अरे यशोदा ! जे का कर रही हो तुम ? बूढ़ी बड़ी गोपियाँ समझायवे लगीं …लेकिन आज समझवे वारी नही हैं मैया यशोदा । हद्द कर दियौ है याके लाला ने तौ । कितनौं ऊधम मचायौ …..और तौ और मटकी हू फोड़ दई । तौ का भयौ …तेरे यहाँ मटकी की कमी है का ? बूढ़ी गोपियाँ समझाती जा रही हैं ….लेकिन । अरे ! ‘ददिया सास’ की मटकी ही ….समझीं ? मैया यशोदा ने जोर दै कै और कही ।
आय गयी हैं अपने घर …..लेकिन पीछे पीछे अनेक गोपियाँ नन्द भवन में आय गयीं हीं ।
कन्हैया रोय रहे हैं …..आँखन कौ कज्जल कपोलन में फैल गयौ है ….अब तो सिसकियाँ भर रहे हैं कन्हैया ।
मैया ! छोड़ दै कन्हैया कूँ । गोपियाँ समझा रही हैं ।
चौं छोड़ दऊँ ? रोष ते भर गयीं हैं मैया ।
चौं , कल तक तौ तुम मेरे यहाँ आयके कहतीं ….मैया ! तेरौ लाला माखन चुरावे । तेरौ लाला मटकी फोड़े ….पीटो याकूँ । चौं तुम ही तौ कहती ना ! तौ आज मैं याकूँ पीट रही हूँ ….मैया हूँ याकी …भलौ बुरौ सब समझूँ …..तुम कौन हो मोकूँ समझायवे वारी !
मैया यशोदा आज अपने लाला कूँ क्षमा दै वै के पक्ष में बिल्कुल नही है …..गोपियन कूँ भी दो टूक जबाब दै रही हैं ।
“तेरौ कठिन हियो री माई ।
तनिक दधि के कारन जसुमति, इतौ कहा रिसाई “।।
गोपियाँ समझाय रही हैं …अब तौ और भी गोपियाँ आगयी हैं ….और सब कह रही हैं …इतनौं कठोर हृदय हे जसुमति , तेरौ तौ नही हो …आज का है गयौ ? लेकिन अब मैया यशोदा काहूँ के बातन कौ उत्तर नही दै रही हैं ….वो तौ कन्हैया को ही ….लेकिन कन्हैया डरो भयौ है …और इतनौं डर रह्यो है ….कि काँप रह्यो है ।
दही फैलाय दियौ ? तौ का भयौ ….तेरे यहाँ यशोदा, का दही की कमी है ?
अच्छों ! तौ कल तक मेरे पास ऊलाहनौं लै कै कौन आती ? तुम ही तौ आतीं ? कि तेरे लाल ने मटकी फोड़ दई या माखन खाय लई ….तब ?
गोपियाँ चुप है गयीं …गोपियाँ समझ गयीं हैं कि आज मैया अपने लाला कूँ छोड़वे वारी नही हैं ।
तभी ….उधर ते दाऊ भैया आये …दाऊ कूँ देखते ही कन्हैया और रोए और रोते भए बोले …भैया ! आ ! दाऊ भैया ! अब जैसे ही दाऊ ने देख्यो अपने अनुज कूँ रोते भए …तौ कन्हैया के पास में आए दाऊ ……फिर मैया की ओर देखते भए बोले …मैया ! छोड़ दै लाला कूँ । मैया ने दाऊ की ओर देख्यो भी नही ….दाऊ फिर बोले …मैया ! छोड़ दे ….दाऊ ने मैया के पाँव पकड़ लिए बोले …..मैया ! देख तौ सही ……कितनौं कोमल है जे लाला …..छोड़ दै । लेकिन मैया भुनभुना रही हैं …रोष अत्यधिक है मैया में …..
देख दाऊ ! तू ज़्यादा रिस मत उठा मोकूँ ……जा तू यहाँ ते । मैया ने स्पष्ट कह दियौ ।
दाऊ भैया हूँ डर गये मैया यशोदा ते …..और शान्त हे गए ।
तब एक प्रौढ़ा अहीर घरनी आगे आयी ..और बड़े ही शान्त भाव ते यशोदा ते कहवे लगीं ……
“हरि कौ ललित वदन निहारू”
अरी यशोदा ! तनिक देख तौ ….कितनौं कोमल अंग है तेरे हरि कौ ….फिर काहे कूँ लकुट दिखाय रही है ? का लकुट तै पीटनौं चाह रही है ? मत सोच ऐसौ …..पाँच वर्ष कौ तेरौ लाला है …अगर बाने मटकी आदि फोड़ भी दिए ….माखन दही फैलाय भी दियौ तौ का भयौ ?
