श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! महान तपस्विनी बाँसुरी !!
भाग 2
श्रीराधारानी अभी भी बाँसों के वृक्ष को अपनें हृदय से लगाई हुयी हैं ।
अरी सखियों ! ये तो कुलटा है बाँसुरी ! हमारी सौत !
चन्द्रावली अपनी सखियों से उन्मादिनी होकर बोल रही है ।
इसका वंश अच्छा कहाँ हैं …..अशुभ माना जाता है इसे तो ……..बादल इसका बाप है …….क्यों की उसी से तो ये बढ़ती है …….और इसकी माँ की करतूत बताऊँ ! पृथ्वी इसकी माँ है ………कितनों को जन्म देती है …..नित्य चराचर को पैदा करती रहती है ………..फिर भी कुँवारी बनी है ………..अरी ! मैं बताती हूँ इसकी कहानी -………चन्द्रावली का अपना प्रेम है ……..प्रेम का कोई एक मापदण्ड कहाँ ?
असुर ले गया था इस पृथ्वी को ……..तब वराह बनकर विष्णु इसे असुर के घर से लेकर आये थे …….ऐसे इसके कितनें पति हैं कोई पता नही ……….।
फिर चन्द्रावली आकाश की ओर देखती है ……….बादलों को देखकर फिर कहना शुरू कर देती है ………..इसका पिता है ये ………..अजी छोडो इसकी बातें ………….चातक कितना प्रेम करता है इन बादलों से …..पर बूँद नही बरसाता ये उसके लिये …….भले ही चातक मर जाये इसकी बला से ।
ऐसे वंश में तो ये बाँसुरी पैदा हुयी है ।
…….”उफ़ ! कलेजा काट देती है” ……चन्द्रावली बांसुरी को सुनकर कानों में हाथ रख रही है क्यों की बाँसुरी फिर बज उठी थी ।
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हा हा हा हा हा …….एकाएक हँस पड़ी फिर चन्द्रावली ………
सखियों ! अपना श्याम सुन्दर ही कौन से अच्छे कुल का है ………पता है – कोई कहता है वासुदेव …..तो कोई नन्दनन्दन कह रहा है ………इसके तो कुल का ही पता नही है ।
पर बाँसुरी पर इसकी इतनी कृपा क्यों ? चन्द्रावली फिर चकित भाव से उन बाँस के झुरमुट को देखती हैं …………फिर श्रीराधारानी पर उनकी दृष्टि रूक जाती है ।
अजीब है ये बाँसुरी ! हँस रही हैं अब श्रीराधारानी ।
तात ! यहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नही है ……सबके हृदयाकाश में श्याम सुन्दर ही छाए हुए हैं ।
अरी ! हमारे लिए तो कुछ प्रसाद छोड़ दे ……….पूरा का पूरा अधरामृत स्वयं ही पीये जा रही है ।
रानी हम अपनें को मानती थीं…..पर आज समझ में आया की रानी नही ….बाँसुरी ! तू तो महारानी है …….हम हैं तेरी दासी ……..पर रानी ! तुझे हम दासियों पर थोड़ी भी दया नही आरही ! कुछ तो छोड़ दे …….जूठन ही छोड़ दे !
धन्य है पर ये बाँसुरी ! फिर श्रीराधारानी का भाव बदला ।
तपस्या बहुत की है इस निगोड़ी बाँसुरी नें …………..
नही तो क्या है इसमें ? बाँस ! उसपर भी सूखी सूखी ………हरी भी होती तो कुछ बात थी ……पर सूखी ….उसपर भी छिद्र ……..छेद ही छेद ………..वो भी सात आठ छेद ……………इतना दोष होनें के बाद भी ऐसा सौभाग्य इसे मिला ……ये बिना तप के सम्भव नही है ।
इसलिये तो मैं कहती हूँ ये महान तपश्विनी है बाँसुरी ।
इसके बाद बाँसुरी बजती रही ……….और ये सब गोपियाँ भाव समुद्र में हिलोरें लेती रहीं थीं ।


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