श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “जब बृजवासी वैकुण्ठ गए” – एक अद्भुत प्रसंग !!
भाग 2
दिव्य लोक है ये वैकुण्ठ लोक ………..वहाँ के वातावरण में ही ‘ॐ नमो नारायणाय”….ये मन्त्र गूँज रहा है……..वैकुण्ठ के द्वार पर चक्र और शंख के विशाल चिन्ह बने हुए हैं ……….चारों और भगवद् पार्षद इधर उधर शान्त भाव से विचरण कर रहे हैं ……..सबकी चार भुजाएँ हैं ………सबके करों में चक्र शंख गदा और कमल है ………..चारों ओर से सुगन्ध प्रकट हो रही है, कमल की सुगन्ध ।
मणि माणिक्य के स्तम्भ हैं……उसमें भी चक्र और शंख के चिन्ह हैं ।
इन श्रीकृष्ण सखाओं की आँखें चुँधियां गयीं……..अरे ! अपनें कन्हैया को लोक है ……बडौ ही दिव्य है !
वे सब सखा तो खड़े होकर वैकुण्ठ का दर्शन कर रहे हैं ……….मन्त्र मुग्ध हैं ।
मनसुख बोला – खड़े रहोगे या आगे भी चलोगे ?
आगे ? श्रीदामा नें मनसुख से कहा ……….आगे कोई हमें टोकेगा तो नही ?
अरे ! हमें टोकेगा कोई ? मनसुख बोला – हमारे सखा का लोक है ……किसकी हिम्मत जो हमें टोक दे ……चलो। ! मनसुख ही आगे लेकर चला सब ग्वालों को ।
द्वार है , ये मुख्य द्वार है वैकुण्ठ का……….श्रीदामा नें कहा ।
हाँ , लग तो ऐसा ही रहा है ……..पर ये मूर्ति कैसे है ?
उद्धव हँसते हुए बोले ………तात ! जय और विजय द्वार पर खड़े थे ….उनको ही ये सब सखा मूर्ति कह रहे हैं ।
मूर्ति नही है ……..सच्चे को आदमी है ……मनसुख बोला था ।
नाँय, मूर्ति है ……….मधुमंगल गया और जय और विजय के नाक में एक सींक डाल दी ……..जय विजय को अजीब लगा………वो शान्त भाव से ही बोले…….”.शान्तम्” ।
मनसुख खुश हो गया……….देखा ! सच्चे को आदमी है ।
अब सब आगे बढ़नें लगे…..कोई किसी से नही बोलता…..अधखुले सबके नयन हैं……क्यों विशुद्ध सात्विकता का घन है इस वैकुण्ठ लोक में ।
सखा कुछ पूछना चाहते हैं पर सब अपनें में शान्त हैं …………कुछ बातें करना चाहते हैं भगवतपार्षदों से ……पर कोई किसी से कुछ नही बोलता ….क्यों की सबके मन की बात सब जानते हैं …….बोलनें की आवश्यकता ही क्या ?
ये कुछ नही बताएंगे ……मैं देखता हूँ ऐसा कहते हुए मनसुख एक मनिखम्भ में चढ़ गया…….कुछ दीखा ? श्रीदामा नें नीचे से पूछा था ।
हाँ …हाँ ….दीखा ……….वहाँ ! फिर एकाएक तालियाँ बजानें लगा मनसुख ………अपना कन्हैया वहीं आराम कर रहा है !
पर इस समय आराम क्यों कर रहा है ?
मनसुख फिर ध्यान से देखनें लगा ।
उसके पांवों को कोई दबा रही है ……….मनसुख हँसा ।
“घरवाली होगी उसकी” …………श्रीदामा नें कहा ।
“लक्ष्मी” नाम है उसका………..मधुमंगल बोला ।
अच्छा ! तो यहाँ लक्ष्मी है ! मनसुख खूब हँसा ।
“शान्तम्”………..कुछ भगवद्पार्षद वहाँ से गुजर रहे थे ……….उन्होंने जब वातावरण में विक्षेप पाया तब बोले ।
मनसुख चुपचाप नीचे उतर आया…………..
बिना कुछ बोले अब सब आगे बढ़ रहे हैं……….
अजीब लोक है………सब गम्भीर हैं यहाँ…….कोई किसी से नही बोलता………..मधुमंगल इतना ही बोला था ।
पर देखते ही देखते ये सब सखा तो अब भगवान नारायण के सामनें खड़े थे ….ये सब एकाएक हो गया था ।
भगवान नारायण ! शान्त ….पूर्ण शान्त ………….अधखुले उनके कमल नयन ………नील वर्ण …………..
प्रणाम करना चाहिये था ……पर ये लोग क्यों प्रणाम करनें लगे भला नारायण भगवान को ……ये तो इनका सखा है ……और सखा को भी भला कोई प्रणाम करता है ?
अरे ! देखो तो सही ! बिल्कुल हमारे कन्हैया जैसा ! मनसुख की आँखें तो फटी की फटी रह गयीं ।
रंग भी वैसा ……..रूप भी वैसा …………
श्रीदामा बोला ……….वही तो है ये ……अपना कन्हैया !
पर इसके चार हाथ क्यों हैं ?
लकड़ी के दो हाथ होंगे ………..ये कहते हुए सब सखा हँसनें लगे ।
“शान्तम्”…………….फिर सब पार्षद बोल उठे ।
माथा पकड़ लिया सब सखाओं नें ………हद्द है ……न कोई बोलता है न बोलनें देता है………..चल लाला ! यमुना किनारे ! मनसुख नें जाकर भगवान नारायण की भुजाएँ पकड़ लीं …………..
यहाँ यमुना नही है ……..विश्वकसेन पार्षद नें बृजवासियों से कहा ।
अच्छा ! यहाँ यमुना नही है ………….फिर कुछ सोचकर मनसुख बोला ………..बंशीवट चल ……तू बाँसुरी बजाना हम सब सुनेगें ।
ये वैकुण्ठ है यहाँ बंशीवट नही है…….पार्षदों नें कहा ।
अब तो भूख लग रही है माखन है या वो भी नही है ?
पार्षदों नें कहा – “नही है” ।
बस ….इसके बाद तो सब सखाओं नें साष्टांग प्रणाम किया और कहा …”चोखो रे लाला तेरो वैकुण्ठ ! हमें तो हमारे वृन्दावन में ही पहुँचा दे”।
जहाँ यमुना नहीं …..जहाँ बाँसुरी नहीं….जहाँ बंशीवट नही …………और तो और जहाँ दो भुजा वाला वो हमारा कन्हैया नहीं………..जो स्वयं गलवैयाँ देकर हमारे साथ साथ चले …………..
नही चाहिये हमें वैकुण्ठ ! हमें तो वृन्दावन में ही पहुँचा दे ।
तात ! देखते ही देखते गरूण आगये और सखा ख़ुशी ख़ुशी उसमें बैठ गए …………और वृन्दावन में !
कन्हैया को देखा तो बोल पड़े सखा……….लाला ! वृन्दावन ही ठीक है …….वैकुण्ठ ठीक नही है……..क्यों की वहाँ माधुर्य नही है ……येश्वर्य की भरमार है ……पर मधुरता नही है ।
उद्धव कहते हैं – तात विदुर जी ! पर इस घटना को बृजवासी भूल गए थे ………या कभी स्मरण भी होता तो सोचते सपना है ……….और हाँ ….सपना भी बुरा सपना………क्यों की वृन्दावन को छोड़कर वैकुण्ठ भी जाना बुरा ही तो है ।


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877