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August 2, 2025 2:42 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 121 (1), “श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’की आत्मकथा – 54” तथा श्री भक्तमाल (155) : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏

🌺भाग>>>>>>> 1️⃣2️⃣1️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

वन्दे विदेहतनयापदपुण्डरीकं,
यः सौरवृषमाहितयोगचित्तम् ।
हन्तुं त्रितापमनिशं मुनिहंससेव्यं,
सन्मानशीलपरिपीतपरागपुञ्जम् ॥

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मै वैदेही !

ओह ! मेरे सामनें उस दिन हृदय विदारक दृश्य दिखाया दशानन नें ।

मैं रो नही सकी …….मेरे आँसू सूख गए थे…….मैं बस देखती रही ।

मैं आर्त होकर चीखना चाहती थी ……पर नही मैं भाव शून्य रही ।

उस दिन मेरे प्राण निकल जाते ………अगर दशानन के जानें के बाद त्रिजटा की माँ “सरमा” न आती तो ।

त्रिजटा उस दिन शाम को आई थी…………मुझे कहकर गयी थी……रामप्रिया ! मैं रजत पर्वत पर जा रही हूँ …….वहाँ से मुझे श्रीराम के दर्शन हो जायेंगें ……….वो वहीं गयी थी ……..

पर यहाँ अशोक वाटिका में आज रावण आगया था ………..।

हे जनकदुलारी ! हमनें तुमको समझाया था ……पर तुम मानीं नही ।

मैनें उससे कोई प्रश्नोत्तर नही किया ।

वो बोलता गया ……………..मैनें उसकी बात जब सुनी तो अपनें दोनों कान बन्द कर लिए थे ………….और मैं आर्त होकर इधर उधर देखनें लगी थी …………।

जिस राम का तुम्हे भरोसा था देखो ! उस राम को मैने मार दिया ।

ओह ! ये क्या बोल रहा है …………..

हाँ मैने राम को मार दिया…….और साथ में लक्ष्मण को भी मार दिया ………सुग्रीव युद्ध छोड़कर भाग गया है ………

रावण मेरे नजदीक आया ……..और बोला – उस हनुमान के तो अंग भंग कर दिए हैं मेरे राक्षसों नें ।

नही …….तू झूठ बोल रहा है रावण ! मेरे श्रीराम को तू क्या मारेगा ?

और बड़े बड़े ज्योतिषियों नें कहा है मेरे जीवन में वैधव्य योग नही है ।

त्रिकालदर्शी ऋषियों नें भी यही बात दोहराई है …………..रावण ! तेरे जैसे हजारों रावणों को मारनें की सामर्थ्य रखते हैं मेरे श्रीराम ।

मेरे अंग काँप रहे थे ……..बोलते हुये मेरे होंठ सूख गए थे ……….।

रावण हँसा ……….उसनें ताली बजाई………..उसी समय एक राक्षस उसके पास आया …………एक थाली लेकर …..वह थाली एक रेशमी वस्त्र से ढँकी हुयी थी…….मेरे सामनें ला कर रख दिया ।

मैं काँप रही थी ………………..।

रावण नें तलवार ली …….और अपनें तलवार के नोंक से उस ढंके हुए वस्त्र को हटाया ……………..

न हीं ! …………….मै चिल्ला उठी ।

क्रमशः ……
शेष चरित्र कल ……..!!!!!!

🌷🌷🌷जय श्री राम 🌷🌷🌷

] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-54”

( दामोदर लीला – भाग 9 )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल ………

अब यहाँ अपनौं कन्हैया प्रेम की महिमा दिखायवै वारौ है ….बन्धन सुन्दर नही होय है …लेकिन प्रेम कौ बन्धन ? आहा ! या बन्धन के आगे तौ मुक्ति हूँ तुच्छ है । अब या संसार में बन्धन की रस्सियाँ तौ अनेक हैं …लेकिन प्रेम के रस्सी की बात अलग ही है । अब तुम कहोगे ….कैसे ? तौ कल ऋषि दुर्वासा मिले ….मैंने देख के प्रणाम कियौ तौ मोते हँसते भए बोले ….”ब्रह्म हूँ प्रेम के अधीन है “। जे कहके जोर जोर ते हँसवे लगे । मैं उनकूँ देखतौ रह्यो …फिर मोते बोले ……मधुमंगल ! भँवरा होवे ना ….वो सूखी लकड़ी कूँ हूँ छेद के घर बनाय लै …लेकिन वही भँवरा जब कमल पुष्प में बन्द है जाये …तौ बाकूँ छेद नही पावे है ……..चौं ? तौ ऋषि मोते बोले ….चौं कि मधुमंगल ! प्रेम है भँवरा कूँ कमल ते या लिए कमल में छेद नही सके है भँवरा ।

