श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “प्रेम – रस” – श्रीधाम वृन्दावन !!
भाग 2
प्रातः दर्शन किये गोपियों नें उन गौचारण में जाते हुए कन्हैया के ।
मोर मुकुट धारण किये हुए हैं …….नट के समान भेष है उनका ……..कानों में कनेर के पुष्पों को खोंस लिया है ……..दिव्य बैजयन्ती की माला है………अधरों में बांसुरी है ……….पीताम्बरी फहर रही है ….आहा ! क्या दिव्य रूप माधुरी है ………इसी रूप माधुरी का पान तो अपनें नेत्रों से गोपियों करती रहती हैं ।
क्या प्रेम में पौरुष का कोई स्थान नही है ? विदुर जी नें पूछा ।
तात ! आप नीति वाले हैं……नैतिकता का मापदण्ड लेकर चलते हैं …ये कहते हुए उद्धव हँसे ।
उद्धव ! मेरा प्रश्न है ये…तुम बताओ , क्या प्रेम में पुरुषार्थ नही होता ?
क्यों नही है तात ! प्रेम में ही तो असली पुरुषार्थ है ……….क्या जिससे प्रेम होता है ….उससे मिलनेँ का प्रयास नही होता ? वह प्रयास चाहे लौकिक हो या अलौकिक ……..क्या फ़र्क पड़ता है ?
प्रेम करनें वाले देवताओं को भी मनाते हैं…….और स्वयं भी धूप ताप वर्षा सबका सामना करते हुये……प्रेमी कहीं भी हो उसके पास जाते हैं ।
और अगर जाना असक्य हो ……तो मन तो प्रियतम के पास होता ही है ………..यही ध्यान है । ……….उद्धव नें कहा । .
परिवार में रहते हुए भी पूर्ण गृहस्थी होते हुए भी …….ये गोपियाँ सदैव कन्हैया के ही चिन्तन ध्यान में लगी रहती हैं ………..सदैव !
इनका मन उनके ही पास है ………नही नही …..इनका मन ही कन्हैया बन चुका है ……………ऐसी स्थिति कोई साधारण तो नही है !
ये है प्रेम रस …….जो एक मात्र श्रीधाम वृन्दावन में ही छलक रहा है ।
और फिर कहूँ तात ! सच्चा पुरुषार्थ और अन्तिम – प्रेम ही है ।


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