[] Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग1️⃣4️⃣8️⃣ 🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 1`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे -*
मैं वैदेही !
भरत ! तुम ऐसे कैसे हो सकते हो ?
इतनी कठोरता ? ये तुम्हारी जननी हैं भाई !
मेरे श्रीराम भरत की ओर देखकर बोले जा रहे थे ।
तुमनें चौदह वर्षों में एक बार “माँ” नही कहा ?
हाँ नही कहा ……….नाथ ! नही कहा मैने कैकेई को माँ !
भरत भैया ! ऐसे बोलेंगें किसी नें सोचा भी नही था …………
मैने देखा बेचारी कैकेई माँ सुबुक रही थीं ।
इनका मेरे प्रति वात्सल्य का उमड़ना, मेरे लिये और मेरी अयोध्या के लिये शुभ नही है………ये बात तो सबको मान्य ही है ……..क्यों की सबके सामनें परिणाम है देखो ! कैकेई का वात्सल्य मेरे प्रति उमड़ा तो चौदह वर्ष के लिये अनाथ ही हो गयी थी ये अयोध्या ।
भरत सबके सामनें बोल रहे थे ।
नही कहा मैने इन्हें माँ……….क्यों की नाथ ! पहले कहता था – माँ ….माँ …माँ……..क्या हुआ ? इनका वात्सल्य उमड़ा और अयोध्या को अनाथ कर गया …………तब नाथ ! मैने सोचा अब मैं कभी इनको माँ नही कहूँगा ………क्यों की फिर इनका वात्सल्य उमड़ पड़ा तो ?
हे राम ! मैं क्षमा मांगती हूँ तुमसे …………….कैकेई का उन्माद फिर उठा …………वत्स राम ! तुम मुझे माँ कहते हो मेरे लिये इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ! और मैं भी अरे ! जिसे राम माँ कहे उसे कोई और कहे या न कहे क्या फ़र्क पड़ना चाहिये !
अब पुत्र राम ! इस माँ की ये इच्छा भी पूरी कर दो …………..कैकेई नें हाथ जोड़े ………….इस माँ कैकेई को क्षमा करते हुए तुम अयोध्या के सिंहासन में विराजमान हो जाओ ……………
भरत भैया नें जैसे ही ये सुना …………….इस बात से प्रसन्नता हुयी भरत भैया को ………….उनका मुख मण्डल खिल गया था ।
माँ ! राम सदैव आपका है …………आपका आदेश मैने कभी अस्वीकार नही किया …….फिर आज कैसे कर सकता हूँ ……….किन्तु राम ये बात नही मान सकता कि ……आपसे कोई गलती हुयी है …….अरे माँ ! आपनें तो राम को विश्व् में यशस्वी बनाया है ………….मेरे श्रीराम माँ कैकेई से ये सब कह रहे थे ।
मैनें देखा ………मेरे पिता जी श्रीविदेहराज जनक खड़े हैं ……….उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे थे………उनके वाम भाग में मेरी माँ सुनयना ………मेरा भाई लक्ष्मी निधि……..मैं उनके पास गयी ……..मेरे श्रीराम भी आये…….मुझे अपनें हृदय से लगाकर मेरी मैया बहुत रोईं ……..मेरे पिता श्रीजनक जी………वो तो मुझे अपलक देख रहे थे……मेरे सिर में हाथ फेरते हुये …….मेरे मस्तक को सूँघा था……….।
माँ ! ये हैं मेरे मित्र वानरराज सुग्रीव ! माताओं को अपनें मित्र वानरों का परिचय कराया ………और इन्हें तो आप जानती ही हैं ?
“मुझे तो माँ नें खूब मोदक भी खिलाये हैं”……हनुमान नें चपलता के साथ कहा ………..।
ये न होता तो पता नही मेरा पुत्र भरत आज जीवित भी होता कि नही !