फिर ऋषि मोते बोले हे ….स्नेह वात्सल्य की तौ सागर हैं मैया यशोदा ….तभी तौ ब्रह्म मैया के आगे नाचे ….बंध जावै । प्रेम कौ बन्धन परमात्मा कूँ हूँ प्रिय लगे हैं । ऋषि दुर्वासा बोले हे ।


दाऊ भैया कूँ भगाय के , अब मैया यशोदा अपने लाला कूँ देखवे लगीं …लाला डर रह्यो है …काँप रह्यो है …..तभी मैया कौ ध्यान गयौ अपने हाथ की छड़ी पर …लाला छड़ी कूँ हीं देख के डर रह्यो हो ….तौ मैया ने तुरन्त छड़ी फेंक दई । सोचवे लगीं मैया …कहाँ करूँ ? उपद्रव तौ बहुत कियौ है याने ….अब कहाँ करें ।

तभी मैया कूँ ध्यान आयौ ….भोजन हूँ बनानौं है …लाला के काजे माखन हूँ तौ निकालनौं है !

फिर लाला की ओर मैया देखवे लगीं ….लाला रोय रो है ….अभी भी भयभीत है ….मैया ने विचार कियौ कि …रस्सी ते बाँध दऊँ ….हाँ , हल्के हाथन सौं बाँध दूँगी तौ कही जाएगौ हूँ नाँय …और मैं माखन हूँ निकाल लुंगी । जे सोचके मैया यशोदा एक बड़ी सी रस्सी लै कै आयीं । रस्सी कूँ देखते ही कन्हैया तौ और रोयवे लगे …अपने पाँव पटकवे लगे । गोपियन ते अब रह्यो नही गयौ …तौ फिर दुबारा गोपियाँ बोलवे लगीं …….अरी मैया !

“कहा भयौ जौ घर के लरिका, चोरी माखन खायौ ।
अहो यशोदा! कत त्रासति हौं, यह तेरे कोख कौ जायौ “।।

मत कर यशोदा ! मत कर ! यह तेरे ही कोख ते तौ जनम्यो है …यह तेरौ ही तौ सपूत है । फिर काहे कूँ अपने लाल कूँ डराय रही है ….छोड़ दे लाला कूँ ।

जब गोपियाँ अधिक कहवे लगीं ….तब मैया ने रोष में भरके कह्यो …अरी गोपवधू ! अगर तुम्हें कछु करनौं ही है तौ मेरी सहायता करौ ….मैं लाला कूँ नही पीट रही …बस इतनौं है कि अभी तै अगर याकूँ मेरौ डर नही होयगौ और नित उपद्रव मचातौ रहेगौ ….तौ लोग तौ मेरौ ही नाम लिंगे ना …कि मैया यशोदा ने अपने सपूत कूँ बिगाड़ रख्यो है ….जा लिए अधिक मत सोचो ….मैं रस्सी ते याकूँ बाँधूँगी । तुम लोग बस शान्त रहो …..मैं याकी मैया हूँ …कोई बैरी नही । मैया ने हूँ तेज आवाज में कह दियौ ….गोपियाँ चुप है गयीं ।

अब मैया ने रेशम की रस्सी लई …..और रस्सी लै कै लाला के कमर में बाँधवे लगीं । लेकिन जे का ? रस्सी तौ दो अंगुल कम पड़ गयी । मैया ने अब इधर उधर देख्यो ….फिर उठके गयीं दूर …..वहाँ ते एक बड़ी सी रस्सी और लाईं …..फिर बा रस्सी ते कन्हैया कूँ बाँधवे लगीं तौ वो रस्सी हूँ दो अंगुल कम ही पड़ गयी । मैया अब का करे ! गोपी कह रहीं ….मत बाँध । मैया ने सबनकूँ हाथ जोड्यो ….और बोलीं …..मेरी कर सको तौ सहायता करौ …..नही तौ बोलो मत ।

