Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣1️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
श्रीरामराज्य की स्थापना हो गयी……सूर्य नें मानों सुखद ताप बनाये रखनें का व्रत ले लिया …ओला, अतिवृष्टि ये पुस्तकों के शब्द रह गए थे ।
नदियाँ, निर्झर सदा निर्मल नीर ही प्रवाहित करनें लगी थीं ।
अश्व, गज, गौएँ तथा अन्य पशुओं में उत्तम लक्षण युक्त शिशु ही उत्पन्न होनें लगे थे ।
पर्वतों नें स्वर्ण चाँदी ताम्रादि धातुएं देनें शुरू कर दिए ।
समुद्र की तरंगें, मुक्ता मणि माणिक्य मोती ये सब ढ़ेर के ढ़ेर किनारे पर लाकर रख देते थे ।
मनुष्यों का मन अत्यन्त निर्मल रहनें लगा था……..चोरी, झूठ हिंसा ये सब बीती बातें हो गयी थीं ।
मैं क्या कहूँ – सम्पूर्ण पृथ्वी ही तपोवन के समान शुद्ध सत्व से परिपूर्ण हो रही थी ……….।
मनुष्य स्वस्थ , उसका शरीर सुपुष्ट सुन्दर रहनें लगा था ।
स्त्री पुरुष का जीवन पवित्र था …….काम मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिये ही था ….या कहूँ मैं कि – काम परिवर्तित होगया था “श्रीरामप्रेम” में ।
सब सन्तुष्ट थे ………लोभ रह नही गया था ………क्रोध आनें का कोई विशेष कारण नही था क्यों की कामना ही नही रह गयी थी ।
कुल मिलाकर मैं वैदेही यही लिखती हूँ कि ……….मेरे श्रीरामराज्य में सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणी सत्वनिष्ठ थे …..सुखी, सम्पन्न और सहज सदगुण उनमें दिखाई देते थे ……।
मेरे श्रीराम सबका ख्याल रखते …………उनकी दृष्टि में सब एक थे ….वो राजा थे …..और बाकी उनकी प्रजा ……..मेरे श्रीराम एक राजा ही बन गए थे ………महान राजा ………प्रजावत्सल राजा ………उनका “निज जीवन” जैसा कुछ रह नही गया था ………..उनके लिये अब प्रजा ही सबसे प्यारी थी ……..कहूँ तो – उनका परिवार विस्तृत हो गया था ……..उस परिवार में सब थे ……..सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणी …….चक्रवर्ती सम्राट जो थे मेरे श्रीराम ।
आज विदाई की बेला थी ………………सबको कुछ न कुछ उपहार देकर मेरे श्रीराम विदा कर रहे थे ………….।
सबसे पहला उपहार तो निषाद राज गुह को दिया ……….
वो आँखों से नीर बहाते रहे ……….मना करते रहे ………पर मेरे श्रीराम कहाँ माननें वाले थे ……….वो सुन्दर पोशाक, स्वयं अपनें हाथों से पहनाया था निषादराज को ।
“आपको सप्ताह में एक दिन के लिये भी हो, हे निषादराज ! अयोध्या में आना ही पड़ेगा …………..मेरे श्रीराम नें सुन्दर सा हार गले में पहनाते हुये अपनें मित्र से कहा था ।
आप कहें तो – नाथ ! मैं तो अयोध्या छोड़कर ही न जाऊँ !
निषादराज जी के मुख से ये सुनकर सब हँस पड़े थे ।
इसके बाद उस केवट को भी उपहार देकर सम्मानित किया मेरे श्रीराम नें …………..”.नही मैं उतराई नही लूंगा” ……….केवट को अभी भी उतराई की ही याद है …………मैं हँसी ।
मैं तुम्हे उतराई दे भी नही सकता मित्र ! कन्धे में हाथ रखा मेरे श्रीराम नें ……केवट भाव विभोर हो गया था ।
अनेक निषाद , भील, कोल किराँत सबका आदर करते हुए इन सबको बहुमूल्य उपहार देकर मेरे श्रीराम नें विदा किया ।
वानरों की वारी थी अब ………………….
