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August 2, 2025 1:34 am

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! गोविन्द का दिव्य अभिषेक !!-भाग 1 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! गोविन्द का दिव्य अभिषेक !!-भाग 1 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्

!! गोविन्द का दिव्य अभिषेक !!

भाग 1

मैं सोचता रहता था कि वेद मुझ इन्द्र की स्तुति करते हैं …….पर मैं कितनी गलत फहमी में था ……….मेरी नही श्रीकृष्ण को ही इन्द्र कहकर वेदों नें स्तुति की है ………..ये रहस्य मुझे आज समझ में आया ।

इन्द्र नें बज्र त्याग दिया था ………….ऐहरावत हाथी को भी त्याग कर इन्द्र अकेले खड़े थे ………..कहाँ जाऊँ अब ? कुछ समझ में नही आरहा उनके ……….मैं देवराज ? कितना हास्यास्पद लग रहा है ये कहना कि – मैं देवराज हूँ । इन्द्र क्रिया शक्ति का देवता है …….हाथ है क्रिया शक्ति का केंद्र ………पर मेरी इस बात को नन्दनन्दन नें झुठला दिया ………..तभी तो अपनें हाथ में गोवर्धन को धारण करके मुझे ही ये सन्देश दिया …….कि सच में तुम नही ……..मैं ही हूँ क्रिया शक्ति का अधिदैव – इन्द्र ।

ओह ! मेरे ऊपर ये कृपा हुयी है सर्वेश्वर की ……….नही तो मैं अपनें आपको ही सब कुछ मान बैठा था ………..वेद मेरी ही स्तुति करते हैं कहकर इतराता था ……..पर सही में सब के ईश्वर तो श्रीकृष्ण ही हैं ….इन्द्र कुबेर वरुण अग्नि वायु – सबकुछ वहीं हैं ………….उन्हीं के कारण हैं …………वेद में जो भी लिखा है इन्द्र नामसे वो सब कर्मेन्द्रिय के अधिदेवता भी तो यही हैं ………….ये प्रत्यक्ष प्रमाण भी दे ही दिया स्वयं सर्वेश्वर श्रीकृष्ण नें ………….इन्द्र की घबराहट अब बढ़ती ही जा रही है ……………मैं कहाँ जाऊँ ? स्वर्ग जाऊँ ? पर मेरे देवता मेरी हँसी उड़ाएंगे ………..मैं अब कुछ नही हूँ उनके सामनें ।

कुछ देर विचार करनें के बाद इन्द्र फिर डर से कांपनें लगे ………कहीं मुझे कह दिया – जाओ इन्द्र ! स्वर्ग खाली करो ।

तब मैं कहाँ जाऊँगा ? पर नन्दनन्दन ऐसा नही कहेंगे ।

कितनी चिन्ता है उन्हें अपनें जन की …………….लोकपाल मैं अपनें को ही मानता था ……पर सही में लोकपाल भी यही श्रीकृष्ण ही हैं ।

मैं क्या ! मैं तो विलासी हूँ ………अपना स्वार्थ ही मुझे दिखाई देता है …………..मेरे स्वार्थ की पूर्ति नही हुयी तो मैं विनाश में भी उतर आता हूँ ……पर ये तो करुणा निधान हैं ………कृपा मूर्ति हैं ।

सात दिनों तक अपनें कोमल करों को कष्ट देते रहे ………ये चाहते तो संकल्प मात्र से मुझे मिटा सकते थे …………पर इन्हें अपनी प्रतिष्ठा की चिन्ता कहाँ थी ……इन्हें तो अपनें जनों से प्यार था ………उनके लिये ही तो ये उद्विग्न हो उठे थे ।

इन्द्र को कुछ नही सूझ रहा क्या करें ? अब कहाँ जाएँ ?

मैं चरण पकड़ कर क्षमा माँगू ? पर वे मुझे क्षमा नही करेंगे ।

इन्द्र अपना सिर पकड़ कर बैठ गया था बीच मार्ग में ही ।

कुछ देर में वो उठा ……..शान्त चित्त से उसनें विचार किया था –

क्यों न मैं विधाता ब्रह्मा जी के पास जाऊँ ?

हाँ वही मुझे कुछ उपाय बताएंगे ……….ऐसा विचार करके इन्द्र ब्रह्मा जी के यहाँ ब्रह्मलोक में पहुँच गया ।

क्रमशः….

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