एक वृद्धा गोपी ने अन्य गोपिन कूँ समझायौ …..वो मैया है अपने लाला की ….बाकौ अधिकार है अपने पुत्र कूँ कैसे सम्भालनौं है वो जानें हैं ….या लिए अब कछु मत बोलो ।

अब सब गोपियाँ चुप है गयीं हैं ……वही वृद्धा गोपी मैया यशोदा ते बोलीं …यशोदा ! बोलो …हमारी तुम्हें का सहायता चहिए ?

मैया बोलीं …जाओ …बड़ी से बड़ी रस्सी लै कै आओ ।

अब तौ गोपियाँ रस्सी लायवे लगीं …….मैया यशोदा अपने लाल के पेट में रस्सी बांधती हैं …..नही नही …बाँधना चाहती हैं ….लेकिन रस्सी फिर दो अंगुल ही कम पड़ रही है ।

और और बड़ी रस्सी लाईं ….लेकिन रस्सी तौ दो अंगुल ही कम पड़ रही है ।

का बताऊँ …..पूरे गोकुल गाँव की रस्सियाँ समाप्त है गयीं …..बड़ी बड़ी रस्सिन कूँ जोड़ जोड़ के एक बहुत बड़ी रस्सी बनाई गयी, गोपियाँ बा रस्सी कूँ लै कै आयीं ….यशोदा मैया ने बा रस्सी ते हूँ बाँधवे कौ प्रयास कियौ ….लेकिन …लेकिन रस्सी फिर दो अंगुल ही कम पड़ गयी ।

अरे कछु नाँय…..अपनौं कन्हैया प्रेम की महिमा दिखाय रो है ।

क्रमशः….
Hari sharan

] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (155)


सुंदर कथा १०१ (श्री भक्तमाल – श्री महर्षि वशिष्ठ जी ) {भाग 01}

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ विश्वस्त्रष्टा ब्रह्माजी के मानसपुत्र है । सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्मा के प्राणो से उत्पन्न उन प्रारम्भिक दस मानसपुत्रो मे से वे एक हैं, जिनमें से देवर्षि नारदके अतिरिक्त शेष नौ प्रजापति हुए ।

१. मरीचि, २. अत्रि, ३. अंगिरा ४. पुलस्त्य ५. पुलह ६. क्रतु ७. भृगु ८. वसिष्ठ ९. दक्ष और १०. नारद – ये ब्रह्मा के दस मानसपुत्र है ।

इनसे पहले- ब्रह्माजी के मनसे – संकल्प से कुमारचतुष्टय १. सनक २. सनन्दन ३. सनातन और ४. सनत्कुमार उत्पन्न हुए थे परंतु इन चारोने प्रजा सृष्टि अस्वीकार कर दी । सदा पांच वर्षकी अवस्थावाले बालक ही रहते हैं । इन चारोकी अस्वीकृति के कारण ब्रह्मा जी को क्रोध आया तो उनके भ्रूमध्य से भगवान् नीललोहित रूद्र (शिव ) उत्पन्न हुए । इस प्रकार सनकादि कुमार तथा शिव वसिष्ठजी के अग्रज हैं ।

भगवान् ब्रह्माने अपने नौ पुत्रो को प्रजापति नियुक्त किया । इन लोगो को प्रजाकी सृष्टि, संवर्घन तथा संरक्षण का दायित्व प्राप्त हुआ । केवल नारदजी नैष्ठिक ब्रह्मचारी बने रहे । इन नौ प्रजापतियो में से प्रथम मरीचि के पुत्र हुए कर्दम जी । कर्दम ने स्वायम्भुव मनु की पुत्री देवहूतिका पाणिग्रहण किया । कर्दम जी की नौ पुत्रियां हुई और पुत्रके रूपमें भगवान् कपिल ने उनके यहां अवतार ग्रहण किया । कर्दम ने अपनी पुत्रियो का विवाह ब्रह्माजी के मानसपुत्र प्रजापतियो से किया । वसिष्ठजी की पत्नी अरुँधती जी महर्षि कर्दम की कन्या हैं ।

