!! धन्य हैं ये गिरिराज पर्वत – श्रीराधारानी नें कहा !!
भाग 2
इसके ऊपर श्याम सुन्दर चढ़ते हैं ……..ये कहते हुए श्रीराधारानी गिरिराज को प्रणाम करती हैं ।
इनको तो एक श्याम सुन्दर के परम भक्त विंध्याचल से लाये थे ।
गोलोक से उतरे थे ये ………..पर पर्वतराज विंध्य के पुत्र के रूप में ।
दक्षिण में एक महात्मा रहते थे……..सिद्ध थे योगी थे ……”दक्षिण में इस गोवर्धन पर्वत को ले जाया जाए …जब काशीपुरी की यात्रा मर आये थे तब इनके मन में ये भाव जागा । इस भाव को उन्होंने गोवर्धन पर्वत के पिता विंध्य पर्वत राज से व्यक्त किया …..और उनसे माँगा ।
अपनें पुत्र को कैसे दें दें विंध्य ? वो मना करनें वाले थे ….पर गोवर्धन नें कहा …….पिता जी ! माँगनें वाले को कभी मना नही किया जाता ……….आप पुत्र मोह त्यागें और मुझे दें दें ।
पर गोवर्धन नें उन ऋषि से एक वचन लिया ………मैं जाऊँगा …पर आपनें मुझे जहाँ रखा वहाँ से मैं आगे नही बढूंगा .।
ये बात स्वीकार की उन ऋषि नें …………और लेकर चल दिए ।
यहीं पर आकर गोवर्धन नें अपना भार बढ़ा लिया था……ऋषि नें उन्हें नीचे रखा……..किन्तु कुछ समय बाद जब उन्होंने उठाया गोवर्धन को …..तब गोवर्धन उठे नही ……”अब मैं यहीं रहूँगा……मैने आपसे वचन भी तो लिया था”……..गोवर्धन नें नम्रता पूर्वक कहा ।
दिव्य दृष्टि सम्पन्न थे वो ऋषि…………. समझ गए कि मेरे इष्ट श्याम सुन्दर इसी स्थल पर अवतरित होकर लीला करेंगे ……और उनकी लीला का ये दिव्य उपकरण हैं गोवर्धन ।
श्रीराधारानी कहती हैं…….उन ऋषि नें भी यहीं रहकर तपस्या की है ।
आहा ! देखो ! मोर नृत्य कर रहे हैं इस गोवर्धन पर्वत के ऊपर ।
स्वामिनी जू ! अब शीघ्र चलो …..गोष्ठ में पहुँच गए श्याम सुन्दर ।
ललिता सखी नें फिर श्रीजी को भावसिंधु से निकाला …..इतना सुनते ही तेज चाल से चलनें लगी श्रीजी…….उनके पीछे सहस्त्रों सखियाँ थीं ।
श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! धन्य हैं ये गिरिराज पर्वत – श्रीराधारानी नें कहा !!
भाग 2
इसके ऊपर श्याम सुन्दर चढ़ते हैं ……..ये कहते हुए श्रीराधारानी गिरिराज को प्रणाम करती हैं ।
इनको तो एक श्याम सुन्दर के परम भक्त विंध्याचल से लाये थे ।
गोलोक से उतरे थे ये ………..पर पर्वतराज विंध्य के पुत्र के रूप में ।
दक्षिण में एक महात्मा रहते थे……..सिद्ध थे योगी थे ……”दक्षिण में इस गोवर्धन पर्वत को ले जाया जाए …जब काशीपुरी की यात्रा मर आये थे तब इनके मन में ये भाव जागा । इस भाव को उन्होंने गोवर्धन पर्वत के पिता विंध्य पर्वत राज से व्यक्त किया …..और उनसे माँगा ।
अपनें पुत्र को कैसे दें दें विंध्य ? वो मना करनें वाले थे ….पर गोवर्धन नें कहा …….पिता जी ! माँगनें वाले को कभी मना नही किया जाता ……….आप पुत्र मोह त्यागें और मुझे दें दें ।
पर गोवर्धन नें उन ऋषि से एक वचन लिया ………मैं जाऊँगा …पर आपनें मुझे जहाँ रखा वहाँ से मैं आगे नही बढूंगा .।
ये बात स्वीकार की उन ऋषि नें …………और लेकर चल दिए ।
यहीं पर आकर गोवर्धन नें अपना भार बढ़ा लिया था……ऋषि नें उन्हें नीचे रखा……..किन्तु कुछ समय बाद जब उन्होंने उठाया गोवर्धन को …..तब गोवर्धन उठे नही ……”अब मैं यहीं रहूँगा……मैने आपसे वचन भी तो लिया था”……..गोवर्धन नें नम्रता पूर्वक कहा ।
दिव्य दृष्टि सम्पन्न थे वो ऋषि…………. समझ गए कि मेरे इष्ट श्याम सुन्दर इसी स्थल पर अवतरित होकर लीला करेंगे ……और उनकी लीला का ये दिव्य उपकरण हैं गोवर्धन ।
श्रीराधारानी कहती हैं…….उन ऋषि नें भी यहीं रहकर तपस्या की है ।
आहा ! देखो ! मोर नृत्य कर रहे हैं इस गोवर्धन पर्वत के ऊपर ।
स्वामिनी जू ! अब शीघ्र चलो …..गोष्ठ में पहुँच गए श्याम सुन्दर ।
ललिता सखी नें फिर श्रीजी को भावसिंधु से निकाला …..इतना सुनते ही तेज चाल से चलनें लगी श्रीजी…….उनके पीछे सहस्त्रों सखियाँ थीं ।


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