[1 Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣1️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
वानरों की वारी थी अब ………………….
वानरराज सुग्रीव ………..जैसे ही इनके सम्मान की बेला आई …..ये तो हिलकियों से रो पड़े …….मैं नही जाऊँगा किष्किन्धा – नाथ ! ।
नही मित्र ! वहाँ की प्रजा तुम्हारी बाट जोह रही है ………..तुम्हे जाना चाहिये ……….मैं कहाँ तुम लोगों से दूर हूँ …………मेरा स्मरण करते रहना ……….और कर्तव्य का पालन करते रहो ……..।
हनुमान को तो कोई उपहार चाहिये नही ……….क्यों की ये तो जानें के लिये तैयार ही नही हुए ……”मैं इन चरणों को कैसे छोड़ सकता हूँ”…ये कहते हुये उपहार को स्वीकार नही किया पवनसुत नें ।
जामवन्त और अंगदादि को स्वर्गलोक का सुन्दर हार और अत्यन्त बहुमूल्य हीरों से जड़ा कड़ा दिया ।
अंगद तो बालकों की तरह रो रहे थे ……..उन्हें अयोध्या से लौटनें की इच्छा ही नही थी ………पर मेरे श्रीराम नें सुग्रीव को बुलाकर कहा ……ये आपका ही पुत्र है ……..इन्हें बाली का पुत्र समझकर इनकी अवहेलना नही होनी चाहिये किष्किन्धा में ।
और अंगद ! ये सुग्रीव तुम्हारे पिता के भाई हैं …..पिता समान ही हैं ……इनका भी आदर पिता के समान ही करना ।
अब बारी थी लंकापति विभीषण के पुत्र और पुत्रियों की ।
और स्वयं महाराज विभीषण भी खड़े थे ।
मैं तो आपको छोड़कर कहीं जानें वाली नही हूँ रामप्रिया ! ….त्रिजटा बड़े ठसक से बोली थी……….
पर मैने तो तुंम्हारे लिये ये हार मंगवाया था …………तो रामप्रिया ! ये हार किसी और को दे दो ……..मैं नही लुंगी ……….।
पर त्रिजटा ! मैं कुछ बोलनें जा रही थी पर …….
“आपको पता है ना रामप्रिया ! मैं जिद्दी हूँ”
त्रिजटा की बातें सभा में सबनें सुन ली थीं …………..मैने ही कहा …..नाथ ! ये यहीं रहेगी ! मेरे श्रीराम मुस्कुराये और उन्होंने स्वीकृति दे दी ………..त्रिजटा उछल पड़ी थी ख़ुशी के मारे ।
आपका पुत्र “मत्तगयन्द” कहाँ है विभीषण जी !
वो अयोध्या नही छोड़ेगा …………..मेरे ये दोनों पुत्र और पुत्री को आपही सम्भालिये नाथ ! विभीषण नें हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।
कुछ देर विचार कर ……..मेरे श्रीराम नें कहा ……..अयोध्या धाम का मैं तुम्हारे पुत्र “मत्तगयन्द” को कोतवाल बनाता हूँ ………..।
विभीषण के नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे …….मैं धन्य हो गया नाथ !
आपको क्या दूँ मैं मित्र विभीषण ! माँगिये ना आप ?
मुझे तो आप ! चुप हो गए विभीषण ।
बोलिये ना ! आपको क्या चाहिये ? मेरे श्रीराम नें फिर पूछा ।
नाथ ! आपके जो कुलपूज्य हैं श्रीरंग नाथ भगवान …………..मुझे इनका विग्रह चाहिये ……………..
सब स्तब्ध होगये थे विभीषण की बातें सुनकर …….।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ४०*
*🤝 १२. व्यवहार 🤝*
_*सुख-शान्ति का एकमात्र उपाय - धर्म*_
आप जिस विश्व में रहते हो, उस विश्व का स्वरूप जितना विशाल है, उससे अनेक गुना विशाल है स्वरूप धर्म का; और उसके उदर के एक अंश में आपका यह विश्व स्थित है। तब फिर ऐसे धर्म से घृणा रखनेपर आपका पालन-पोषण कैसे चलेगा?
