श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण की क्रान्ति – “गोवर्धन पूजन” !!
भाग 3
मेरे मात्र हाँ कह देनें से क्या होता है लाल ! समस्त बृजवासी मानें …..फिर सबसे पहले तो महर्षि शाण्डिल्य को माननी होगी तेरी बात ….वो समर्थन करेंगे तब जाकर गोर्वधन पूजन हो सकेगा ।
बृजराज बाबा नें अपनें पुत्र कन्हैया को समझाया था ।
तब देरी क्यों ? बुलाया जाए समस्त बृज के समाज को ……..और महर्षि शाण्डिल्य को भी ………गम्भीर होकर श्रीकृष्ण बोल रहे थे ।
“लो ! महर्षि पधार गए”……..बृजराज उठकर खड़े हो गए …….और बड़ी विनम्रता पूर्वक नमन किया था महर्षि शाण्डिल्य के चरणों में……और आसन दिया जिसमें महर्षि शाण्डिल्य विराजे ।
हे गुरुदेव ! मेरा पुत्र कुछ कहना चाहता है …………मैं तो इसका समर्थन नही करता…..क्यों की कर्मकाण्ड की रीति से इन्द्र पूजन हम कृषकों के लिये आवश्यक है …..तभी तो वर्षा होगी और अन्नों की उपज बढ़ेगी ।
बृजराज नें महर्षि शाण्डिल्य के सामनें अपनी बात रखी ।
हे कृष्ण ! तुम क्या कह रहे हो ? क्या ये बृजवासी इन्द्रयाग न करें ?
महर्षि नें श्रीकृष्ण का मत जानना चाहा ।
हाथ जोड़कर महर्षि को नमन करते हुए श्रीकृष्ण बोले थे –
भक्ति में दो ही पूजा चलती हैं महर्षि ! एक भगवान की या एक भक्त की …….इसके सिवा किसी की भी पूजा मान्य नही है ……….
श्रीकृष्ण गम्भीर विवेचना में उतर गए थे ।
गुरुदेव ! सकाम पूजा की अपेक्षा निष्काम को समस्त शास्त्रों नें और शास्त्रकारों नें श्रेष्ठ माना है …………देवताओं की पूजा सकाम ही होती है …….इसलिये इन देवों की पूजा से श्रेष्ठ भगवान की पूजा मानी जायेगी ….और भगवान से भी ज्यादा श्रेष्ठ उनके प्रिय भक्तों की पूजा है …..क्यों की भक्तों का जीवन सदैव दूसरों की सेवा में ही बीतता है ।
बड़े ध्यान से और मुस्कुराकर महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण की बातें सुन रहे थे और गदगद् हो रहे थे ।
हे गुरुदेव ! देवताओं में भी अहंकार उत्पन्न होता है ………..अहंकार ही नही देवताओं में तो आसुरी भाव का भी प्रकट होते देखा गया है ।
फिर आप तो सब जानते ही हैं ……आसुर भावापन्न देवता लोग अपनें ही पुजारी और उपासक का अहित करनें में भी देरी नही करते …….क्या महर्षि ! मैं सत्य नही कह रहा ? श्रीकृष्ण नें महर्षि से ही पूछा ।
मुस्कुराते हुये हाँ में सिर हिलाया महर्षि शाण्डिल्य नें ।
हे गुरुदेव ! पर भक्त कभी रुष्ट नही होते ……….आसुर भाव का उनमें उदय स्वप्न में भी नही होता …..दूसरे का हित …….वे सदैव दूसरे के हित के बारे में ही सोचते रहते हैं ………….करते रहते हैं ।
आप देखिये ना ! हमारे गोवर्धन पर्वत को ………..सदैव इन्होनें हमें दिया ही दिया है …….कभी लिया नही है……..इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस बार गोवर्धन नाथ की पूजा हो ……..मेरी कोई बात अगर आपको अनुचित लगी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ …….इसका कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए थे ।
महर्षि नें प्रसन्नमुद्रा में कहा – समस्त बृजवासियों को बुलाओ …….हे बृजराज ! श्रीकृष्ण की बातें सांख्योक्त हैं ……मैं तो समर्थन करता हूँ …..पर ये तुम्हारी प्राचीन परम्परा है…….समाज का भी समर्थन मिले इसलिये सबको बुलाओ …….समस्त बृजवासियों को ….और वो क्या कहते हैं उनकी भी सुनो !
जो आज्ञा गुरुदेव ! बृजराज नें महर्षि को प्रणाम किया …….और आज्ञा दी कि – आज सन्ध्या से पूर्व समस्त बृजवासी मेरे आँगन में एकत्रित हों……आवश्यक वार्ता करनी है ।
बृजराज की आज्ञा कुछ ही समय में पूरे बृजमण्डल में फ़ैल गयी थी ।
झुण्ड के झुण्ड सब आनें लगे नन्द के उस विशाल आँगन में ।
*क्रमशः…
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