श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ऊधो ! बृज कि याद सतावे – “उद्धव प्रसंग” !!
भाग 1
उद्धव को श्रीकृष्ण बृज क्यों भेजते हैं ?
स्वयं क्यों नही आये ?
या बृजगोपियों को मथुरा में क्यों नही बुलवाया श्रीकृष्ण नें ?
ये प्रश्न मेरे साधकों नें फिर किया है ……जिनको इन प्रश्नो के उत्तर चाहिये वो मेरी “श्रीराधाचरितामृतम्” पढ़ सकते है ।
फिर भी संक्षिप्त में , मैं इन प्रश्नों का उत्तर यहाँ भी देंने की कोशिश करूँगा ………..साधकों ! सोचा था कि “श्रीकृष्णचरितामृतम्” उद्धव गोपी सम्वाद तक ही लिखूँगा ……पर मेरे मित्र “शाश्वत” नें मुझ से कहा ….”उत्तर श्रीकृष्णचरितामृतम्” भी आप लिखिये ……मुझे उनकी ये बात ठीक लगी …….और अब मेरे युगलवर इस बात से राजी हैं ……।
कल की एक घटना नें मुझे आल्हादित किया ……इस घटना का उल्लेख करना मुझे अनुचित नही लग रहा । ……….महाराष्ट्र से एक साधक आये ……..मुझ से भेंट करनें की उनकी बहुत इच्छा थी ……..भाव भरी उनकी आँखें …….हाथों में मेहदी …आँखों में काजल ………बात बात में नयनों में जल आजाना ।
“मैं पूर्वजन्म की गोपी हूँ” …….उन प्रेमरस के साधक नें मुझ से कहा ।
मैं उन्हें देखता रहा …….वो सामान्य नही लग रहे थे …..उनको देखनें पर लग रहा था कि वो यहाँ के नही कहीं ओर के हैं ।
“अपराध हो गया था मुझ से, माखन नही दिया था मैने कन्हैया को”……उनके नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ………..”.तब मेरे अपराध के कारण ही मुझे ये जनम मिला ……..मुझे क्षमा करें मेरे गोपाल …….अब मैं कभी ऐसा नही करूंगी ……मुझे अपनें पास बुला लें” ।
वो गोपी थीं ? हाँ बिल्कुल वो गोपी ही थी………उन्होंने कई बातें मुझे बताईं ……….जिन्हें मैं यहाँ सार्वजनिक नही कर सकता ।
मैं क्या साधना करूँ ? मुझ से उन गोपी नें पूछा ।
मैं बताऊंगा ? मैं ? एक गोपी को ? मैं भाव सिन्धु में डूब गया था ।
गोपी की क्या साधना ? विरहाग्नि को बढाइये ……रोइये ! पुकारिए !
ये तो मैं करती हूँ……..यही तो मैं करती हूँ ! मैने कहा …….फिर इससे बड़ी साधना कोई नही है …….आप बस इसी को करते रहिये ।
पर मुझे पृथ्वी लोक में क्यों भेजा नन्दनन्दन नें ? ये उनका प्रश्न था ….मैने कहा ……इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ …….अपनें नन्दनन्दन से ही पूछिये…….वो कुछ देर तक मेरे पास बैठे रहे ……फिर चले गए ………मैं उन्हें देख रहा था …….वो प्रेमाभक्ति की अच्छी ऊंचाई पर स्थित थे ।
साधकों ! गोपी प्रेम सर्वोच्च प्रेम है ……..तड़फना, रोना , बिलखना ….अपनें प्यारे के प्रति प्रेम , उसके सुख की कामना ….स्वसुख का पूर्ण त्याग ।….”.उद्धव गोपी सम्वाद” के माध्यम से हम यही सब समझेंगे ….और नारद जी नें क्यों अपनी नारद भक्ति सूत्र में प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण गोपी का देकर कहा – “यथा बृज गोपिकानाम्”।
सूरदास जी नें तो लिख ही दिया है …….”गोपी प्रेम कि ध्वजा” ।
आइये – “उद्धव गोपी सम्वाद” के माध्यम से हम जानें गोपी प्रेम को ।
हरिशरण
श्रीकृष्णचन्द्र जु महाराज की जय जय जय !
श्रीवासुदेव यदुकुल भूषण श्रीकृष्णचन्द्र जु की जय जय जय !
मथुराधीश श्रीदेवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र जु की जय जय जय !
सभा लगी हुयी थी , महाराज उग्रसेन स्वयं बैठे थे ……मैं उद्धव भी बैठा था …..अन्य समस्त राजकीय व्यक्तित्व सभा की शोभा को बढ़ा रहे थे ……अक्रूर जी स्वयं खड़े होकर सभा को संबोधित कर रहे थे …….तभी –
श्रीकृष्णचन्द्र जु महाराज की जय जय जय !
सब उठ गए थे सभा में ………स्वय महाराज उग्रसेन उठकर खड़े हो गए थे ……..सबनें स्वागत किया …….पुष्पों का हार अर्पित किया …….और महाराज उग्रसेन नें अपने ही बगल में श्रीकृष्ण का सिंहासन लगवाया…..मुस्कुराते हुये सबका अभिवादन करते हुये श्रीकृष्णचन्द्र जु विराजे थे ।
अब महाराज उग्रसेन खड़े हुये और समस्त राजकीय विभागों के विरिष्ठ अधिकारीयों को एवं मंत्रीजनों को संबोधित करते हुये बोले …..”वासुदेव श्रीकृष्ण विद्याध्यन करके गुरुकुल से पधारे हैं …..हम सब मथुरावासी इनका स्वागत और सम्मान करते हुये गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं ।
करतल ध्वनि से सबनें स्वागत किया …….उद्धव कहते हैं – तात ! मैं बहुत प्रसन्न था वहाँ …….मैने ही करतल ध्वनि की शुरुआत की थी ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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