हनुमान नें ही तो तेरे आनें की सुचना दी मेरे भरत को …….नही तो भरत यज्ञ कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करके बैठा था ।
*क्रमशः….*
*शेष चरित्र कल …….!!!!!*
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-120”`
*( कात्यायनी देवि की दुविधा )*
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कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
मधुमंगल ! का गोपिन कौ अनुष्ठान पूर्ण भयौ ? आज कन्हैया ने मोते पूछी ।
मैं तौ भूल ही गयौ हो कि बृजगोपिन ने एक अनुष्ठान हूँ आरम्भ कियौ हो …कन्हैया की प्राप्ति के तांईं । एक मास तौ पुरौ है गयौ होयगौ । अगहन पूर्ण है वै में आयौ है ।
एक बात है …..अपने लोगन कूँ कन्हैया भूल नही सके है । तौ आज पूछ लियौ ।
मैंने हूँ कही …..लाला ! मोकूँ पतौ नही है ….लेकिन कन्हैया ने मोकूँ आज एक काम दै दियौ कि ….जाओ और पतौ करके आओ कि गोपिन के सामने का देवि प्रकट भईं ?
मैंने सोची – अब कहाँ जाऊँ? और या समस्या कौ समाधान कहाँ होयगौ ? फिर मैं अपनी माता पौर्णमासी के ही पास में गयौ….क्यों कि देवि कात्यायनी की उपासना बतावै वारी मेरी माता ही हती ।
इधर उधर की बात के बाद मैंने ही पूछी …..माता ! का गोपिन कौ अनुष्ठान पूर्ण भयौ ? का देवि कात्यायनी प्रकट है गयीं ?
मेरी बात सुनके मेरी माता के माथे में चिन्ता की लकीर स्पष्ट दीखवे लगी …लेकिन मेरी माता सिद्ध योगिनी हैं ….चिन्ता कभी कियौ नही मेरी माता ने ……लेकिन ………
वत्स ! चार सौ वर्ष की आयु है गयी है ….कभी चिन्ता भई नही ….लेकिन या बृज में आय के पतौ नही क्यों …चिन्ता बहुत सतावै । मैंने पूछी – माता ! कौन की चिन्ता ? वत्स ! कन्हैया की चिन्ता ….मेरी माता के सजल नयन है गए हे । कन्हैया के सखा सखी की चिन्ता …कन्हैया के परिकरन की चिन्ता । लेकिन वत्स ! जे चिन्ता हूँ ऐसी लगे कि …..यही साधना है , यही योग है ..यही भजन है । अब हँस रही हैं मेरी माता पौर्णमासी ….कह रही हैं …कन्हैया ते सम्बन्धित जो होय वो सब साधना ही है । वत्स ! मैं ग्रहस्थन तै दूर रहूँ हूँ …..लेकिन यहाँ बृज में आयके तौ मैं महागृहस्थन बन गयीं हूँ …..मेरी माता कहती जा रही हैं ……वत्स ! ध्यान में हूँ बैठूँ …तौ ध्यान टूट जावै है…..लगे कि कन्हैया कूँ कछु नही होनौं चहिए ……बेचारी बृजरानी …बृजराज ….मोकूँ अब दिन रात इनकी ही चिन्ता लगी रहे ।
फिर मेरी ओर देखके माता जी बोलीं …..हाँ तौ वत्स ! तुम कहा पूछ रहे ?
माता ! का गोपिन कौ अनुष्ठान पूर्ण भयौ ?
क्यों कि माता ! आपने ही तौ मन्त्र दियौ हो गोपिन कूँ ।
लम्बी साँस लई माता जी ने ….फिर नेत्र बन्द किए ….कुछ देर बाद नेत्र खोलके ….बोलीं ….देवि कात्यायनी हूँ कहा करें …गोपियाँ माँग रहीं कन्हैया कूँ ….और देवि बेचारी परेशान हैं …कि उपासक जो माँगे वाकूँ अगर देवि या देवता नही दै सके है तौ फिर का बात कौ देवत्व ?