लेकिन मैया यशोदा नही सुन रही या गोपी की बात ….मैया आज काहू की नही सुन रहीं ।
मैया ! लाला कूँ छोड़ दै ….जे दाऊ भैया कूँ एकाएक का भयौ ?
मैया कूँ अब दाऊ पे रिस उठ्यो ….और बोलीं …..नही छोड़ रही …का करेगौ ?
दाऊ बोले ….मैं शेषावतार हूँ ……आवेश आय गो दाऊ भैया कूँ ……लेकिन दाऊ भी …..आवेश कौ स्थान है का जे ? अरे ! जे मैया है ….शेष अशेष सबकी मैया है जे …….
अब जैसे ही दाऊ भैया ने कही ….मैं शेषावतार हूँ …..मैया ने साँटी लई और दाऊ के पीछे …..अभी बताऊँ तोकूँ , दाऊ के ! तो कूँ शेष ही बनाऊँगी । दाऊ भैया तौ भागे …..ब्रह्म कूँ ढीलौ करवे वारी हैं मैया यशोदा …..फिर ‘शेष’ कहा है या के आगे । दाऊ भैया भाग गए हैं ……
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (154)
सुंदर कथा १०० (श्री भक्तमाल – श्री नरवाहन जी ) {भाग -02}
बाबा श्री गणेशदास भक्तमाली जी की भक्तमाल टीका , परमभागवत श्री हितदास जी महाराज एवं श्री हित अम्बरीष जी के भाव पर आधारित चरित्र –
…………… इधर से भी बन्दूके चलने लगी और उसके सशस्त्र बज़रे डुबा दिये गये ।उसके नीच व्यवहार के कारण नरवाहन जी के सैनिकों ने नावों का माल लूटना पड़ा और व्यापारी को बन्दी बना लिया । इस युद्ध मे दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गये और यमुना जी का जल रक्त-रंजित हो गया ।
इनके सैनिकों ने बन्दी व्यापारी एवं उसके तीन लाख मुद्रा के सामान को ले जाकर नरवाहन जी के सामने प्रस्तुत किया । युद्ध का वृत्तान्त सुनकर नरवाहन का मन खिन्न हो उठा और उनको उस व्यापारीपर क्रोध आ गया । ब्रजवासियों की हत्या करने और यमुना जी को रक्त रंजित करने के कारण इन्होंने आज्ञा दी कि उसको हथकडी – बेडी में जकडकर कारागार (जेल) मे डाल दिया जाय और जबतक वह इतना ही धन घर से मंगाकर दंड की भरपाई न कर दे तबतक उसको छोडा न जाय । आब व्यापारी के पास जितना धन था वह सब लूट चुका था, उसके पास दंड की भरपाई करने के लिए धन बचा नही था । नरवाहन जी की एक दासी उस समय वही उपस्थित थी । व्यापारी तरुण और सुन्दर था ।
उस तरुण व्यापारी को देखकर दासी के मन मे करुणा आ गयी । वह उसकी मुक्ति का उपाय सोचने लगी । व्यापारी को कारागार मे बन्द हुए कई महीने हो गये, किंन्तु वह अपने घरसे धन न मँगा सका । नरवाहनजी के कर्मचारियों ने कुछ ही दिनों मे उसे फाँसीपर लटकाने की योजना बना रखी थी और नरवाहन जी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे । दासी को जब इसकी सूचना मिली तो वह घबडा उठी । वह सोचने लगी कि इससे जो भूल होनी थी सो हो गयी, यदि इसकी मृत्यु हो गयी तो इसके परिवार वालो का क्या होगा? अभी तो यह जवान है और इसको जीवन का बहुत सारा भाग देखना बाकी है । एक दिन अर्द्धरात्रि के समय कारागार के द्वारपर जाकर उसने सोते हुए व्यापारी को जगाया । दासी ने उससे कहा कि तुमको शीघ्र ही फाँसीपर लटकाये जाने की बात चल रही है । व्यापारी घबड़ाकर दासी से अपनी जीबन-रक्षा का उपाय बताने की प्रार्थना करने लगा । दासी ने कहा – तुम्हारे बचने का एक मंत्र मै तुझको बताती हूँ ।उसने व्यापारी के गले मे तुलसी कंठी बांध दी औरे राधावल्लभी तिलक उसके मस्तक पर लागा दिया ।