भगवान् ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रथम काल में ही वसिष्ठ जी को आदेश दिया -वत्स ! तुम सूर्यवंशका पौरोहित्य सम्हालो । जैसे विश्व व्यवस्थापूर्वक चलता है, वैसे ही समाज भी व्यवस्थापूर्वक ही चलता है । यदि समाज को सुदृढ रखना है तो उसकी व्यवस्था सुदृढ रहनी चाहिये । यह व्यवस्था तभी सुदृढ रहेगी, जब वह समाज के सदस्यों की शक्ति एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर बनी हो । वैदिक धर्मानुयायी मनुष्य जीवन मे धर्म को प्रधान मानता है, किंतु अर्थोंपार्जन और परिवार के रक्षण – पोषण में लगा गृहस्थ धार्मिक दायित्वों को स्मरण रखे और प्रमादहीन होकर उनका ठीक समयपर निर्वाह करता रहे, यह सम्भव नही है । न यही सम्भव है कि प्रत्येक व्यक्ति वेद एवं कर्म काण्डका भी निष्णात बने और दूसरी विद्याओ का भी । इसलिये समाज को पुरोहितो की आवश्यकता होती है ।

पुरोहित का अर्थ है कि वह अपने यजमान का हित पहले से सोच लेता है । उसके अनुसार समयपर यजमान को सावधान करके उससे धार्मिक दायित्व सम्यन्न कराता है । वेद शास्त्र एवं वैदिक कर्मो का वह विद्वान होना चाहिये वसिष्ठ जी को ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई । उन्होने ब्रह्मा जी से कहा – पौरोहित्य कर्म शास्त्र निन्दित है क्योकि इसमें लगे ब्राह्मण को पराश्रित रहना पडता है । वह आत्मचिंतन के स्थानपर यजमान और यजमान के हित चिंतन में लगे रहने को बाध्य होता है । उसकी आजीविका यजमानपर निर्भर है, अत: यज़मान की प्रसन्नत्ता का उसे ध्यान रखना पडता है । यजमान में यदि कृपणता, अश्रद्धा आ जाय तो पुरोहित में चाटुकारी, लोभ, छल आदि दोष आये बिना नहीं रह सकते ।

ब्राह्मण को सन्तुष्ट, तपस्वी होना चाहिये । तब वह पराये का भार लेका परमुुखापेक्षी क्यो बने ? ब्रह्माजी ने समझाया – तपस्या से ,एकान्त चिन्तनध्यान से जिसको पाने की कामना की जाती है, वे परात्पर पुरूष इस सूर्यवंश मे श्रीराम रूप में आगे उत्पन्न होनेवाले हैं । तुम्हें उनका सानिध्य, उनका आचार्यंत्व प्राप्त होगा सूर्यवंश का पौरोहित्य स्वीकार करनेसे । वसिष्ठ जी ने यह सुना तो सहर्ष अपने पिता ब्रह्मा जी का आदेश स्वीकार कर लिया । वे सूर्यवंश के पौरोहित बन गये, लेकिन सूर्यवंश का पौरोहित्य वैवस्वत मन्वन्तर में आकर सीमित हो गया ।

भगवान् सूर्य के पुत्र श्राद्धदेव- मनु के दस पुत्र थे । इन सबके पुरोहित वसिष्ठजी ही थे । एक बार उनमें से मनु पुत्र निमिने जो भारत के पूर्वोत्तर प्रदेश के अधिपति थे, जिसका नाम पीछे मिथिला पडा, वसिष्ठजीसे प्रार्थना की- मेरी इच्छा एक महायज्ञ करने की है । आप उसे सम्पन्न करा दें । वसिष्ठ ने कहा – वत्स तुम्हारा संकल्प पवित्र है, किन्तु देवराज इन्द्र एक यज्ञ करने जा रहे है । उसमें मेरा वरण हो चुका है । मैं अमरावती (स्वर्ग की राजधानी )जा रहा हूँ। इन्द्रका यज्ञ समाप्त होनेपर लौटकर तुम्हारा यज्ञ करा दूंगा ।

