श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! बृज गोपियों का अनुष्ठान !!
भाग 1
अनुष्ठान ? विदुर जी चौंकें ।
उद्धव ! प्रेमी भला व्रत अनुष्ठान में क्यों लगनें लगा ?
उसे इन नियमों में बन्धनें की आवश्यकता क्या ?
राग प्रगाढ़ है …..प्रियतम के प्रति अनुराग दृढ है ……..फिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी व्रत अनुष्ठान की ?
यमुना के किनारे बैठे श्रीकृष्ण लीला विदुर जी को सुना रहे उद्धव नें जब कहा …….गोपियों नें मार्गशीर्ष मास में कात्यायनी देवी का अनुष्ठान किया था ………ये सुनकर विदुर जी नें आश्चर्यचकित होकर पूछा ।
क्यों ? प्रेमी क्यों पड़े व्रत अनुष्ठान में ?
तात !
उद्धव हँसे ।
आपको क्या लगता है……..प्रियतम को पानें की जो आग प्रेमी के मन में धधक रही होती है ……वो आपको बैठे रहनें देगी ?
नहीं ! वो आपको दौडाती है ………वो आग आपको बेचैन कर देती है ….कैसे मिलेगा ? कहाँ मिलेगा ? और जैसे भी मिले …..गण्डा ताबीज़ जो बाँधना हो वो प्रेमी बाँधता है……चाहे गंगा में यमुना में हजारों बार डुबकी लगानी पड़े वो लगाता है …….कोई झूठ में भी कह दे ऐसा करो ….तुम्हे प्रिय मिलेगा …….वो करेगा ………तर्क का स्थान कहाँ है वहाँ ?
बुद्धि तो कबकी जबाब दे चुकी है…….बुद्धि नें तो कब का साथ छोड़ दिया है उस प्रेमी का …..हृदय नें अपना आधिपत्य जमा लिया है ।
तात !
उद्धव कह रहे हैं – प्रियतम को पानें के लिये चाहे कुछ भी करना पड़े प्रेमी करता है ….उसके लिए नियम मुख्य नही है …….उसके लिए प्रियतम मुख्य है ………..नियम में रहकर प्रेमी मिलता हो तो वो नियमों में रहेगा ….अगर नियम तोड़ने से वो मिलता है ……तो नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुये वो चलता है …………ये प्रेम है तात !
भगवती कात्यायनी की उपासना करो ……उनका व्रत करो ….अनुष्ठान करो …….प्रातः काल ही उठकर यमुना स्नान करके ……बालुका में ही भगवती की मूर्ति बनाओ…….और मन्त्र का जाप करो ।
एक ऋषि मिले थे मार्ग में……… उनसे गोपियों नें श्रीकृष्ण प्राप्ति की बात पूछी….तब हँसते हुए ऋषि नें ये उपाय बता दिया था ।
मार्गशीर्ष का महीना अतिउत्तम है ………ये भी कह दिया ।
गोपियों नें अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया था ……ब्रह्ममुहूर्त से पहले ही चली जाती थीं यमुना स्नान करनें के लिये ये गोपियाँ ……….उस समय कोई होता नही था आस पास ……खूब स्नान करतीं ……..खेलतीं …श्रीकृष्ण की चर्चा करते हुए उन्मत्त रहतीं………..नग्न स्नान था उनका ये …….कोई वस्त्र नही होते थे उनके देह में ………उन्मुक्त भाव होता था उस समय उन गोपियों को ।
फिर बाहर आतीं…….वस्त्र धारण करतीं………
सब मिलकर बालुका में ही कात्यायनी देवी की मूर्ति बनातीं …….हाथ जोड़तीं ………..पुष्प चढ़ातीं ………फिर आँखें बन्दकर के मन्त्र को बुदबुदातीं ….ऋषि नें क्या मन्त्र दिया था …..वो बेचारी भूल गयीं …..विनियोग भूल गयीं …….न्यास , करन्यास, अंगन्यास सब भूल गयीं ………..अब तो वो अपना ही मन्त्र बुदबुदा रही हैं ………..
उफ़ ! तात ! सुनोगे इन बृज गोपियों का वो मन्त्र !
उद्धव बताते हैं – “हे कात्यायनी देवी ! नन्द गोप का लाला हमें पति के रूप में मिले” , सब यहीं कहतीं ……….कितनी भोली प्रार्थना है ना! कितनी अबोध प्रार्थना !
घण्टों तक देवी को मनातीं….भगवती के चरणों में अपनें माथे को रखकर रोतीं ………गिड़गिड़ातीं ………नन्द गोप का सुत चाहिए इन्हें !
उद्धव हँसे ।


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