श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! इन्द्र को हुआ अपराध बोध – “गोवर्धन प्रसंग” !!
भाग 1
बृजमण्डल डूब चुका होगा ? इन्द्र नें अपनें सेवकों से पूछा ।
क्यों की आज पाँच दिन हो गए थे……प्रलयंकारी वर्षा पाँच दिन से चल ही रही थी……..आज इन्द्र नें पूछ लिया …..और साथ में ये भी कहा कि …..कोई नही बचना चाहिए….और वो लड़का कृष्ण तो बिल्कुल नही ।
देव ! बृज मण्डल में धूल उड़ रही है ! इन्द्र के सेवकों नें सिर झुकाकर उत्तर दिया ।
क्या ! इन्द्र स्तब्ध रह गया ……क्या ! और जल बरसाओ ……..हमारे पास जल की कमी कहाँ है…….अन्य मेघों को भी भेज दो बृजमण्डल में………इन्द्र सचिन्त हो बोला – पर इतना जल गया कहाँ ? प्रलयंकारी जल कम नही होता ……..इतना जल कहाँ गिरा ?
हे देव ! गोवर्धन पर्वत के ऊपर सुदर्शन चक्र हैं ……..वो हमारे द्वारा बरसाए गए जल को वाष्प बनाकर ऊपर ही फेंक रहे हैं ………..
तो ठीक है …………उसी वाष्प को जल बनाकर फिर बरसाओ बृज में ……….डुबो दो बृज को …………जल मग्न हो बृज ……..बृजवासी त्राहि त्राहि कर उठें ………जाओ ! इन्द्र नें अपनें सेवकों को फिर आदेश दिया …………सेवक आज्ञा पालन करनें के लिये चल पड़े थे ।
यहाँ तो आनन्द का वातावरण है……..गोवर्धन पर्वत के नीचे समस्त बृजवासी आनन्दित हैं …….और आनन्दित क्यों न हों …..सामनें उनका गिरधारी जो खड़ा था…..मुस्कुरा रहा था…….इन बृजवासियों का प्राण यही तो है ।
गीत गा रही हैं सब गोपियाँ………ग्वाले नाच रहे हैं ………..बूढी बूढी गोपियों के हाथों में पूजा की थाली है ………जो गोवर्धन पूजा के लिये लाईं थीं ………और वापस जाते समय लेकर जा रही थीं ……वर्षा बीच में ही हो गयी …..तो ये गोवर्धन लौट आईँ ।
आज इनका ध्यान अपनी पूजा की थाली पर गया ………..अक्षत , रोरी, कुमकुम दही ये सब था उसमें ………….हे तात विदुर जी ! उन बूढी गोपियों नें अक्षत रोरी दही इनको मिला , कन्हैया के ऊपर डालनें लगीं…….हमारे लिये तो तू ही देवराज इन्द्र है …….हे कन्हैया ! हमारे लिये तो तू ही गोवर्धन है………बस ऐसे ही हमारी रक्षा करता रहियो ………..लाल ! तू चिरजीवी रहियो ! ये कहते हुए सब गोपियों के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे भाव के……सब गदगद हो उठी थीं ।
यशोदा मैया को चिन्ता है अपनें लाला की …….बारबार वो ग्वालों को भेजती हैं ……अरे ! उसके हाथ दूख रहे होंगें ……..ऐसे ही दबा दो ….जाओ ……….भूखा है मेरा लाला ………ये खिला दो उसे ।
कन्हैया बस मुस्कुरा रहे हैं…..और सबके प्रेम को स्वीकार कर रहे हैं ।
तात विदुर जी ! ये “गिरिराज धरण” की झाँकी अद्भुत है इसे अपनें हृदय में बसा कर रखो…………आहा ! कनिष्ठिका ऊँगली के नख पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया है ….और बाम हाथ से बाँसुरी बजा रहे हैं ……….उद्धव कहते हैं …….तात ! माधुर्य में ही ऐश्वर्य का ऐसा अद्भुत रूप आपको और प्रसंगों में दिखाई नही देगा ……..क्यों की कन्हैया चाहते तो चतुर्भुज रूप धारण करके भी गोवर्धन उठा सकते थे ….पर नही उठाया ……..अगर चार भुजा धारण कर लेते …..तो माधुर्य प्रकट नही होता ……बृजवासी भगवान मनानें लग जाते ……और जहाँ भगवत्ता आगयी वहाँ प्रेम की मधुरिमा रह नही पाती………आहा !
उद्धव कुछ देर के लिये नेत्र बन्द कर लेते हैं ।
क्रमशः….


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