हरे कृष्णा
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कहते है भगवान आदि गुरु शंकराचार्य जी को, केदारनाथ में शिवजी ने अपना हाथ देकर आकाश मार्ग से सशरीर ले लिया था।
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जय श्री राधे राधे जी।
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आदि गुरू शंकराचार्य : —
आदि गुरू शंकराचार्यका जन्म केरल के कालडी़ नामक ग्राम मे हुआ था। वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया। शंकर की रुचि आरम्भ से ही संन्यास की तरफ थी। अल्पायु में ही आग्रह करके माता से संन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज में निकल पडे। । वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का भ्रमण किया।
उन्होंने तत्कालीन भारत मे व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति से देश को आलोकित किया।
सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया।
उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण मे शृंगेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की । ३२ साल की अल्पायु में पवित्र केदार नाथ धाम मे शरीर त्याग दिया। सारे देश मे शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है।
एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘’शंकर’’, जो आगे चलकर ‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य’’ के नाम से विख्यात हुआ।
इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की।
आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु ज्ञानी पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र ज्ञानी नहीं होगा और ज्ञानी पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने ज्ञानी पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें ज्ञानी पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’।।
जय श्री कृष्ण जी।
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