श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! इन्द्र का कोप – “गोवर्धन पूजन” !!
भाग 1
आश्चर्य होता है तात ! देवराज इन्द्र, सर्वेश्वर से कुपित हो गए !
सर्वेश्वर के स्वजनों से कुपित हो गए !
तुम “देवराज” भी हो तो उनके कारण, तुम समस्त देवताओं के राजा भी हो तो सर्वेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जू के कारण ……तुम्हारा स्वर्ग भी है तो उन्हीं की कृपा से ……..हाँ ! तुम कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता हो …….अब “देवराज” तो तुम उनके लिये हो जो कर्म के आश्रित हैं ……..करते हैं और करनें का फल भोगते हैं …….पर जो सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के अपनें जन हैं ………जो कर्म के आश्रित नही अपनें श्रीकृष्ण के आश्रित हैं ……..क्या तुम उनका बाल भी बाँका कर सकते हो ? उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला सुनाते हुए कहते हैं –
तात ! कर्म नही करते बृजवासी ऐसा नही है …करते हैं …..पर उसका फल श्रीकृष्ण ही हैं ………फल अपनें लिये नही है …….तो फिर कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता इन्द्र का यहाँ क्या काम ?
अज्ञानता इन्द्र की है यहाँ…..अहंकार इन्द्र का दिखाई देता है यहाँ ।
पर इतना तो विचार करो…….तुम एक देवता के राजा मात्र हो …….स्वर्ग के अधिपति ही तो हो ……..पर हमारे गोलोक बिहारी कन्हैया की एक पलक गिरती है तो तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र जन्मते हैं और मर भी जाते हैं ।
ओह ! इन्द्र को क्रोधोन्माद हो उठा …….सुर होंने के बाद भी आसुरी भाव नें इन्द्र को जकड़ लिया……..पर इन सबसे अपनें नन्हे कन्हैया को क्या फ़र्क पड़नें वाला था……..इसे आनन्द आता है ……इसका आहार ही है – अहंकार …….ये अहंकार का ही भोजन करता है ।
क्या ! मेरी पूजा अर्चना त्याग दी उन अहीरों नें ?
देवराज इन्द्र एकाएक क्रोधित हो उठे थे अपनी अमरापुरी में ।
नारायण नारायण !
इतना ही नही……….तुम्हारा जो इन्द्र ध्वज था उसे भी उखाड़ कर फेंक दिया है उन बृजवासियों नें ।
देवर्षि नारद जी आँखें मटका मटका कर इन्द्र को बता रहे थे ।
उन गोपों नें आपकी घोर अवज्ञा की है देवराज ! आपका आव्हान तक नही किया गया इस वर्ष………
*क्रमशः …


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