अब कन्हैया काहू देवता और देवि के हाथ में तौ है नाँय ….वो तौ सर्वतंत्रस्वतन्त्र है ….या लिए देवि कात्यायनी परेशान हैं …..कि इनकी इच्छा कैसे पूरी की जावै !
फिर कछु सोचके माता पौर्णमासी बोलीं ……मन्त्र तौ बहुत प्रभावशाली है …..और गोपिन के नियम हूँ पूर्ण है रहे हैं …..लेकिन …….वो जो माँग रही हैं …वो कात्यायनी देवि के वश में ही नही है …..माता ने मोकूँ समझाय दियौ हो ।
मैंने अब चलते भए पूछी …..तौ अब का होयगौ ?
मेरी माता ने हँसते भए कही ….तेरौ सखा जो चाहवैगौ वही होयगौ ।
मैंने समझ गयौ हो ……अब चल दियौ मैं हूँ अपने कन्हैया के पास ।
*क्रमशः…*
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – ३०*
*🤝 ८. व्यवहार 🤝*
_*विषय -त्याग से मुक्ति*_
भगवान् की माया महान् बलवती है, यह जानकर भी मनुष्य नहीं जानता। इस घोर अज्ञान से छूटनेका रास्ता बतलाते हुए कहते हैं-
*अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून्।*
*स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय व्रजन्तः मनसः स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥*
(भर्तृहरिवैराग्यशतक १३)
विषयभोग चाहे कितने ही दीर्घकाल तक हमारे पास रहें, पर एक दिन ये अवश्य ही जानेवाले हैं, फिर चाहे हम उन्हें छोड़कर चले जायँ या वे हमें छोड़कर चले जायँ । उनका वियोग तो अवश्यम्भावी है, तथापि मोहवश हम अपनी इच्छा से उनका त्याग नहीं करते। जब विषय नाश हो जाते हैं और उनका वियोग हो जाता है, तब मन को अत्यन्त दुःख होता है, परंतु यदि हम अपने मन से इनका परित्याग कर दें तो अनन्त सुख-शान्ति की प्राप्ति कर सकते हैं।
यह श्लोक बड़े महत्त्व का है। अतएव इसपर भलीभाँति विचार करें। अनन्त सुख-शान्ति की प्राप्ति से क्या अभिप्राय है। एक वैराग्यवान पुरुष जीवित-अवस्था में ही तमाम भोगों से और भोगों को प्राप्त होनेवाले शरीर से आसक्ति निकाल लेता है तो वह शरीर और भोगपदार्थों से अलग हो जाता है। एक संसारी पुरुष, जो भोगपदार्थों में ही आसक्ति नहीं छोड़ सकता, तब शरीर में तो कैसे छोड़ सकता है? इस मनुष्य को भी मृत्यु के समय शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा और शरीर के छूटते ही तमाम विषय भी बलात् छूट जाते हैं, परंतु उनमें आसक्ति रहने के कारण पुनः शरीर धारण करना पड़ता है। अब विचारिये-उपर्युक्त दोनों ही मनुष्य शरीर और विषयों से छूटते हैं, परंतु छोड़ने के भाव में अन्तर होने से उनके फल में भी बड़ा अन्तर पड़ जाता है। ज्ञानी पुरुष जो जीते-जी ही शरीर और भोगों को ज्ञानपूर्वक स्वेच्छा से छोड़ देता है, इससे वह अनन्त सुख–मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त होता है और दूसरे जिस संसारी मनुष्य को शरीर और भोग विवशतासे छोड़ने पड़ते हैं, इससे उसको त्याग का कुछ भी फल नहीं मिलता। यही नहीं, विषयों में आसक्ति बनी रहने के कारण उसे *’पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्’* -जन्म-मरण के चक्र में भटकना पड़ता है।
