श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “प्रेम – रस” – श्रीधाम वृन्दावन !!
भाग 1
तात ! चिन्मय वृन्दावन है ये ……प्रत्येक ऋतु यहाँ का आनन्द प्रदान करनें वाला है …………वर्षा के बाद अब आया है शरद ऋतु ।
यमुना का जल निर्मल हुआ अत्यन्त निर्मल ………वृक्ष ऐसे लग रहे हैं जैसे स्नान करके तैयार हो गए हों ………पृथ्वी ने हरे हरे दूब की मानों चादर ओढ़ ली हो …….कमल खिले हैं उसकी सुगन्ध चारों ओर बह रही है……..आपको पता है तात ! स्वयं कमला ( लक्ष्मी ) नें आकर वृन्दावन में कमल उगाये हैं ……….और वहाँ वहाँ उगाये हैं जहाँ से उनके पति श्रीकृष्ण चन्द्र गुजरेंगे …….आहा !
वायु सुरभित बह रही है …………..
ये तो हुयी वृन्दावन की बात …….अब सुनो इस वृन्दावन में रहनें वाली गोपियों की भाव दशा ! उद्धव नें कहा ।
प्रातः से ही प्रतीक्षा में बैठ जाती हैं अपनें अपनें घरों के द्वार पर …….
कि हमारा कन्हैया अब यहाँ से गौचारण के लिये गुजरेगा ।
तात ! क्या प्रेममयी दृष्टि है इन गोपियों की !…….उद्धव बता रहे हैं ।
इनकी दृष्टि में जड़ और चेतन जैसा कुछ नही है……सब कुछ प्रेममय है ……….सब कुछ भावमय है ……….भाव का ही उल्लास है …..प्रेम का ही विलास है……..यही दृष्टि तो है इन गोपियों की …….प्रेम दृढ़ और गाढ़ है, …….तभी इन गोपियों को पर्वत भी प्रसन्न दिखाई देते हैं ……..यमुना ठहरी हुयी लगती है……….वृक्ष और लताएँ झूमनें लग जाते हैं ….पक्षियों का अद्भुत गान शुरू हो जाता है………मोर का नृत्य सबका मन मोह लेता है……………..
ये ध्यान है तात ! उद्धव नें अपनी बात बीच में रोककर कहा ।
कैसे ? विदुर जी पूछते हैं…….उद्धव मुस्कुराते हुए बोले –
*क्रमशः….


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