श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “दीन बन्धु कन्हैया” – एक अद्भुत प्रसंग !!
भाग 2
अर्जुन की आयु इस समय 4 वर्ष की ही थी ……..वो तो मस्तक को धड़ से जोड़कर कह रहा था …….पिता जी उठिये ! पिता जी उठिये !
पर अब कहाँ उठते उसके पिता ।
वो रोता रोता मथुरा में घूमता ………..सब जानते थे कि कंस नें इसके पिता को मार दिया है ………पर कोई सहायता के लिए आगे नही आता था …कंस का भय था ……..कौन आगे आता ……!
अर्जुन आज पाँच वर्ष का हो गया …………….फल फूल खा लेता यमुना के किनारे जा कर ……….जल पी लेता यमुना का ……सो जाता किसी वृक्ष के नीचे …..।
आज ये यमुना किनारे चलता चलता वृन्दावन पहुँच गया था ………..पता नही क्यों इस स्थान पर पहुँचते ही इसे पहली बार जीवन में आनन्द की अनुभूति हुयी थी ।
क्या नाम है तुम्हारा ?
मनसुख सुबह से ही निकला है ............अपनें सखा के लिये उपहार खोजनें ...........
अर्जुन नें मनसुख को देखा …………..तो उसे लगा जैसे अपना कोइ सगा मिल गया हो ………वो हृदय से लग गया मनसुख के ।
मनसुख नें उसकी सारी बातें सुनीं……….अपनें आँसू पोंछे …….फिर एकाएक उठकर बोला ……….चल मेरे साथ !
वो चल दिया मनसुख का हाथ पकड़े ।
बेटा ! लाला ! जिद्द नही करते ……….चलो अब सबका उपहार खोलो……और देखो …….किसनें क्या दिया है ?
मैया यशोदा नें समझाना चाहा ।
पर नही ………मनसुख कहाँ है ? कन्हैया को तो बस यही धुन सवार है ……मनसुख नें कहा था मेरे लिये उपहार लेकर आएगा ……..फिर कहाँ गया ?
बृजराज नें भी समझाया …….पर नही …………उपनन्द नें ……यहाँ तक की महर्षि शाण्डिल्य नें भी ……….पर ।
इसको तो अपना सखा मनसुख चाहिये …………हाँ मनसुख ही ।
दाऊ का भी कहना आज नही मान रहा कन्हाई ….न अन्य सखाओं की बात ………बस मनसुख ।
तभी –
सामनें से आता हुआ मनसुख दिखाई दिया ………….
उसके नेत्रों में अश्रु थे ………….वो आया ……और सबके सामनें कन्हाई से बोला ……….”दीनबन्धु नाम है तेरा ! हे नन्दलाल ! आज इस नाम को सार्थक कर दे…………..उपहार लाया हूँ मैं तेरे लिये ……क्यों की इस उपहार को स्वीकार करनें का सामर्थ्य भी तुझ में ही है ।
गम्भीर हो गए नन्दलाल …………..क्या उपहार लाये हो ?
आवाज देकर बुलाया मनसुख नें – अर्जुन ! आओ ।
वो बालक ………फ़टे चीथड़े पहनें हुआ था ………..दुर्बल देह उसका ……पर कन्हैया को देखते ही वो तो हिलकियों से रो पड़ा ………दौड़ पड़ा और ………..वो तो चरणों में गिर रहा था ……पर ये दास थोड़े ही बनाता है ………ये तो सबको सखा बनाना ही जानता है ………उठा लिया और अपनें हृदय से लगा लिया …………
वो रोता जा रहा था अर्जुन …..और कहता जा रहा था ……..हिलकियों से कह रहा था ……”मेरे पिता को मार दिया कंस नें ……….मेरे पिता का कोई अपराध नही था………बस ….इतना सुनते ही लाल नेत्र हो गए थे नन्दनन्दन के………..”मैं उस कंस का सब कुछ मिटा दूँगा …..मित्र ! तुम मेरे हो अब…..मेरे ” दीनबन्धु कन्हैया रोष में आगये थे ……….पर आगे आया अब मनसुख …………कहो मेरा उपहार कैसा लगा ? कन्हैया नें अर्जुन को हृदय से लगाये ही कहा ……..बहुत सुन्दर ……..मनसुख ! तुम स्वयं अच्छे सखा हो मेरे.. …तो तुम अच्छा सखा ही दोगे…………मनसुख आनन्दित हो उठा था ।
उस बालक अर्जुन से सब मिले…………अब तो सब प्रसन्नता से भर गए थे ……..बड़े प्रेम से वर्ष गाँठ मनाई गयी थी कन्हैया की आज ।
तात !
वो अर्जुन भी कन्हैया की सखा मण्डली में सम्मिलित हो गया था ।
उद्धव नें विदुर जी को कहा ।


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