श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण द्वारा बृज की चर्चा – “उद्धव प्रसंग 3” !!
भाग 2
नाथ ! मैं चरणों में गिर गया उनके …..ऐसा कौन सा कार्य है जिसका आदेश आप मुझे दे नही पा रहे ……मुझ से इतना संकोच क्यों ?
मैं आपका भाई भी हूँ आपका मित्र भी हूँ …..और नाथ ! इन सबसे ज्यादा मैं आपका सेवक हूँ ……..आप आज्ञा तो दीजिये प्रभो !
“तुम बृज जाओ उद्धव !” वहाँ मेरी मैया हैं……मेरे बाबा हैं ….मेरे ग्वाल सखा हैं मेरी गोपियाँ हैं और मेरी श्रीराधा हैं ………….फिर नयन भर आये थे इन सबका नाम लेनें मात्र से कमलनयन के ।
उनको बताओ कि “ये सब मिथ्या है”……….क्या बता सकोगे ?
उस बूढी मैया को , जो आज भी इस इन्तजार में है कि मेरा लाला आएगा ! मथुरा कि ओर देखती रहती है …………आज नही आया तो कल आएगा ……….बस ऐसे ही अपनें जीवन को बिता रही है उसको समझाओ कि – “ये सब मिथ्या है” ।
वो बाबा , मेरे नन्दबाबा …….उनकी दशा तो और ज्यादा बिगड़ रही है ……मैया तो कमसे कम अपनी गोपियों के साथ रो लेती है ………पर उद्धव ! मेरे वो बाबा , वो तो रो भी नही सकते ……क्यों कि वो बृजराज हैं……बृज के राजा हैं………राजा ही हिम्मत खो देगा तो फिर प्रजा का क्या होगा ! मेरे वो बाबा अंदर ही अंदर घुट रहे हैं ……….किसी को बताते नही हैं.. …सब को ढांढस बंधाते फिरते हैं………सबको झूठ ही बोल देते हैं…..कि ” कन्हैया आएगा”……..पर वही मेरे पूज्यनीय बाबा हैं जिन्हें पता है कि … मैं नही जाऊँगा वृन्दावन ।
पर वो किसी को नही बताते …………अकेले में रोते हैं …….यमुना के किनारे बैठ कर खूब रोते हैं…..पर किसी को अपनें आँसू नही दिखा सकते………..बाहर से मजबूत लगते हैं मेरे बाबा ….पर हृदय से बहुत कमजोर हैं………..इस बात को मैं ही जानता हूँ ………उफ़ ! आँसुओं कि मानों बाढ़ आगयी थी अब श्रीकृष्ण के नयनों में …………..
हिलकियों से रोते हुये बोले….उनको समझाना कि – “ये सब मिथ्या है”
और मेरी गोपियाँ ! वो तो पूरी बाबरी हैं ।
दिन भर यमुना किनारे बैठी रहती हैं ………….मेरे हृदय में वो हैं और उनके हृदय में मैं हूँ …………उन्होंने मेरे लिये सब धर्मों कि तिलांजलि दे दी है …..उनके लिये अब कोई धर्म है तो वह है – “मेरा चिन्तन”, यही उनका धर्म है ….परमधर्म है । उनका मन अब उनके पास नही है ……….मन ही नही है ….मन, मुझ में वो कबका लगा चुकी हैं ।
उनके तन मन में मैं ही हूँ ……उनके चित्त में मैं ही गढ़ा बैठा हूँ ।
उनकी हर क्रिया में मैं ही हूँ ……….उनकी हर साँस में मैं ही हूँ ………उनके रोम रोम में मैं ही हूँ ……….वो मेरी हैं , सिर्फ मेरी ……..और मैं उनका अपना हूँ ………पर उद्धव ! मैं सिर्फ उनका नही हूँ …….इसलिये वो मुझ से भी आगे हैं ……..वो अनन्य हैं ….पर मैं अनन्य नही हूँ……..मेरी प्रतिज्ञा ……”जो मुझे जिस तरह भजता है मैं भी उसे उसी तरह भजता हूँ”……पर बृज के इन प्रेमियों नें मेरी ये प्रतिज्ञा भी तुड़वा दी क्यों की ये कृष्ण कई जन्म लेनें पर भी इन गोपियों जैसा प्रेम कर नही सकता ……..ये गोपियाँ सर्वोच्च हैं …………उनको समझा सकोगे उद्धव ! कि …….”सब मिथ्या है” ।
और मेरी राधा ! ये नाम फिर जैसे ही श्रीकृष्ण के मुख से निकला …….इनकी तो अलग ही स्थिति हो गयी थी ………
राधा ! राधा ! राधा ! कहते हुये यमुना कि ओर ये दौड़े थे ……..और श्रीकृष्ण नें भावातिरेक में यमुना में डुबकी मारी………..एक माला ……उधर से बहती हुयी आरही थी ………..ये कमल की माला श्रीराधा नें स्वयं ही बैठे बैठे यमुना के किनारे बनाकर बहा दिया था ……….और – जब श्रीकृष्ण यमुना से गोता लगाकर बाहर निकले थे ……उनके गले में वही माला थी……..राधा राधा राधा राधा ! फिर प्रेम समाधि में डूब गए थे श्याम सुन्दर ।
शेष चरित्र कल –


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