तथा श्री भक्तमाल (167) : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣2️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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प्रथमो अनन्तरूपश्च द्वितीयो लक्ष्मणस्तथा ।
तृतीयो बलरामश्च कलौ रामानुजो मुनिः ॥
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
रामप्रिया ! अपनें पिता रावण की दशा देखकर मेघनाद क्रोधित हो उठा है ।
पहले तो उसनें अपनें पिता रावण के पैर छूए……फिर रावण को सम्भाला और बोला ……पिता जी ! आप चिन्ता न करें ……मैं निकुम्भिला देवी की आराधना करनें जा रहा हूँ……शक्ति प्राप्त कर मैं वहीं से समर भूमि के लिए प्रस्थान करूँगा…….पिता जी ! आप अब देखिए आपका ये पुत्र मेघनाद समस्त वानरों सहित राम लक्ष्मण को भी मृत्यु का ग्रास बनाकर ही आएगा ।
रामप्रिया ! इतना कहकर मेघनाद चला गया है ………….
ये रावण का पुत्र है ………पर बड़ा बलशाली है …………इन्द्र को इसी नें जीता था ………बन्दी बना लिया था देवराज को इसनें ….तभी से इसका नाम इन्द्रजीत भी पड़ा ।
अब कहाँ गया है ये मेघनाद ? मैनें त्रिजटा से पूछा ।
भगवती निकुम्भीला के मन्दिर में …..ये मेघनाद की अपनी देवी हैं ।
वैसे तामसिक उपासना है हम राक्षसों की ………….पर ये उपासना भी विधि से की जाए …………तो फल तुरन्त मिलता है ।
त्रिजटा नें इतना कहा …..और कुछ देर में बोली …….रामप्रिया !
दिव्य रथ प्रकट हुआ है यज्ञकुण्ड से ………..इस रथ में बैठनें वाला अदृश्य रहता है ………सामनें वाले को दिखाई नही देता ।
मैं त्रिजटा की बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी ।
रथ में बैठ गया मेघनाद ……..और अदृश्य होकर चल पड़ा है युद्ध भूमि की ओर ।
शेष चरित्र कल ………………!!!!!!
🌹🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-66”
( श्रीवृन्दावन की ओर…)
कल से आगे का प्रसंग –
मैं मधुमंगल…..
कंस के अत्याचार ते दुखी बृजवासी ….सब गोकुल कूँ छोड़, श्रीवृन्दावन की ओर जा रहे हे ….रात्रि कौ समय हो ….रात्रि बीत रही ही , बा समय बृजवासी के आगे आगे गौअन की सुन्दर पंक्ति ही ….उनके पीछे शकट ……शकट में बृजजन सब बैठे हे ….अपने अपने शकटन कूँ सबने सजाय के राखो हो ……गीत गाती गोपियाँ कितनी प्रसन्न हीं ….
लेकिन …….
मथुरा पार करते दुष्ट चाणूर ने हमें देख लियौ हो…..ओह ! बाने हमारे ऊपर आक्रमण करवाय दियौ….अपने असुरन ते ।
दुष्ट कंस के वे असुर अश्व में सवार , नग्न तलवार लै कै …”मारौ काटौ”….चिल्ला रहे हे । गोपियन में पुकार सी मच गयी ही…..ग्वाले लाठियन ते सामना तौ कर रहे …लेकिन कहाँ असुर और अश्व में सवार, और कहाँ जे ग्वाले और शकट में , लाठी लै कै ।
नही नही वैसे अहीर जात वीर जात है ….वीर है जे लोग …मेरे देखते देखते दो ग्वालन ने चार असुरन की खोपड़ी फोड़ दई ही ।
याही ते असुर और आक्रामक है गये हे ………
इधर कन्हैया …..”मैया मैं देखूँगौ”…….अपने आँचल ते छुपाय राखो है लाला कूँ मैया यशोदा ……भगवान नारायण ते प्रार्थना कर रही हैं ……लेकिन ……कन्हैया कूँ कोई रोक पायौ है …..तभी कन्हैया मैया के आँचल ते बाहर आय गये ….और देखवे लगे ……..लाला ! मैया चिल्लाईं ……कन्हैया ने तबहीं ताली बजायौ …….और देखते ही देखते …….पास के अरण्य ते हज़ारन शियार , ख़ूँख़ार शियार ….टूट पड़े हे उन असुरन के ऊपर …..जे एकाएक का भयौ ! थोड़े समय में ही चीर फाड़ के शियारन ने असुरन कूँ फेंक दियौ हो….और जहाँ ते आए वे सब शियार वाही जंगल में चले गए हे ।
कन्हैया ने फिर ताली बजायौ ….कन्हैया के हम सब सखा अब ताली बजा रहे हे खुशी के मारे ।