वानरराज सुग्रीव ………..जैसे ही इनके सम्मान की बेला आई …..ये तो हिलकियों से रो पड़े …….मैं नही जाऊँगा किष्किन्धा – नाथ ! ।
नही मित्र ! वहाँ की प्रजा तुम्हारी बाट जोह रही है ………..तुम्हे जाना चाहिये ……….मैं कहाँ तुम लोगों से दूर हूँ …………मेरा स्मरण करते रहना ……….और कर्तव्य का पालन करते रहो ……..।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३९*
*🤝 ११. व्यवहार 🤝*
_*अन्तकाल में जैसी मति, वैसी गति*_
इसी प्रसंग में श्रीयोगवासिष्ठ में ऐसा कहा गया है-
*तनुं त्यजतु वा काश्यां श्वपचस्य गृहेऽथवा ।*
*ज्ञानसम्प्राप्तिसमये मुक्तोऽसौ विगताशयः॥*
'ज्ञानी अपना शरीर काशी में छोड़े या चाण्डाल के घर ये दोनों ही समान हैं; क्योंकि मुक्ति ज्ञान के समकालीन होती है, अतः वह ज्ञानोदय के समय ही मुक्त हो जाता है और उस ज्ञानी को यह चिन्ता नहीं रहती कि शरीर-पात कब और कैसे होगा।'
*'मैं आत्मा हूँ और इस कारण निर्विकल्प, निर्विकार और असंग हूँ'* – इस प्रकार का यथार्थ ज्ञान जब प्रकट हो जाता है, तब इस सम्बन्धका चिन्तन शरीरान्त होनेतक करना ही चाहिये - ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि करे भी तो उसको एक विनोद समझकर ही करे; और न करे तब भी उससे उसको कोई हानि नहीं होती। इस विषय को समझानेवाला अष्टावक्र मुनि का यह एक श्लोक है-
*आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।*
*निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम् ॥*
मैं आत्मा हूँ, अतएव ब्रह्मस्वरूप ही हूँ, यह जिस ज्ञानी को अपरोक्ष अनुभव हो गया है, वह देह के जन्म-मरण को कल्पनामात्र मानता है। जल-तरंग के समान शरीर तो स्वभावतः ही उत्पन्न और नष्ट हुआ करता है, यह उसका पक्का निश्चय होता है। इस प्रकार मुक्ति की भी जिसको कामना नहीं होती, ऐसे ज्ञानी को फिर जानने के लिये क्या शेष रह जायगा? तथा फिर वह क्या बोलेगा? और उसको करने के लिये क्या कर्तव्य रहेगा? उसका तो कोई प्रयोजन ही नहीं रहा, इसलिये कोई कर्तव्य भी नहीं रहा।
*शरीर की रचना ही ऐसी है कि मृत्युकाल में मनुष्य कुछ भी चिन्तन करने में समर्थ नहीं होता। मृत्यु का इतना भारी धक्का लगता है और व्यथा भी इतनी असह्य होती है कि उस समय प्राण व्याकुल हो जाते हैं। प्राणों के व्याकुल होनेपर मन-बुद्धि स्थिर नहीं रह सकते, अतएव चिन्तन करने की सामर्थ्य नहीं रहती। ऐसी स्थिति लगभग सभी मनुष्यों की होती है। उसमें ज्ञानी-अज्ञानी का भेद नहीं होता; क्योंकि यह तो देह का धर्म है।*
जिस ज्ञानी का देहाभिमान गल गया है, अर्थात् जिस ज्ञानी का देहाध्यास निवृत्त हो गया है और इस कारण वह अपने आत्मस्वरूप में स्थिर हो गया है, उसकी दृष्टि में दृश्य-प्रपंच की कोई सत्ता नहीं रहती और इस कारण वह जगत् को ब्रह्मरूप या आत्मरूप ही देखता है। अब ऐसे ज्ञानी को शरीर के उत्पत्ति-विनाश से या मन-बुद्धि के चिन्तन और निश्चय से क्या लाभ-हानि हो सकती है? कुछ भी नहीं। इस समस्त निबन्ध का सार अवधूत श्रीदत्तात्रेयजी एक श्लोक में इस प्रकार देते हैं-
