श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! अनुष्ठान पूर्ण हुआ – “चीरहरण प्रसंग” !!
भाग 2
ये ? ये तो पुष्प हैं मेरे कदम्ब वृक्ष के …….रसिक शेखर मुस्कुराये ।
इतनें बड़े बड़े पुष्प ? गोपियाँ एक दूसरे को देखकर हँसी ।
और क्या ! मेरो जे कदम्ब को वृक्ष दुनिया ते निरालो है ….जामें ऐसे हीं पुष्प लगें । रसिक शिरोमणि मुस्कुरा रहे हैं ये कहते हुए ।
अच्छा ! विनोद मत करो ……..हमारे वस्त्र हमें दे दो ।
एक गोपी नें गम्भीर होकर कहा ।
आओ ले जाओ ! कन्हैया फिर मुस्कुराये ।
कैसे आएं ? एक दूसरी को देखती लजाते हुये बोलीं ।
क्यों ? जैसे पहले नहा रही थीं ……जैसे पहले गयीं थीं जल में ऐसे ही निकल कर आजाओ ..और वस्त्र ले जाओ….सहजता से बोले जा रहे हैं कन्हाई ।
न ……नही आसकतीं ! सखियों नें स्पष्ट कहा ।
पहले कोई नही था यहाँ ! इसलिये हम नहा रही थीं ।
एक भोली सी गोपी , उसनें श्याम सुन्दर को कहा ।
कोई नही था ? कैसे कोई नही था ? कन्हाई आकाश को देखते हुए बोले – क्या ये आकाश नही था ? फिर यमुना की ओर देखते हुए बोले ……….क्या ये यमुना नही थी …….और – अपनें नयनों को बन्दकर के कन्हाई बोले ……आहा ! क्या ये हवा तुम्हे छू कर गुजर नही रही थी ?
तभी एक सखी नें नयनों के कटाक्ष चलते हुए कहा – पर तुम नही थे ना !
मैं ? गम्भीर हो गए श्याम , मैं कहाँ नही हूँ ……….क्या मैं ही यमुना में नही बह रहा ? सखियों ! क्या मैं ही हवा के रूप में तुम्हे नही छू रहा ………क्या मैं ही आकाश की शून्यता में दिखाई नही दे रहा ?
मैं कहाँ नही हूँ ………..मैं सर्वत्र हूँ …….समस्त में हूँ ।
रसिक शेखर आज अद्भुत रूप में आगये थे ।
सब कुछ अब मानों ठहर सा गया ………….प्रेम की लहरें चलनें लगी …….श्याम सुन्दर मुस्कुरानें लगे ……..गोपियाँ देहातीत होनें लगीं ।
जब यहीं हैं हमारे तो लज्जा क्या ? शील, मर्यादा, लज्जा अब इन सबके लिये स्थान बचा ही कहाँ है ! अब तो बस रोम रोम में छाने लगा है प्रियतम …………..गोपियाँ बाहर आनें लगीं …………कन्हैया देख रहे हैं ………….आवरण भंग किया है वृत्तीयों का ………..कुछ छुपाव अब शेष नही था ………..प्रियतम ही जब घूँघट उठाये तो ये परम सौभाग्य है उस प्रेयसी का ………….दुर्भाग्य तो वह होता जब ज्ञानियों की तरह स्वयं ही घुँघट उठाना पड़ता ।
रुको ! कन्हैया कूदे वृक्ष से ………..
सब गोपियाँ अपनें अपनें हाथों को ऊपर उठाकर ……बोलो –
हे श्याम सुन्दर हम सब तुम्हारी ही हैं ……….तुम्ह जो कहोगे हम वही करेंगी ……….आहा ! तात ! ये प्रेम की अंतिम स्थिति है ……जहाँ प्रेमी पूर्णरूप से आवरण रहित हो जाता है ……….बस वो है और मैं !
नही नही …”.मैं” अब है ही नही ……बस तू ही तू है ।
वस्त्र दे दिया कन्हैया नें……आलिंगन किया प्रगाढ़ अपनी गोपियों को ।
हमारे साथ महारास करो प्यारे ! पुकार उठीं गोपियाँ ।
बस मुस्कुराये श्याम सुन्दर ।
इन सबका अनुष्ठान पूर्ण हुआ …….नही नही पूर्णतम ।
भगवती कात्यायनी भी इन महाभाग्यशाली गोपियों को प्रणाम कर रही थीं ।


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