श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! वर्षा ऋतु में श्रीराधाकृष्ण !!
भाग 2
साड़ी भींग गयी है ……..चोली भींग गयी हैं ……….मस्तक में लगा हुआ श्याम बिन्दु भींग कर उनके गोरे कपोलों में आगया है ।
बारबार देखती हैं वृन्दावन की ओर ……अब आये ! कि अब आये !
वे कपटी हैं , मन के कपटी ……….ललिता सखी को अब रोष आरहा है श्याम सुन्दर के प्रति ……उनकी लाडिली भींग रही है ……….रोष क्यों नही आएगा !
हाँ …….मैं सच कह रही हूँ ……अपनें हृदय को जलाओ मत लाडिली !
वे तो कपटी हैं ………जैसे भौंरा होता है ना ………हर कली में बैठता है ऐसे ही वे भी किसी भी गोपी से मधुर सम्भाषण करके उसके हृदय में अपनी जगह बना लेते हैं ………वे अनन्य नही हैं ………वे किसी के अनन्य हो ही नही सकते ………..ललिता सखी समझा रही है श्रीराधा रानी को ।
निर्दयी हैं वे ………वे छलिया हैं ………….बारू की भीत चिनना उन्हें खूब आता है ………….वे प्रेम करनें योग्य ही नही हैं ……..फिर आप क्यों अपना हृदय जला रही हो !
ललिता के मुख से सब सुनकर श्रीजी नें ललिता की ओर देखा ……..
उन्हें कष्ट हुआ था,
अपनें प्रियतम के बारे में वो ऐसा सुन कैसे सकती थीं ।
सखी ! मेरी प्रिय सखी ललिते ! मेरी बात सुन ……………
वैसे ही मैं दुःखी हूँ कि मेरे” प्राण” अभी तक क्यों नही आये ………इसके बाद तू मेरे प्रियतम की निन्दा करके मेरे दुःख को और क्यों बढ़ा रही है………..मैं दुःखी हूँ ……….बहुत दुःखी हूँ ……..पर सखी ! मेरा हृदय शान्त है ……….शीतल है ………उसे मैं विरह की आग में जलाती नही हूँ ………..क्यों की हृदय अगर विरह में तापित हो गया तो मेरे प्रियतम झुलस जायेंगे …क्यों की वे वहीं रहते हैं ………..ओह ! उनका वो सुकोमल शरीर ……….उसमें ताप लगेगा ……उनको कष्ट होगा …….और तुझे क्या लगता है मैं अपनें “प्राण” को कष्ट होनें दूँगी ? मैं मर न जाऊँ उसी समय !
ये सब कहते हुए श्रीराधारानी प्रेम की सर्वोच्च स्थिति को भी पार कर चुकी थीं ………उनके देह से प्रेम की सुवास प्रकट हो रही थी …….वो लम्बी साँस लेती थीं जब जब तब उनकी साँसों से कमल की सुगन्ध आरही थी ……………
सखी ! तू नही समझेगी ! वे चाहे कैसे भी हों ……कपटी , निर्दयी , छलिया कैसे भी …….पर वे मेरे प्राण हैं ……….वे जैसे हैं मुझे वैसे ही स्वीकार्य हैं………फिर हँसती हैं श्रीराधा रानी ….।
तभी पीछे से श्याम सुन्दर आगये………..और अपनी प्यारी श्रीराधा रानी को अपनें बाहु पाश में भर लेते हैं ……।
ललिता सखी आनन्दित हो जाती हैं …….क्यों की श्रीजी का मुखमण्डल अब खिल गया है …………उनके आनन्द का कोई पारावार नही है ……………
पर ये क्या ! वर्षा और तेज हो गयी ……….दोनों भींग रहे हैं ।
तभी श्याम सुन्दर नें अपनी कारी कमरिया निकाली……उसे झाड़ा…..बुँदे सब गिर गयीं…..अब युगल सरकार नें उस कारी कमरिया को अपनें ऊपर डाल लिया था ….और दोनों एक दूसरे में खो गए ।
बादल अब और घुमड़ घुमड़ के आरहे थे ।
बिजुली जब जब चमकती तब श्रीजी श्याम सुन्दर के हृदय से लग जातीं……..श्याम सुन्दर नभ की ओर देखते हुये उस घन सौदामिनी को धन्यवाद कहते ।
इस लीला की साक्षी ललिता सखी ही थी ……….
उद्धव नें विदुर जी को बताया ।


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