श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! जब धन्य हुई अवन्तिका !!
भाग 1
उपनयन संस्कार पूर्ण हुआ था श्रीकृष्ण और बलराम का ।
ब्रह्मचर्य आश्रम है ये………विद्याध्यन करनें के लिये अब “विद्यानिधि श्रीकृष्ण” गुरुकुल जायेंगे ।
उद्धव विदुर जी को अब अपनी बात बतानें लगे थे ।
मैं भी तो गुरुदेव बृहस्पति के यहाँ गया था विद्या के लिये ………देवगुरु नें मेरा आदर किया …..मुझ से बहुत प्रसन्न रहते थे वे ……..मुझ से कहते – श्रीकृष्ण चन्द्र भगवान न सही पर उनके मित्र का गुरु होनें का गौरव मुझे मिला …..मैं धन्य हुआ …….वे बार बार मुझ से यही कहते ।
मेरा अध्ययन भी पूरा हो गया था …….और यहाँ मथुरा में मेरे नाथ नें कंस का वध करके मथुरा को सुखी कर दिया था ।
तात ! मैं जब आया गुरुगृह से……तब से मैने अपनें प्राण नाथ श्रीकृष्ण के ही चरण पकड़ लिए ……..उन करुणानिधान नें मुझे यदुवंश का मन्त्री नियुक्त कर दिया था…….मैं उनकी आज्ञा कैसे टालता ………और तब तो टालनें का कोई अर्थ होता ही नही है ……जब वो कह रहे हों ……….उद्धव ! तुम मेरे प्रिय सखा हो …. मैं तुम्हे सदैव अपनें साथ रखना चाहता हूँ इसलिये मन्त्री तुम बनो ।
आहा ! मुझे और क्या चाहिये था ………तात ! मेरे साथ ही ज्यादा रहते हैं श्रीकृष्ण …….एकान्त में मैं ही था जो श्रीकृष्ण चन्द्र जु के साथ रहता था ।…..उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।
यज्ञोपवीत संस्कार के बाद अब गुरुकुल जानें की बारी थी मेरे प्राणनाथ की……….”काशी” ही कहा था सबनें …… क्यों की काशी ही विद्या का केंद्र था ……….इसलिये श्री वसुदेव जी नें अक्रूर जी नें और आचार्य गर्ग नें ……..सबनें कहा …”काशी पढ़नें के लिए श्रीकृष्ण बलराम जायेंगे”…….पर तात ! मैने उस समय काशी न भेजनें के लिये कहा ।
पर क्यों ? विदुर जी नें पूछा …….काशी के लिये आपनें क्यों मना किया उद्धव ?
उद्धव नें उत्तर दिया …………यही प्रश्न मुझ से श्रीमान् वसुदेव जी नें और अक्रूर जी नें भी पूछा था ।
श्रीकृष्ण चन्द्र जु को मेरे बुद्धि – विवेक पर भरोसा था ….इसलिये वो मुस्कराकर मेरी हर बात सुन रहे थे ।
मै उस समय जो बोला ……वो कंस की मृत्यु के बाद बन आयी परिस्थिति के हिसाब से बिल्कुल उचित था …..और श्रीकृष्ण चन्द्र जु को काशी न भेजना मेरा अपना तर्क था ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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