*धर्म का स्वरूप इतना अधिक विशाल है कि उसको किसी एक व्याख्या में बाँधा नहीं जा सकता। इस प्रकार अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार विभिन्न विचारकों ने धर्म की अनेकों व्याख्याएँ की हैं, 'धर्म' शब्द की व्युत्पत्ति भी विभिन्न प्रकार से की हैं। जहाँ हम बैठे हैं, उसी कमरे का एक छायाचित्र यदि कैमरे को ईशान कोण में रखकर लें तथा दूसरा छायाचित्र नैर्ऋत्य कोण में रखकर लें तो ये दोनों छायाचित्र एक समान नहीं होंगे। एक में जहाँ हमारा मुँह दीखेगा, वहाँ दूसरे में हमारी पीठ दीखेगी। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ खड़े होकर जिस दृष्टि से धर्म का अवलोकन किया गया, उसीके अनुसार उसकी व्युत्पत्ति करके लक्षण बनाया गया।*
अब धर्म-शब्द की कुछ व्युत्पत्ति देखिये । अन्तिम अर्थ तो सबका एक ही है। परंतु हमने जैसा पहले कहा है, उसके अनुसार जिस कोने से हम उसे देखते हैं, वैसा ही वह हमें दीखता है। (१) *धिन्वनाद् धर्मः ।* धिन्वन का अर्थ है धारणा या आश्वासन देना, दुःख से पीड़ित समाज को धीरज देकर सुखका मार्ग दिखाना। इस प्रकार के आचार का नाम धर्म है। (२) *धारणाद् धर्मः ।* धारण करना, दुःख से बचाना। श्रीकृष्ण भगवान् ने जैसे गोवर्द्धन को धारण करके ब्रजको बचाया था, उसी प्रकार जिसके आचरण से समाज अधोगति की ओर न जाय और अपने उच्च आसन पर स्थिर रह सके, उसका नाम धर्म है। प्रकृति का स्वभाव ही जल के समान नीचे की ओर जाने का है। अर्थात् यदि धर्म का अवलम्बन न किया जाय तो सहज स्वभाव से प्रजा अधोगति की ओर घसीटती जाती है। आज धर्म का आश्रय छूट जाने के कारण ही हम दिन-प्रतिदिन गिरते जा रहे हैं, यह प्रत्यक्ष ही है।
*मनुभगवान् ने धर्म के दस लक्षण बतलाये हैं। उनमें धर्मपालन करने का सारा स्वरूप आ जाता है। पुराणों ने उसका विस्तार करके धर्म के तीस लक्षण बताये हैं। धर्म के एकाध अंग का भी यदि समझदारी के साथ पालन हो तो दूसरे अंगों का पालन अपने-आप हो जाता है। जैसे खाट के एक पाये को खींचने से शेष तीन पाये उसके साथ अपने-आप ही खिंच जाते हैं, इसी प्रकार धर्म के पालन में भी होता है। धर्म-पालन समझदारी के साथ होना चाहिये।*
केवल अब धर्म की एक सर्वदेशीय और सर्वमान्य व्याख्या देखिये। वास्तव में धर्म का ज्ञान चर्चा या इस विषय के ग्रन्थों के अवलोकन से ठीक तौरपर नहीं होता। यह तो आचरण में लाने की वस्तु है। जैसे-जैसे आचरण धर्ममय होता जाता है, वैसे-वैसे ही धर्म का रहस्य समझ में आता जाता है। बाँचने से या चर्चा करने से तो केवल ऊपरी ज्ञान होता है, जिसको केवल जानकारी मात्र कह सकते हैं।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
