श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! गोपियों का प्रणय कोप – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
हे श्याम ! “वैदेही की तरह हम भी समाना चाहती हैं इस धरती में”
ओह ! कैसा प्रणय था इनका ………..और उस प्रणय पर जब प्रिय के प्रति कोप जाग्रत हुआ ………तब जो प्रेम की वैचित्र्यावस्था हुयी …..वो अवर्णनीय था……..बस रसिक अनुभव कर सकते हैं ।
गिर ही जातीं ये गोपियाँ ……मूर्छित ही हो जातीं ………संज्ञाशून्य तो हो रही थीं ….इनके आँखों के आगे अन्धकार छानें लगा ।
श्यामसुन्दर ! इतनें निर्दयी मत बनो !
ये चन्द्रावली गोपी थी ……जो अपना प्रणय और कोप दोनों प्रकट कर रही थी अपनें प्रियतम के आगे ।
ऐसे वचन तुमनें कैसे कह दिए ……….”चली जाओ” ।
अरे ! हमनें तुम्हारे लिए संसार के सारे बन्धनों को तोड़ दिया है …….हम तोड़कर ही भागीं हैं तुम्हारे पास …….फिर कैसे कह रहे हो …”चली जाओ” ।
अश्रु निरन्तर बहते जा रहे हैं ………हिलकियाँ चल रही हैं ……….वृन्दावन का सम्पूर्ण वातावरण करुण हो चला है ।
सुनो प्रिय ! एक बात सुनो ……….हमारी विनती है ये ……हमें इस तरह मत त्यागो ! ईश्वर भी नही त्यागता अपनें आश्रितों को ……..फिर तुम नन्दनन्दन ! हमें अपना लो ……हमें स्वीकार करो ।
उफ़ ! ऐसा दृश्य था वो …..कि पत्थर भी पिघल जाए…….गोपियाँ सब रो रही थीं, सुबुक रही थीं ………डर भी था कि कहीं वापस भेज दिया श्याम नें तो ! और क्रोध भी आरहा था ….कि “जाओ” कैसे कह रहे हैं …….इनके लिये हमनें अपना सब कुछ छोड़ा और ये कह रहे हैं – “जाओ” ।
प्यारे ! दुराग्रह मत करो ना ! तुमनें जो कहा …….पति की सेवा करना ही धर्म है ………हाँ , ये धर्म तुम्ही जानते हो ………क्यों की तुम धर्मज्ञ हो …..हम तो गँवार हैं ……….पर एक बात पूछती हैं …….क्या तुम सबकी आत्मा नही हो ? बोलो श्याम ! बोलो ! दूसरी गोपी सामनें आयी ……….उसनें भी प्रश्न किया……समस्त प्राणियों की आत्मा तुम – और तुम्हारी सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है ……..क्या नही ?
आहा ! कामदेव नें नभ से जब ये सम्वाद सुना……वो तो नतमस्तक हो गया । ……”परम पुरुष हैं ये……..और ये सब गोपियाँ इन्हीं की आत्मा हैं……अपनी आत्मा के साथ रमण !” आहा ! कामदेव फिर सुननें लगा इन गोपियों की वो प्रेम और कोप से सनी मधुर वाणी ।
हे नन्दनन्दन ! जो विवेकी हैं , जो विद्वान हैं , जो ज्ञानी हैं …….वे ही तुमसे सदा प्रेम करते हैं……. संसार के बन्धन , पति पुत्र भाई , विपत्ति क्लेश सन्ताप के सिवा ये देते ही क्या हैं ? ये सच है ……और विवेकी लोग इस बात को समझते हैं ।
गोपियाँ बोलती जा रही हैं ……………
अतः हे कमल लोचन ! हम पर प्रसन्न होइये ………हमनें युगों से इस समय की प्रतीक्षा की है……आज हमारी प्रतीक्षा पूरी होनें जा रही है तभी आप कह रहे हो…….”जाओ” ।
ना , प्रियतम ! ना !
ये कहते हुए गोपियाँ बैठ गयीं………हे श्याम ! इन चरणों की सेवा निरन्तर लक्ष्मी करती रहतीं हैं……..तुलसी जब चढ़ती है इन चरणों में तब ईर्ष्या लक्ष्मी को भी होती है ……….ये ऐसे चरण हैं …….फिर हमें ऐसे चरणारविन्द से क्यों दूर कर रहे हो …….ना, प्रियतम ! ना !
पति की सेवा ही धर्म है ये कहा ना तुमनें ? पर हमारे पति के पति भी तो तुम ही हो …………ये सब मरणधर्मा हैं ……पर सच्चे पति तो तुम ही हो ……क्या इस बात को तुम्हारे शास्त्र नही कहते ? गोपियाँ बोलती जा रही हैं………तुमनें ! तुमनें हमें अपनी और खींचा ……हम तो अबला हैं हमारा क्या दोष ? तुम मुस्कुराते , तुम हँसते, तुम हमें छेड़ते , तुम मीठे मीठे बोल बोलकर हमारे हृदय में प्रेम भर रहे थे ……..फिर वही प्रेम आज जब तुम्हारे सामनें है ……तब तुम हमें धर्म सिखा रहे हो ? धर्म की मीमांसा समझा रहे हो ! क्यों प्रियतम !
कुछ नही बोले इस पर भी श्यामसुन्दर ………तब तो चन्द्रावली उठी …….नेत्र प्रणय के कोप से लाल हो गए थे ………..
हम तुम्हे पाकर रहेंगी ……..हिम्मत हो तो रोक लो ।
चन्द्रावली चिल्लाई ।
कैसे ? भोले बनकर श्याम नें ही पूछा ।
तुम्हे देखते देखते अभी हम अपनें प्राण त्याग रही है …………और तुम्हारे शास्त्र ही तो कहते हैं कि. …..जिसका चिन्तन करते हुए प्राण त्यागो …..वह तुम्हे अगले जनम में मिलता ही है………”जैसी चित्त की वृत्ति हो जीव वहीं जाता है”……..चन्द्रावली और समस्त गोपियां जब सिर पटकनें के लिये तैयार हुयीं ………तभी श्रीराधारानी आगे आईँ और बोलीं ………नही, श्यामसुन्दर ! ऐसा मत करो ……..प्रीत की मर्यादा सदा के लिये मिट जायेगी ….ये सब तुम्हे ही चाहती हैं ………इन्हें स्वीकार करो……श्रीराधारानी नें श्याम से कहा ।
गिर पडीं गोपियाँ ………….उन सब की वाणी अवरुद्ध होने लगी ……….साँसों की लड़ी टूटनें लगी …….
तभी शिला से कूदे श्यामसुन्दर………….और अपनी प्यारी गोपियों को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
*शेष चरित्र कल –
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