निमिने कुछ कहा नहीं । महर्षि वसिष्ठ स्वर्ग चले गये इन्द्र का यज्ञ कराने । स्वाभाविक था कि उनको लौटने में अनेक वर्ष लगते, क्योकि देबताओंका एक दिन रात मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है । गुरुदेव के शीघ्र लौटने की आशा नहीं थी । निमिके मनमे आया -जीवनका कोई ठिकाना नहीं है । मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है अत: विचावान को शुभ संकल्प अविलम्ब पूरा करना चाहिये । अच्छे संकल्प को दूसरे समयपर करनेके लिये नहीं छोडना चाहिये।

महर्षि वसिष्ठ को आनेमें विलम्ब होता देखकर निमिने दूसरे विद्वान् ब्राह्मण को पुरोहित बनाया। ये पृरोहित थे महर्षि जमदग्नि, भगवान् परशुराम के पिता । निमिने उनके आचार्यत्व में यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । महर्षि वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ पूर्ण होनेपर लौटे तो महाराज निमिका यज्ञ चल रहा था । यह देखकर उन्हे लगा कि निमिने मेरी अवज्ञा की है । उन्होने शाप दे दिया – अपने को पण्डित मानकर मेरा तिरस्कार करनेवाले निमि का शरीर नष्ट हो जाय । निमिने भी शाप दिया – लोभवश धर्म को विस्मृत कर देनेवाले आपका भी देहपात हो जाय ।

भूल दोनों ओर से हुई थी और वह शाप के रूप में बढ़ गयी । महाराज निमि को प्रारम्भ में कह देना चाहिए था कि वे लम्बे समयतक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते । महर्षि वसिष्ठने भी यह तथ्य ध्यान देनेयोग्य नही माना कि अपना आचार्य या पुरोहित किसी कारण अनुपलब्ध हो तो यजमान कर्म विशेषके लिये दूसरे ब्राह्मण को आचार्य वरण का सकता है । यह दूसरा ब्राह्मण केवल उस कर्मके पूर्ण होनेतक आचार्य रहता है ।

निमिका शरीरान्त हो गया । इसके बाद उनके शरीर का ऋषियोद्वारा मन्थन करनेसे एक बालक की उत्पत्ति हुई, जो ‘मिथि ‘ और ‘विदेह’ कहलाया । महर्षि वसिष्ठ ने आसन लगाया और योगधारणा के द्वारा अपने शरीर को भस्म कर दिया । थोड़े समय पश्चात् भगवान ब्रह्माके यज्ञमें उर्वशी को देखकर मित्र ( सूर्यं ) और वरुण का रेत: स्खलन हो गया । उन दोनो लोकपालो का सम्मिलित वीर्य यज्ञीय कलशपर पडा । उसका जो भाग कलशपर पडा था, उससे कुम्भज अगस्त्य उत्पन हुए और जो भाग नीचे गिरा, उससे वसिष्ठजी ने पुन: शरीर प्राप्त किया । इसलिये वसिष्ठजी को मैत्रावरुणि भी कहते हैं ।

दूसरा शरीर प्राप्त करके वसिष्ठजी ने पूरे सूर्यवंश का पौरोहित्य पद त्याग दिया । वे केवल इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित बने रहे । अयोध्या के समीप ही उन्होने अपना आश्रम बना लिया । दूसरी मुख्य बात यह हुई कि नवीन देह की प्राप्ति के साथ महर्षि वसिष्ठ परम शान्त हो गये । किसी को भी क्रोध करके शाप नहीं देना चाहिये, यह उन्होऩे अपना व्रत बना लिया । महर्षि वसिष्ठ ब्रह्मा जी केे मानसपुत्र होने से- मित्र एवं वरुण के वंशोद्भव होने से भी दिव्य देह हैं । वसिष्ठ कल्पांतजीवी जी अमर हैं । इस मन्वन्तर में सप्तर्षियों में उनका स्थान है ।

महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी भगवान् परशुराम के पिता जमदग्नि के मामा लगते है । महाराज गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह भृगुवंशीय महर्षि ऋचीक से हुआ था । सत्यवती विश्वामित्र जी को बहन थी ।

शेष कल की कड़ी (156) में जारी

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