श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! बृज बिसरत नाहीं – “उद्धव प्रसंग 4” !!
भाग 2
माता ! मेरे लिये आप छप्पन भोग लाओ ………मुझे कोई आपत्ति नही है ……पर मेरे लिये ये माखन ……..माखन मत लाना ! वो रोये जा रहे थे ……….उनका रुदन बढ़ता ही जा रहा था ।
पर क्यों ? इतना तो पूछ ही सकती हूँ ना मैं ?
देवकी माता नें पूछा ।
“क्यों कि माखन को देखकर मुझे मेरी मैया यशोदा याद आती है”….
ओह ! ये कहते हुए फूटफुट कर रो पड़े थे मेरे नाथ ।
कैसे माखन निकालती थी वो ! सुबह ही उठ जाती थी ……..दास दासियों से नही ……अपनें हाथों से ……..कहती थी मैया …..अपनें लाला के लिये मैं ही माखन निकालूंगी ………….वो माखन देती थी ……पेट भर के देती थी ………मेरी मैया यशोदा को मैं भूलना चाहता हूँ ………पर भुला नही पा रहा ………उसकी वो सूनी आँखें जो मथुरा कि ओर लगीं रहती हैं ………वो आँखें मुझे चैन नही लेनें देतीं ।
माता ! माखन मत रखना मेरी थाल में……..मैं माखन नही खाऊँगा !
क्या कुछ कमी है मथुरा में ? उद्धव ! पूछो अपनें मित्र से कुछ कमी हो तो वो बता दे ………यहाँ सब कुछ है !
देवकी माता इतना कहकर चलीं गयीं श्रीकृष्ण के पास से ।
मैने श्रीकृष्ण की ओर देखा ……….बस देखता ही रहा ………वो कमल नयन बस बरस रहे थे निरन्तर ………सब है उद्धव ! मथुरा में …..किसी वस्तु की कमी नही है ……क्या कमी होगी यहाँ ! हजारों दास दासियाँ मेरे आस पास हैं …………ओह ! मथुराधीश श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज ……बड़े बड़े नाम हैं मेरे यहाँ ………..पर !
पर क्या नाथ ? मैने उनकी पीताम्बरी पकड़ ली थी ।
वो प्रेम नही है यहाँ ! सब कुछ है पर “प्रेम” नही है ।
एक छींक आजाती थी ना मुझे वृन्दावन में …..तो मेरी मैया पागल हो उठती थी ……..गरम जल, हल्दी शहद क्या क्या नही करती मेरे लिये ………इसके बाद भी वो आस पास के सब झाड़ फूँक करनें वालों को बुलाती ……..मेरे लाला को छींक आगयी है …………..
वो प्रेम यहाँ कहाँ ?
श्रीकृष्ण फिर उसी झरोखे में जाकर खड़े हो गए थे जहाँ से यमुना दिखाई देती थीं ।
तो मेरे लिये कोई आज्ञा ? मैने सिर झुकाकर आज्ञा माँगी ।
उद्धव ! मैने झूठ बोला उन लोगों से ………मैने अपनी मैया से झूठ बोला कि मैं आऊँगा वापस ………..मैने अपनी गोपियों को झूठा आश्वासन दिया कि मैं आऊँगा ……..मैने अपनें सखाओं को कहा मैं आऊँगा ………पर उद्धव ! मैं जा नही पाया ………..श्रीकृष्ण बिलख रहे थे ये कहते हुए ।
पर वो लोग अब तक तो अपना देह त्याग चुके होंगे ! मैने फिर कहा ।
नही , वो लोग आस लगाये बैठे हैं ………सब के सब आस लगाएं हैं कि मैं वहाँ वापस आनें वाला हूँ ………उन लोगों का क्षण क्षण पल पल मेरी याद में ही बीतता है …………..वो अपनें देह को त्यागेंगे नहीं ………क्यों कि उन्हें पूरा विश्वास है कि – मैं जाऊँगा उनके पास ।
तो मेरे लिए क्या आज्ञा ? मैने फिर पूछा ।
तू जा ! बृज जा ! मेरे मैया बाबा को समझाना ………मेरी गोपियों को उपदेश देना …..हाँ , उपदेश देना ……….तू दे सकता है……..मैं नही दे सकता ……क्यों कि मैं तो उनका प्रिय हूँ ना ……प्रियतम का उपदेश प्रेमी लोग मानते कहाँ हैं ………तू दे ……तू दे भी सकता है ……तू ! उद्धव तू अपना परिचय मेरा मित्र और देवगुरु बृहस्पति का शिष्य कहकर देना …….तब तेरी बात वो लोग सुनेगें !
हाँ उद्धव ! तू क्या कह रहा था कुछ समय पहले ……कि …….आप घटघट वासी हैं ………आप सर्वत्र और सर्वदा हैं …….सर्वकाल में हैं ……यही बात तू उन लोगों को समझाना ……….हाँ उद्धव ! तू उपदेश देना …….गुरु बनना उनका । श्रीकृष्ण नें ये कहते हुए मेरे चेहरे को छूआ था ।
पर वो गंवार गोपियाँ मेरी बात समझेंगी ? तात ! मेरे मुख ये क्या बात निकल गयी थी ।
नहीं, उद्धव ! नही ……..वो गंवार नही हैं……..मेरी गोपियाँ गंवार नही है …….ऐसा मत कहो उद्धव ! गंवार कहकर तुम उनका नही मेरा अपमान कर रहे हो……..ओह ! ये मैने क्या कह दिया था ।
श्रीकृष्ण बोलते गए……….बहुत कुछ कहा उन्होंनें ।
मैं सिर झुकाकर सुनता रहा……..बृजवासी श्रीकृष्ण के लिये क्या थे ये मैने आज समझा था………..ओह !
शेष चरित्र कल –


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