श्रुति ने बतलाया है-
*पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू-स्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।*
*प्रत्यगात्मानमैक्ष-कश्चिद्धीरः दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।*
अभिप्राय यह कि विधाता ने इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाकर जीव को बड़ी बुरी स्थिति में डाल दिया है। *जीव स्वरूप से तो परमात्मा का अंश होने से चेतन, अमल, अविनाशी है, पर वह अपने स्वरूप को भूल गया है। इस कारण देह के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध में बँधकर जीवभाव को प्राप्त हो रहा है। तथापि अपने स्वभाव को सर्वथा भूल नहीं सका है, इसीसे उसे जड़ और विनाशशील पदार्थों के संग से प्राप्त होनेवाले सुख से तृप्ति नहीं होती। उसे भूख है- पूर्ण और अक्षय सुख की; क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप है। ऐसा सुख उसे जगत् के विषयों में मिलता नहीं है; कारण, वहाँ वह सुख है ही नहीं। भगवान् ने विषयों के सुख को दुःखयोनि और क्षणभंगुर बतलाया है और जगत् को दुःखालय तथा अनित्य बतलाया है। जिसको भूख लगी हो, उसे कितना ही बढ़िया संगीत सुनाया जाय अथवा तरह-तरह के नाच दिखाये जायँ तो उसे उनसे सुख नहीं मिलता। उसे तो खाने को देंगे, तभी तृप्ति होगी। जिसको बड़ी प्यास लगी हो, उसके सामने भाँति-भाँति के पक्वान् रखे जायँ अथवा उच्च स्तर का साहित्य दिया जाय तो उससे क्या सुख मिलेगा। उसे तो ठण्डा पानी पीने को दिया जायगा, तभी उसकी तृप्ति होगी। इसी प्रकार जीव को भूख है- अक्षय और पूर्ण आनन्द की। वह उसे जगत् के विषय-भोगों में कहाँ से मिलेगा? इसीलिये वह विषयों से तृप्त नहीं होता; क्योंकि सच्चे सुख के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती। अतएव श्रुति का यह तात्पर्य है कि सृष्टिकर्ता ने सारी इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इससे वे इन्द्रियाँ केवल बाहर के विषयों के साथ ही सम्बन्ध जोड़ सकती हैं। अन्तरात्मा की पहचान उनसे नहीं हो सकती। पर जब कोई भाग्यशाली जीव बाहर के विषयों में भटकते-भटकते थक जाता है और सच्चे शाश्वत सुख की इच्छा से जब अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर लेता है, तब उसे यथार्थ ज्ञान होता है और उस समय वह अपने मूल आनन्द-स्वरूप को समझ जाता है। ऐसा निरतिशय सुख मिलने पर वह जीव परमात्म-स्वरूप ही हो जाता है और इससे जगत् के विषयों की तुच्छता उसके ध्यान में आ जाती है तथा फिर वह उसकी ओर झाँकता भी नहीं।* जैसे त्रिलोकी का राज्य मिल जानेपर मनुष्य भीख माँगने की इच्छा नहीं करता, वैसे ही निरतिशय आत्मानन्द का अनुभव हो जानेपर तुच्छ विषयानन्द की ओर वह नहीं देखता – *’एवं लब्धपरानन्दः क्षुद्रानन्दं न काङ्क्षति ।’*