*उक्तेयं कर्मयुक्तानां मतिर्यान्तेऽपि सा गतिः ।*
न चोक्ता योगयुक्तानां मतिर्यान्तेऽपि सा गतिः॥
भाव यह कि *'मरणे या मतिः सा गतिः'* - यह जो कहावत चली आ रही है, वह केवल सकाम-कर्मपरायण मनुष्यों के ऊपर ही लागू होती है; परंतु जिन्होंने भक्तियोग या ज्ञानयोग के द्वारा अपने स्वरूप का निश्चय कर लिया है, उनके ऊपर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता ।
*इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँतक देहाध्यास है, अर्थात् आत्मा में जीवभाव है, वहाँतक जीव अपने को जनमता और मरता मानता है। इससे मृत्यु के समय जिस भाव का उसको स्मरण होता है, उसी के अनुसार उसकी ऊँची-नीची गति अवश्य होती है। अतएव अध:पतन से बचना हो तो जीवन में भगवद्भजन करते रहना चाहिये।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-52
प्रिय ! चित्त रत होत प्राण प्यारे में निरत ह्वै कै …
(सन्त वाणी )
1️⃣
मित्रों ! वह स्वामी जी सुबह ही गाड़ी लेकर आज सत्संग में आगये थे …आज ही उन्हें डेल्ही जाना है …यही स्वामी जी तो मुझे ले जाने वाले थे डेल्ही…पर बाबा कहाँ जाने देते हैं मुझे ।
हम सब बैठे हुये थे …ध्यान की मुद्रा थी…समस्त साधक आँखें बन्द करके बैठे हैं…कोई लता वृक्षों को गले लगाकर “कृष्ण कृष्ण” कहकर रो रहा है …कोई साधक लताओं के झुरमुट में बैठ कर झोली माला में नाम मन्त्र का जप कर रहा है ।
स्वामी जी आये …उनके साथ कुछ विदेशी शिष्य भी थे …मुझे गौरांगी ने धीरे से कहा…हरि जी ! तुम्हारे स्वामी जी ।
मैंने देखा …मैं उठा और उनके पास में गया…हम दोनों गले मिले …और मैं उन्हें लेकर अपने पागलबाबा के पास में ।
बाबा ने देखा …मुस्कुराये । आइये स्वामी जी ! आसन दिए …स्वामी जी तो आसन में बैठ गये…पर उनके साथ जो V V I P विदेशी शिष्य थे स्वामी जी
के …वो कहाँ बैठें ! नीचे रज थी …मिट्टी ।
बाबा स्वयं ही सहजता में बोले …अब सबके लिए तो मेरे पास में आसन है नही …और ये तो वृन्दावन है …यहाँ तो रज (मिट्टी ) की ही महिमा है …और हम सबको एक दिन इसी मिट्टी में ही मिल जाना है …कुछ नही होगा…आप यहीं बैठिये …। स्वामी जी
ने इशारा करके अपने शिष्यों को वहीं बैठने के
लिए कहा …।
हाँ तो कहिये स्वामी जी ! कैसे पधारे ? …
बस आपके दर्शन के लिए आये हैं…फिर थोड़ी देर
चुप्पी के बाद स्वामी जी स्वयं ही बोले…आप की साधना का स्वरूप क्या है ?
…बाबा ! बताने की कृपा करें ? …
बाबा ने कहा …आपका शिविर चल रहा था वह पूर्ण
हो गया ? जी बाबा ! …क्या था उस शिविर में ?
…क्या सिखाया था आपने उस शिविर में स्वामी
जी ? …स्वामी जी ने कहा …मनुष्य दुःखी है …इसलिए उसे अध्यात्म की आज आवश्यकता है …बस दुःख निवारण के लिए यह शिविर था ।
क्या देते हैं आप दुःख निवारण के लिए ?
