श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! गोवर्धनधारी साँवरे !!
भाग 2
तभी –
काले काले मेघ आकाश में छा गए……..ये अचानक हुआ था ।
कार्तिक मास में इस तरह बादलों का छा जाना ……..किसी के समझ में नही आरहा था ……..भयानक मेघों कि गर्जना अब शुरू हो गयी थी ……..ग्वाल गोपी सब डर रहे थे ।
वर्षा शुरू हो गयी………..पर ये वर्षा कुछ अलग थी …….इनकी बुँदे प्रलयंकारी थे…….इतनें मोटे बून्द नभ से गिरते कभी किसी नें देखे नही थे…….अब तो हवा भी प्रचण्ड वेग से चल पड़ी थी ।
कुछ ही देर में चारों ओर जल ही जल दिखाई देनें लगा था ………
गौएँ भींग रही थीं ……….गोपियाँ इधर उधर वृक्षों के नीचे जहाँ जगह मिली वहीं खड़ी हो गयी थीं …….पर अब शीत के कारण वो सब कांपनें लगीं ……….जिनके बालक गोद में थे …….वो तो बैठ गयीं और अपनें बालक को छुपा कर वर्षा के जल से बचानें का प्रयास कर रही थीं ……पर वर्षा का रूप इतना रौद्र था कि कौन बच सकता था ।
गौएँ गोप गोपी अब शीत के कारण थर थर कांपनें लगे थे …………..उनको लगा उनके घर तो आज गिर ही जायेंगे ……जल मग्न होंने वाले हैं सब ………………..
कृष्ण ! कृष्ण ! कन्हैया ! भैया कान्हा ! लाला ! हमें बचा !
ये पुकार अब चारों ओर से चल पड़ी थी ………..सब श्रीकृष्ण को पुकार रहे थे……..हमें बचा लो भैया ! हमें बचा कन्हैया !
इस जल प्रलय से तो बृज मण्डल पूरा ही डूब जाएगा ।
आहा ! जैसे ही ये पुकार सुनी श्याम सुन्दर नें …………..
छपाक छपाक छपाक …… वे अरुण चारु चरण जल में दौड़ पड़े थे ।
मनसुख श्रीदामा मधुमंगल तोक इत्यादि ये सब अपनें कन्हैया के पीछे भागे ……कहाँ जाना है ? कहाँ जा रहे हो ?
कन्हैया कुछ नही बोल रहे ……..बस – नंगे चरण गोवर्धन कि ओर बढ़ रहे थे उनके ……….लाल मुख मण्डल हो गया था उनका ………उनसे देखी नही गयी थी अपनें बृजवासियों कि यह दशा ……..वर्षा और बढ़ गयी थी ………बीच बीच में मेघ कि भीषण गर्जना भी हो ही रही थी …….घना अन्धकार छा गया था पूरे बृजमण्डल में ।
गोवर्धन पर्वत के पास आकर थोडा रुके कन्हैया ..वो पूरे भींग गए थे उनकी पीली पीताम्बरी भींग के उनके देह से चिपक गयी थी मोर मुकुट भींग गया था……मनसुख इत्यादि सखा भी दौड़ते हुए पीछे आगये …….कन्हैया ! क्या करना है ?
“यहाँ एक गुफा देखी थी मैने”……..बड़ी जल्दी में थे कन्हैया……इधर उधर देख रहे थे…..तभी……”ये रही गुफा” ……
ये कहते हुए उस गुफा में कन्हैया प्रवेश कर गए……आजाओ ! तुम सब आजाओ ……भीतर से कन्हैया जोर से बोले……..पर ग्वाल बाल तो गुफा में आचुके थे……..ये लोग अकेले कन्हैया को कैसे छोड़ देते ।
देखो ! यहाँ ….यहाँ जल नही आरहा ………..कन्हैया नें सब सखाओं से कहा ………फिर कुछ सोच कर बोले ………अगर इस गुफा से गोवर्धन पर्वत को उठाया जाय …………और सब इस गोवर्धन पर्वत के नीचे आजायें तो हम सब बच जायेगे ……………
पहले तो मनसुख इत्यादि नें पर्वत को उठाना चाहा …………पर ऐसे कैसे उठ जाता ये सात कोस का विशाल पर्वत ………..
कन्हैया नें कहा …..रुको …….मैं कोशिश करता हूँ तुम सब भी मेरी सहायता करना ………मनसुखादि सखा बोले …….ठीक है …….हम अपनी लाठी लगा देंगे ।
देखते ही देखते ………….कन्हैया गोवर्धन पर्वत को उठानें लगे ……..और अहो ! गोवर्धन पर्वत उठ रहा था ।
मनसुख चिल्लाया ……..कन्हैया ! ये तो उठ गया पर्वत…….ओह ! ……अब पर्वत के मध्य में धीरे धीरे आगये थे कन्हैया ।
और अपनी सबसे छोटी ऊँगली कनिष्ठिका लगा दी थी ।
पर्वत के उठते ही वहाँ तो एक विशाल कक्ष सा बन गया था ………..हजारों हजार लोग वहाँ आसकते थे …….और वर्षा कि एक बून्द भी वहाँ नही आरही थी ।
मैं सब को बुलाकर लाऊँ ? मनसुख बाहर जानें लगा………
पर बाहर भीषण वर्षा थी…….और घना अन्धकार भी था ।
कन्हैया नें रोक दिया मनसुख को……और गिरवरधारी नें दूसरे हाथ से बाँसुरी निकाल , एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाये हुए…..और दूसरे हाथ, बाम हस्त से बाँसुरी को अधर में रख कर फूँक मार दी….
गूँजी बाँसुरी कि ध्वनि पूरे बृजमण्डल में………गौओं नें भागना शुरू किया उसी दिशा कि ओर जिधर से बाँसुरी कि ध्वनि आरही थी …….ग्वाल बाल गोपी बृजरानी बृजराज सब उसी ओर चल पड़े थे ।
पर आश्चर्य ये हुआ तात ! कि गोवर्धन अब मात्र सात कोस के नही पूरे बृजमण्डल में फैल रहे थे…….जो ग्वाल गोपी दुःखी थे उनके हृदय में अब आनन्द भर दिया था कन्हैया नें अपनी बाँसुरी से ।
और जैसे ही भींगते हुए गोवर्धन में आये ………ये क्या !
अद्भुत झाँकी थी – गिरिराज धरण की ।
छोटी ऊँगली में गोवर्धन पर्वत थे कन्हैया के , दूसरे हाथ से बाँसुरी अधर में धर कर बजा रहे थे ………..त्रिभंगी छटा थी इनकी …………..
गोप गोपी सब मन्त्रमुग्ध हो नाचनें लगे ……….इन्हें क्या चाहिए था यही तो ……अपना श्याम ! अपना “गोवर्धनधारी साँवरा” ।
कितना प्यारा लग रहा था ये आज ।


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