क्रमशः…….✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
Niru Ashra: `(सिर्फ़ साधकों के लिए)`
*भाग-43*
*प्रिय ! बलिहारी लीला सदगुरु की …*
(सन्त वाणी )
मित्रों ! कल बाबा बोल रहे थे …साधक शान्त भाव से सुन रहे थे …प्रातः के 6 बजे हैं …मोगरा और वेला इनकी खुशबु से पूरा कुञ्ज महक़ रहा था …सब साधकों के नेत्र बन्द थे …और अपने अपने इष्ट का हृदय में ध्यान करते हुये कर्णरंध्रों से बाबा की वाणी को पी रहे थे ।
* भक्त हृदय का कभी तिरस्कार मत करो …उसके हृदय से जब हाय निकलती है तो तुम्हें भगवान भी नही बचा सकता …वो व्यक्ति भगवत् द्रोही हो जाता है …क्यों कि उसने भगवान के प्यारे भक्त का अपराध किया है ।
तुम से अगर भक्त का अपराध हो गया तो तुम्हारी सारी साधनायें भस्मी भूत हो जाएँगी …तुम नष्ट हो जाओगे …इसलिए भक्तों का …गरीबों का …साधुओं का …वृद्ध और बालकों और स्त्री का कभी भी अपमान मत करो …ये साधकों के लिए चेतावनी है ।
मेरे यहाँ कुछ लोग आये हैं …मैं थोड़ा इधर व्यस्त था …शाम को गौरांगी का फोन आया …हरि जी ! आप आ सकते हो क्या ? बेचारी घबराई हुई थी …।
मैंने कहा …गौरांगी तुम कहाँ हो ?…पुलिस थाने में …मैंने चौंक कर पूछा क्या हुआ ? आप आइये पहले ।
मैं तुरन्त गया …गौरांगी पुलिस वाले से बातें कर रही थी …आप अभी चलिये …मेरे साथ चलिये …वृन्दावन में साधु सन्त सुरक्षित नही है …आप की यही कानून व्यवस्था है ? …मेरे कुछ समझ में नही आया था…पुलिस वाले ने कहा – मैडम आप जाइये हम लोग आरहे हैं …। गौरांगी का चेहरा लाल हो गया था …उसे क्रोध भी आरहा था …और कुछ दयनीय सी भी लग रही थी ।
मेरे साथ गाड़ी में बैठी गौरांगी …मैंने गाड़ी चलाते हुये पूछा क्या हुआ ? सब ठीक तो है ना ?…रो गयी गौरांगी …हरि जी ! आज दोपहर कुञ्ज में दो बदमाश आये …पता नही उन्हें क्या लगा होगा …कि बाबा के पास पैसा या माल है …बाबा तो ध्यान में बैठे हुये थे …मैं बाहर कुञ्ज में बैठी माला जप रही थी …कुञ्ज में कोई नही था …एक बदमाश सीधे बाबा की कुटिया के भीतर घुस गया …और बाबा को चिल्लाकर बोला …माल निकालो …मैं जब भीतर जाने लगी तो एक लड़के ने मुझे भीतर जाने नही दिया …मैं चिल्लाई …और बोली …हम लोगों के पास कुछ नही है ..बाबा ध्यान में हैं…उन्हें छूना भी नही…बर्बाद हो जाओगे ! …जब उन्होंने देखा कि बाबा ऐसे नही देगा …तो ध्यान में बैठे बाबा के देह में लाठी मारने लगे …बाबा ने आँखें खोल कर देखा …और गम्भीरता से बोले …यहाँ कुछ नही है । और दो तीन लाठी मारकर वो लोग भाग गये …बाबा उन्हें जानते हैं …यहीं पास में ही वो लोग रहते हैं …एक दो बार और शराब पी कर कुञ्ज में उनलोगों ने ही उपद्रव मचाया था …। मैं दौड़ी दौड़ी भीतर बाबा की कुटिया में गयी …तो मैंने देखा …बाबा मुस्कुरा रहे थे …और बाबा बोले …बेचारे चले गये …उन्हें यहाँ कुछ नही मिला । मैंने कहा …बाबा आपके कहाँ लगी है ? …बाबा बोले …अरे ! कुछ नही थोड़ा ही मारे हैं …वो चाहते तो जान से भी मार सकते थे …पर नही मारा …। बाबा आप उन्हें जानते हो ?…हाँ जानता हूँ …पर उनकी गलती नही है …गलती शराब के सेवन की है …गलत संग की है …रजोगुण और तमोगुण के कारण ये सब वह कर रहे हैं ।
