श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! जब कुब्जा के महल में श्रीकृष्ण गए….!!
भाग 2
पर क्यों उद्धव ? श्रीकृष्ण का अंगसंग पाना कोई साधारण बात तो है नही ……..विदुर जी नें उद्धव से कहा ।
मैं ये सोच रहा था विदुर जी ! कि श्रीकृष्ण को पानें के बाद भी कुब्जा वही देह सुख से आगे बढ़ न सकी ………..श्रीकृष्ण, मन्मथ मन्मथ श्रीकृष्ण , जो काम देव को भी मथ दें ऐसे श्रीकृष्ण ……उनके साथ काम विहार ?
उद्धव कहते हैं – मैं उस समय बार बार यही सोच रहा था कि ……मुझे यहाँ श्रीकृष्ण क्यों लाये ? यहाँ लाकर मुझे उन्होंने क्या दिखाया ? क्या ? फिर कुछ देर बाद उद्धव कहते हैं – आह ! श्रीकृष्ण नें मुझे प्रेम के दो रूप दिखाये …..एक स्वसुख और एक प्रेमास्पद का सुख…………स्वसुख , कुब्जा का प्रेम है …..जहाँ प्रियतम का सुख नही अपना सुख……प्रियतम हमें सुख दे …….ये कुब्जा का प्रेम है …..पर प्रियतम को हम सुख दें …….हमें सुख नही चाहिये …….ये गोपी प्रेम है ।
कुब्जा का प्रेम निकृष्ट है …….निम्न है …..पर गोपियों का प्रेम तो उच्चतम है ….प्रेम का शिखर है , प्रेम की ध्वजा है गोपी प्रेम ।
तात ! श्रीकृष्ण मुझे “गोपी भाव” में दीक्षित करना चाहते थे …..इसलिये कुब्जा के निम्न प्रेम से मेरा प्रवेश कराया भाव जगत में …….पर अब वो समय आरहा था जब गोपी भाव से मेरा परिचय होंने वाला था ।
आप आते रहना नाथ ! कुब्जा नें श्रीकृष्ण के हाथों को चूमा ………फिर फिर आलिंगन करनें लगी थी ……….मैं तुमसे दूर कहाँ हूँ सुन्दरी !
मैं हंस पड़ा था उस समय …….पर मैने अपनी हंसी को छुपा लिया ।
ईश्वर सबका होता है ……..वो एक का कैसे हो सकता है ! मुझे अपनें गुरु देव बृहस्पति की बात याद आयी । …….”.आप मेरे हृदय में हो !”
कुब्जा बोली थी ।
श्रीकृष्ण भी मुस्कुराते रहे कुब्जा के सामनें …….फिर मुझे इशारा करके बोले …….रथ लाओ ….अब चलते हैं ……..कुब्जा की प्रतीक्षा पूरी हो गई थी ….मिलन भी आज हो ही गया …………आगे चलकर इसे महारानी भी बना देते हैं श्रीकृष्ण ।
उद्धव कहते हैं – तात ! मैं रथ लेकर आया उसमें कमल नयन को विराजमान कराकर मैं चल पड़ा था आगे ।
मार्ग में एक बार मैने पीछे मुड़कर देखा तो आश्चर्य में पड़ गया ……उन कमल नयन से अश्रु गिर रहे थे……..वो पीताम्बरी से पोंछ रहे थे ।
शेष चरित्र कल –


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