…
बीज मन्त्र दे देते हैं …और बीज मन्त्र से उन्हें मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है । धन के लिए मन्त्र है …मुकदमा जीतने के लिए मन्त्र है …पति पत्नी के झगड़े कैसे मिटे इसके लिए मन्त्र हैं …बस यही समस्यायें हैं मनुष्य की ।
आप यही करते हैं ? …बाबा ने आश्चर्य से पूछा
…जी ! यही करता हूँ …मेरे विश्व में 15 आश्रम हैं …अमेरिका और एशिया सब जगह । वहाँ पर भी यही बीज मन्त्र देते हैं ? हाँ बाबा ! …और आगे क्या करना है आपको ? …एक द्वीप में आश्रम बनाने की
सोच रहा हूँ …उसमें 200 करोड़ रूपये का खर्चा है …वही मेरा स्वप्न है …बाबा बोले – उसके बाद ? …उन स्वामी जी ने कहा…फिर शान्ति से उस द्वीप में बैठकर ध्यान, मेडिटेशन करेंगे …बाबा ! आपको तो पता ही है ना …ध्यान के लिए तो शान्त और एकान्त स्थान चाहिए है ना ?
बाबा ने कहा …कामना से शांति मिलती है ?
स्वामी जी तुरन्त समझ गये कि बाबा क्या कहना चाहते हैं …बताईये स्वामी जी ! कामना से शान्ति की प्राप्ति होती है ?
…कामना से आनंद मिलता है ? स्वामी जी ने मेरी ओर देखा …बाबा ने कहा …स्वामी जी ! आप मेरे हरि के मित्र हैं …मैं यहाँ आपसे कुछ बहस नही कर रहा…मैं तो चर्चा कर रहा हूँ …आप किसी द्वीप में बैठकर ध्यान करेंगे …है ना ? …और वह द्वीप आप
खरीदेंगे 200 करोड़ में …स्वामी जी ! 200 करोड़ के लिए आपको अपना अन्तःकरण कितना खराब
करना पड़ेगा आपको पता है ? …स्वामी जी ! 200 करोड़ के लिए आपको अपना हृदय कितना दूषित
करना होगा आपको पता है ? …।
स्वामी जी ! हमारे वृन्दावन में एक बड़े परम विरक्त महापुरुष हुये …वो मात्र एक करवा (मिट्टी का एक पात्र) और हाथ में एक लाठी…तन में लँगोटी…और एक तानपूरा…उनका नाम था स्वामी श्री हरिदास जी । स्वामी जी ! श्री हरिदास जी के चरणों में अकबर आकर बैठता था…पर वह महापुरुष बादशाह अकबर की ओर देखते भी नही थे…क्यों कि उनका ध्यान तो अपने प्रियतम श्री बाँके बिहारी को ही रिझाने में लगा हुआ था … आप का ध्यान कहाँ है ?
…200 करोड़ के द्वीप में !
बाबा आगे बोले …स्वामी जी ! पूर्वजन्म का कोई अच्छा प्रारब्ध खा रहे हो …नही तो इस जन्म में तो आप कुछ कर नही रहे …बस पैसा जोड़ जोड़ कर…फाइवस्टार आश्रम ही बना रहे हो ।
स्वामी जी ! आप ये सब किसके लिए कर रहे हो ?
…अपनी प्रतिष्ठा के लिए ना ?…
नही मैं ये सब जन कल्याण के लिए कर रहा हूँ ।
बाबा हँसे …और बोले …मैं आपका यजमान नही
हूँ …जो मुझे आप डायलॉग देंगे …यहाँ तो सहज बातें कीजिये …ताकि आपके जीवन के लिए भी कुछ लाभ हो ।
हमारे स्वामी हरिदास जी कहते थे …”और तो बिगड़े बिगड़े पर तुम मत बिगड़ो माला धारी”
क्रमशः….
Harisharan