हरि जी ! मेरी समझ में नही आया कि मैं क्या करूँ ? …मैं पुलिस चौकी में आगई…बताना जरूरी था …।
हम कुञ्ज में गये …बाबा बैठे थे …शान्त भाव से …कहाँ गये थे तुम लोग ? …बाबा ने पूछा । पुलिस चौकी …बाबा चौंक कर बोले …क्यों गये थे ? …। देखो ! मुझे चोट कहाँ लगी है ? …वो लोग चाहते तो मेरे सिर में भी लाठी मार सकते थे …और मेरा शरीर छूट जाता …। हम लोग बात कर ही रहे थे कि पुलिस आगई …
बाबा किसने मारा है आपको …? बाबा ने हँसते हुये कहा …मेरे “कर्म” ने मारा है मुझे …पुलिस ने मेरी ओर देखा …मैंने बाबा से कहा …बाबा आप उन लोगों को जानते हैं …बता दीजिये ना …पुलिस ने फिर पूछा आप डरें नही बताईये किसने आपको मारा है ? …बाबा हँसे …और बोले …मैं क्यों डरूंगा …मुझे भैया मेरे बुरे कर्मों ने मारा है …आप लोग जाएँ यहाँ से , मेरी साधना में आप विघ्न न डालें । पुलिस वाले बाहर आये …और आकर गौरांगी से बोले …मैडम ! अगर फिर ऐसी घटना हो तो आप स्वयं संज्ञान में लीजियेगा …और ये मेरा no. है …इसमें सूचना दे दीजियेगा ।
रात्रि में पास की ही एक महिला आयी …रात्रि के 9 बज रहे थे …गौरांगी कुञ्ज में ही थी …और अपनी कुटिया में जाने ही वाली थी कि …उस महिला ने आकर रोना शुरू किया …गौरांगी ने कहा …क्या हुआ मैया ! क्यों रो रही हो ? …बिटिया …मेरा बेटा , पता नही उसे क्या हो गया है …वो पागल सी हरकत कर रहा है …और चिल्लाचिल्लाकर बोल रहा है …”मैंने बाबा को लाठी मारी है” …मैंने …मैं गया था बाबा के यहाँ चोरी करने …फिर हँसता है …और कहता है …उनके यहाँ तो कुछ भी नही था …फिर रोने लग जाता है …कि मैंने ऐसा क्यों किया ! मुझ से पाप हो गया… मेरा शरीर जल रहा है …मुझे बचाओ ।
बाबा आवाज़ सुनकर भीतर से बोले…गौरांगी ! कौन है ? कौन आया है ?…कोई महिला रो रही है…उससे पूछो क्यों रो रही है ?
वो महिला भीतर गयी …और बाबा के चरण पकड़ लिए …बाबा मेरे बच्चे को बचा लो …उससे बहुत बड़ा अपराध बन गया है …बाबा आप तो दयालु हो …मेरा बेटा पागल हो गया है ।
गौरांगी ने कहा …बाबा कुछ नही कर सकते …आप जाएँ …और अगर ज्यादा ही तबियत खराब हो रही है आपके बेटे की तो हॉस्पिटल ले जाएँ …पर यहाँ न आइये …ये साधना स्थली है ।
बाबा ! आप कृपा करिये …कोई डॉक्टर उसे नही बचा सकता …आप ही देख लीजिये …बाबा । गौरांगी ने कहा …भगवत् रूप बाबा को लाठियों से मारा है उसने …उसे दण्ड तो मिलना ही था । …ऐसा मत बोल बेटी …।
बाबा आप कृपा करो …बाबा ने गौरांगी से कहा …चल …।
कहाँ ? …गौरांगी ने चौंक कर पूछा …इसके घर में ।
