श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ऊधो ! बृज कि याद सतावे – “उद्धव प्रसंग” !!
भाग 2
अब महाराज उग्रसेन खड़े हुये और समस्त राजकीय विभागों के विरिष्ठ अधिकारीयों को एवं मंत्रीजनों को संबोधित करते हुये बोले …..”वासुदेव श्रीकृष्ण विद्याध्यन करके गुरुकुल से पधारे हैं …..हम सब मथुरावासी इनका स्वागत और सम्मान करते हुये गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं ।
करतल ध्वनि से सबनें स्वागत किया …….उद्धव कहते हैं – तात ! मैं बहुत प्रसन्न था वहाँ …….मैने ही करतल ध्वनि की शुरुआत की थी ।
राजकीय व्यवस्था में कुछ परिवर्तन आप अगर चाहते हैं तो हम उसे स्वीकार करके तुरन्त करेंगे……..आप हमारा मार्गदर्शन करें !
मैं आपका “नाना जी” होनें के नाते नहीं मथुरा की प्रजा का प्रतिनिधित्व करनें वाले के नाते आपसे कह रहा हूँ …….महाराज उग्रसेन नें सबके सामनें श्रीकृष्णचन्द्र जु को हाथ जोड़ा ।
श्रीकृष्ण चन्द्र जु नें उनके हाथों को पकड़ कर माथे से लगाया था ।
हाँ , हंसे उग्रसेन……फिर बोले…….”वृन्दावन’ की याद आपको हम आनें नही देंगे ……क्यों की क्या पता आप मथुरा छोड़कर चले जाएँ वहाँ…….आपको अब हम सब यहीं रखेंगे ……..माखन आपके लिये वृन्दावन से ही आएगा …….आप कहें तो यशोदा के हाथों का माखन मंगा दें ! उग्रसेन की बातें सुनकर सब हंसे………पर ये क्या ! श्रीकृष्ण गम्भीर हो गए …….अभी तक सहज थे……..मुस्कुरा भी रहे थे …..पर अब गम्भीर मुख मण्डल हो गया इनका ……..ये क्या ?
उठकर खड़े हो गए श्रीकृष्ण ……..महाराज उग्रसेन कुछ समझ नही पाये ……….कि हुआ क्या ? सब खड़े हो गए हैं क्यों कि श्रीकृष्ण खड़े हो गए थे ……….।
तात ! मैं उस समय काँप गया …….कि ये एकाएक मेरे गोविन्द को क्या हुआ ? और इतना ही नही …….किसी को देखे बिना …….राजकीय सभा कि मर्यादा को धता बताते हुये वो वापस भी चले गए ।
कोई समझ नही पा रहा था कि हुआ क्या ? ऐसी कोई बात तो की नही थी किसी नें…..और फिर बोल भी रहे थे तो महाराज उग्रसेन, और कोई सभा को सम्बोधित कर भी नही रहा था ।
उद्धव ! तुम जाओ ……..कहीं वासुदेव हमसे रुष्ट तो नही हो गए ?
कारण क्या है …………हमारे समझ में नही आरहा , जाओ उद्धव ! तुम सखा भी हो वासुदेव के …….तुम उनके स्वभाव से भी परिचित हो ….जाओ और क्या कारण है हमें बताओ ! महाराज उग्रसेन नें मुझे श्रीकृष्ण के पीछे भेज दिया था ……वैसे तात ! महाराज न भी भेजते तो भी मैं जाता ……क्यों कि श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणाधार हैं ।
मैने धीरे से उनके महल का द्वार खोला था…….यमुना के किनारे उनका महल …….झरोखा यमुना कि ओर ही खुलता था ……खुला था वहीं खड़े थे श्रीकृष्ण और यमुना को ही देख रहे थे ।
उन्हें पता भी न चला कब मैने उनका द्वार खोला है ………वो तो यमुना को ही निहारे जा रहे थे……..मैने आगे बढ़कर उनके चरण जब छूए ।
उद्धव ! तुरन्त उन “कमलनयन” नें अपनें अश्रु पोंछ लिये ।
कैसे हो ? मुझ से पूछ रहे हैं !
उद्धव ! मुझे गुरुकुल में तुम्हारी बहुत याद आयी थी ……..पता है मुझे वहाँ एक मित्र भी मिला सुदामा नाम था उसका ……..वो कुछ आक्रामक से बोले जा रहे थे ।
नाथ ! क्या बात है ? मैने उनके नेत्रों में देखते हुये कहा ।
क्या बात है ! कुछ भी तो नही ! उद्धव ! क्या ! वो सहज होना चाह रहे थे पर हो नही पा रहे थे ।
नाथ ! आप एकान्त में रोते हैं , क्यों ? मैने हिम्मत करके पूछ लिया ।
हा हा हा हा हा , मैं क्यों रोनें लगा ………मैं नही रोता उद्धव !
कल भी आप अश्रु बहा रहे थे और मैं जब आपके पास गया आपनें अश्रु पोंछ लिए …………
अरे नही उद्धव !
ये कहते हुये मेरे कन्धे में हाथ रखा था उन श्रीकृष्ण नें ।
फिर कल भी कुब्जा के यहाँ से लौटते समय ………
और आज , अभी ! महाराज नें बस वृन्दावन का नाम ही तो लिया था ………….नाथ ! एक बात मैने देखी है ……..जब जब वृन्दावन या वहाँ की चर्चा चलती है तब आप रोते हैं ! क्यों ?
अब गम्भीर हो गए थे श्रीकृष्ण ………”नही ऐसी कोई बात नही है ” ….
श्रीकृष्ण आगे बढ़कर फिर यमुना को देखनें लगे थे ………..
मैने चरण पकड़ लिये ….नाथ ! मुझे तो बता दो ! मत छुपाओ मुझ से ।
मैं बोलता रहा ……….उनके चरण पकड़ कर मैं पूछता रहा ………वो यमुना की ओर मुँह करके खड़े रहे ……..जब मैने उनके मुखारविन्द को देखा तो अश्रुओं की धारा बह रही थी ………….
मुझे उन्होंने पकड़ा और अपनें हृदय से लगा लिया ……..और हिलकियों से रोते हुये वो बोलते चले गए ………….उद्धव ! मैं भूल नही पा रहा हूँ वृन्दावन को ……..मेरा वो वृन्दावन ! मेरी वो गोपियाँ …….कैसे रहती होंगी ….मेरे ग्वाल बाल …..मेरी मैया यशोदा ! मेरा बाबा ! मेरी गैया ………….और तो और मैं क्या कहूँ …….मेरी – राधा ! राधा राधा ! ये कहते हुये मेरे नाथ गिर गए थे वो तो मैने सम्भाला उन्हें …….उनकी दशा ऐसी ! मैने आज तक देखि नही थी ………वो अभी भी राधा राधा राधा पुकार रहे थे ………मैं कुछ समझ नही पा रहा था कि ये क्या है ?
शेष चरित्र कल –


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