बृजराज बाबा और बड़े बाबा उपनंद जी ने अब राहत की साँस लई ।
कहाँ ते आय गए देवदूत, बनके शियार ? बृजराज बड़े बाबा ते पूछ रहे ….बड़े बाबा उपनन्द जी कह रहे ….सब नारायण भगवान की कृपा है ….मोकूँ हँसी आयी …..अब कौन समझावै बड़े बाबा कूँ कि नारायण तौ तुम्हारौ कन्हैया ही है ।
अब तौ हम सब बालकन ने जयकारौ लगानौं शुरू कर दियौ ….”नन्द के लाला की जय”….हमारे जय बोलते ही कन्हैया खुश है जातौ …….लेकिन दाऊ भैया तौ शकट चालक के पास चले गए …..और शकट में जुते बैल कूँ “हीयो ..हीयो”….करके तेज भगायवे लगे ……कन्हैया ने देख लियौ …..तौ कन्हैया हूँ चालक के पास पहुँच गयौ ….और चालक कूँ वहाँ ते हटायवे लग्यो …..चालक ने शिकायत करी मैया ते ….तौ मैया बोली ….लाला ! ऐसे नही करें ….आजा …आजा ….कन्हैया बोलो …..दाऊ भी तौ कर रो है । दाऊ ! मैया ने तेज आवाज में दाऊ भैया कूँ बुलायौ …तौ दाऊ जब मैया के पास जायवे लगे …तौ कन्हैया ने जान ना दियौ ……और वहीं बैठाय लियौ । अब तौ बैल उछल रहे हैं ….कहूँ मुड़ रहे हैं ।
मैया यशोदा ने चालक ते कही ….शकट अच्छे ते चलाऔ । चालक बोल्यो ….बृजरानी जु ! मैं तौ शकट अच्छे ते चलाय रो हूँ लेकिन तुम्हारौ लाला अब बैल कूँ छेड़वे लग्यो है …या लिए शकट इधर उधर डोल रही है ।
मैया ने डाँटौ ….लाला ! काहे छेड़ रह्यो है बैलन कूँ ? मैया ने जब गम्भीर है कै डाँट लगाई …तब कन्हैया रोयवे लग्यो ….मोकूँ ही डाँटे, दाऊ भैया कूँ नहीं डाटें ! मैया ने अब दाऊ भैया कूँ हूँ डाँट लगाई ….दाऊ ! चौं ऊधम मचाय रह्यो है ! अब तौ कन्हैया दाऊ कूँ पड़ी डाँट ते खुश है गये ……तब दाऊ भैया बोले ….मैया ! तू मोकूँ डाँट रही है …..अपने लाला कूँ नाँय बोल रही …..तेरौ लाला ही मोकूँ कह रो ….दाऊ भैया ! तू या बैल कूँ छेड़ मैं या बैल कूँ छेड़ूँ । अब जब मैं याकी बात नही मानूँ तौ मेरी झूठी शिकायत तोते कर रह्यो है …..जे सुनकर कन्हैया दाऊ भैया की ओर रिसाय के देखन लग्यो हो । चौं कि लाला की शिकायत दाऊ ने जो कर दीनी ही ।
या प्रकार ते बृजवासी अब श्रीवृन्दावन की सीमा में पहुँच गये ………….
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (167)
श्रीमद्भागवत् महापुराण में वर्णित स्यमंतक मणि की कथा इस प्रकार है : (भाग-01)
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्याभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी।
राजा परीक्षित ने पूछाः भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?
श्रीशुकदेव जी ने कहाः परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ती से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो।
परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान चौसर खेल रहे थे।
लोगों ने कहाः शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- ‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया।
परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा- सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो। परन्तु वह इतना अर्थलोलुप- लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।
एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला।
उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा -बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था। सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे।
जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।
भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये।

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