पर क्यों ? …कोई बात नही …गलती सबसे होती है …इससे भी हुई …चल । नही बाबा ! मैं तो जाऊँगी ही नही …आपको भी नही जाने दूँगी …। बाबा ने कहा …हम लोग “प्रेम साधना” के साधक हैं ना…अगर क्षमा करना हमने नही सीखा …तो काहे का ये ढोंग कर रहे हैं…हमारे जीवन में “क्षमा” का प्राकट्य नही हुआ …तो काहे की साधना करते हो तुम लोग ।
देखो ! क्षमा करना ही हम साधकों का कार्य है …भारी से भारी गलती भी हम लोगों को क्षमा से दूर कर देनी चाहिए ।
गौरांगी ! मन में किसी के प्रति भी द्वेष बुद्धि मत रखो …इससे तुम्हारा हृदय जलेगा …और हृदय के जलते ही …भगवत् प्रेम का जो आनंद तुम ले रही हो …वो ख़तम हो जाएगा । फिर तुम में और एक संसारी में क्या भेद रहा ?…अरे ! हम साधक हैं …इस बात की मन में ठसक रखो…और विशालता हृदय में रखते हुये उस बात को क्षमा करके निकाल दो …गौरांगी ! हम यहाँ जो श्री धाम में बैठकर साधना कर रहे हैं …क्या अब द्वेष मन में रखकर साधना को मिटियामेट करना चाहती हो ? …गौरांगी ! बिच्छु का काम है ..डंक मारना …पर साधक का काम है …बस क्षमा करते रहना…देखो …ऐसा करके देखो ..तुम्हारे हृदय में चमत्कार होगा…तुम्हारा हृदय प्रेमपूर्ण हो जायेगा ।
गौरांगी चुपचाप सिर झुकाये सुनती रही …और उसके नयनों से अश्रु बहते रहे …बाबा जैसे सदगुरु का मिलना …इस युग में बहुत बड़ी बात है ।
बाबा चले …गौरांगी पीछे पीछे चली …पास में ही घर है …बाबा जैसे ही घर में गये …वह लड़का अपने कमरे में भागा …और भीतर से कुण्डी लगा दी ।
बाबा ने बड़े प्रेम से दरवाजा खटखटाया …और बाबा बोले …लाला ! दरवाजा खोल …आप मुझे मारोगे ? …बाबा बोले नही पगले ! मैं तो तुझे प्रेम देने आया हूँ …मैं तुझ से प्रेम करता हूँ …आ ! दरवाजा खोल…बाबा की बात सुनकर उसने दरवाजा खोला …और दरवाजा खोलते ही वो जैसे ही बाहर भागने लगा …बाबा ने भाग कर उसे पकड़ लिया …और कसकर उसे गले से लगा लिया…वो थोड़ा छटपटाया …पर बाबा ने उसे अपने प्रेम के पाश में बांध लिया था…उसके नेत्रों से अब अश्रु बहने लगे …वो फूट फूट के रो पड़ा …। बाबा ने उसके माथे को चूमा …और बड़े प्यार से उसे छोड़ा …।
वो लड़का …अब बाबा के चरणों में था …साष्टांग । बाबा ने कहा …सत्संग में नही आते ? …वो बस रोये जा रहा था ..उसका हृदय उसे कचोट रहा था…बाबा ने कहा …हट्ट पगले ! तेरा मेरा कोई पूर्व जन्म का हिसाब था…आज बराबर हो गया ।
बाबा आपने मुझे क्षमा कर दिया ? …बाबा ने हँसते हुये कहा …अभी नही किया …कल से सत्संग में आएगा ? …आऊँगा …बाबा बोले …कल से सत्संग में आएगा ना …तो मैं तुझे क्षमा कर दूँगा …। आऊँगा बाबा अवश्य आऊँगा । बाबा ने उसके सिर में हाथ फेरा और बाबा चल दिए अपने कुञ्ज की ओर ।
गौरांगी ने ये बात मुझे रात्रि में फोन पर बताया था । …और वो बता रही थी …तो वह भी रो रही थी …और सुनकर मैं भी ।
ऐसे हैं हमारे सद्गुरूदेव पागलबाबा ।
“तुम्हें और क्या दूँ इस दिल के सिवाय,
तुम को हमारी उमर लग जाये”
Harisharan


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