दासी ने कहा कि “श्री राधावल्लभ -श्री हरिवंश, राधावल्लभ -श्री हरिवंश ” इस नाम की प्रात:काल ब्राह्म वेला मे धुन लगा देना । इस नाम को सुनकर नरवाहन जी स्वयं दौडे हुए तेरे पास आ जायेंगे । जब कुछ पूछेंगे तब तुम उनसे यह कहना मै श्री हरिवंश जी का शिष्य हूँ तब वे अपने हाथसे तेरी हथकडी खोल देंगे और तुझे तेरा सम्पूर्ण धन वापस देकर तुझे आदरपूर्वक विदा कर देंगे । दासी के जाने के कुछ देर बाद ही व्यापारी ने पूरी शक्ति से श्री राधा वल्लभ श्री हरिवंश नाम की धुन लगा दी । नरवाहन जी उस समय नित्य दैनिक कर्म कर रहे थे । वे श्रीहरिवंश नाम सुनते ही दौडे हुए कारागार मे आये और देखा कि व्यापारी दीन हीन अवस्था मे पड़ा है और रो रो कर” राधावल्लभ श्री हरिवंश” जप रहा है । व्यापारी से पूछा कि तुम कौन हो ?ये तुम किसका नाम लेते हो? उसने दासी के कहे अनुसार कह दिया कि मै श्री हरिवंश महाप्रभु का शिष्य हूं, कुछ दिन मे मृत्यु को प्राप्त होने वाला हूं । सोचा कि मरने से पहले अपने इष्टदेव और गुरुदेव का स्मरण कर लूं । यह सुनकर कि वह श्री हरिवंशजी का शिष्य है, नरवाहन कांप गए और उससे क्षमा माँगने लगे ।
प्रात: होते ही इन्होंने व्यापारी को स्नान कराकर उसको नवीन वस्त्र पहनाया तथा उसका पूरा धन वापस दे दिया । चलते समय इन्होंने व्यापारी को दण्डवत्-प्रणाम करके उसकी रक्षाके लिये अपने सेवक उसके साथ कर दिये । उस दासी से व्यापारी ने पूछा – आपने मुझे किसका नाम दिया था? केवल छल और लोभ से मैने जिनका नाम लिया , जिनका नाम लेने से मृत्यु टल गई – वे कौन है ? क्या उनके दर्शन हो सकते है ? दासी ने कहा की श्री हरिवंश महाप्रभु मदन टेर पर विराजते है। उसने जाकर श्री हरिवंश जी महाराज के दर्शन किये और अपना सारा द्रव्य उनके चरणों मे समर्पित कर दिया । उसने अत्यन्त दीनता पूर्वक महाप्रभुजी से प्रार्थना की कि आपका मंगलमय नाम कपटपूर्वक लेने से ही मेरी प्राण-रक्षा हो गयी । अब आप मुझे दीक्षा देकर मेरे इस नये जन्म को कृतार्थ कर दीजिये । महाप्रभुजी ने उसका आग्रह देखकर उसको दीक्षा तो दे दी, किंतु उसका धन स्वीकार नही किया तथा व्यापारी को श्रीहरि हरिजन की सेवा करने का आदेश देकर विदा कर दिया ।
नरवाहन जी का नियम था कि महाप्रभु जी का दर्शन करके ही अन्न जल ग्रहण करते थे । उस व्यापारी के जाने के ३ दिन बाद भी नरवाहन, महाप्रभुजी के दर्शन करने नही आये । नरवाहन बड़ी ग्लानि में था कि किस मुख से गुरुदेव के सन्मुख जाऊं? मैने गुरु चरणो की साक्षी मे प्रण लिया था कि कभी जीव हिंसा नही करूँगा । यदि मै अपने गुरु भ्राता को प्राण दंड दे दिया होता तो कैसा अनर्थ हो जाता ? निर्जल निराहार पश्चाताप करते हुए नरवाहन महल मे पडे थे । तीसरे सिन महाप्रभु जी ने नरवाहन को सामने उपस्थित होने की आज्ञा दी । नरवाहन कांपते हुए दृष्टि नीचे करके महाप्रभु जी के सामने उपस्थित हुआ । जैसे ही नरवाहन ने दंडवत करने झुके, आज महाप्रभु जी ने नरवाहन को झुकने नही दिया और उन्हे अपने हृदय से लगा लिया ।महाप्रभु जी ने कहा – नरवाहन ! तुमने बिना सत्य जाने इतना बड़ा निर्णय ले लिया । केवल उस व्यापारी के मुख से मेरा नाम सुनते ही उसको छोड दिया । तुम्हारे जैसी गुरुभक्ति किसमे होगी ? नरवाहन जी की अद्भुत गुरुनिष्ठा से प्रसन्न होकर श्री हिताचार्य ने अपनी वाणी मे उनके नामकी छाप दे दी । ये दोनों पद हित चौरासी मे संकलित है ।


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